अधिगम के वक्र तथा पठार से क्या अभिप्राय है ? विवेचना करो।
प्रत्येक अध्यापक की यह इच्छा अवश्य होती है कि उसने जो कुछ अपने छात्रों को सिखाया है, उसकी प्रगति ज्ञात करे। दूसरे शब्दों में, वह अधिगम का मापन करे। छात्रों को भी यह ज्ञात रहना चाहिये कि उनकी सीखने की गति क्या रही है ? अतः अधिगम को मापने के लिये सामान्य आँकड़ों को वर्गांकित कागज पर अंकित करके यह ज्ञात किया जाता है कि अधिगम की गति क्या रही है।
स्किन्नर ने वर्गांकित कागज पर आँकड़ों से निर्मित चित्र को अधिगम वक्र कहा है। उसके अनुसार- “अधिगम का वक्र किसी दी हुई क्रिया में उन्नति या अवनति का वर्गाकित कागज पर ब्यौरा है।” इसी प्रकार रैमर्स तथा उसके साथियों ने अधिगम के वक्र को इस प्रकार परिभाषित किया है- “सीखने का वक्र किसी दी हुई क्रिया की आँशिक रूप से अधिगमित करने की पद्धति है।” एलेक्जेन्डर ने कहा है- “जब आँकड़ों को वर्गाकत कागज पर अंकित किया जाता है तो वह वक्र बन जाता है।” गेट्स ने अधिगम वक्र की परिभाषा इस प्रकार दी है- “सीखने का वक्र सीखने की क्रिया में होने वाली प्रगति को व्यक्त करता है। “
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अधिगम के वक्र से प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की पूरी-पूरी जानकारी रहती है कि किसी व्यक्ति ने किसी क्रिया को सीखने में किस प्रकार प्रगति की है।
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अधिगम वक्र: प्रकार
अधिगम वक्र किस प्रकार का है, यह निर्भर करता है उस इकाई पर जिसे हम वर्गांकित कागज पर अंकित करना चाहते हैं। अधिगम की क्रिया अनेक प्रकार से सम्पादित होती है। इसी प्रकार अधिगम वक्र को किसी एक प्रकार से नहीं दिखाया जा सकता। अधिगम पर अधिगामक (Learner), विषय (Subject), विधि (Method) आदि प्रभाव डालते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम वक्रों को दो रूपों में विभक्त किया है-
1. ऋणात्मक उन्नति सूचक वक्र (Negative accelerated curve)- इस प्रकार के वक्र में अधिगम की प्रक्रिया में आरम्भ में अधिक प्रगति दिखाई पड़ती है, अभ्यास के बढ़ने के साथ-साथ उन्नति की गति शिथिल पड़ती जाती है। वर्गाकित कागज पर जब ऐसा चित्र उभर कर आता है तो वह ऋणात्मक उन्नति सूचक वक्र कहलाता है।
2. धनात्मक उन्नति सूचक वक्र (Positive accelerated curve) – इस प्रकार वक्र में उन्नति की गति कम होती है। बाद में उन्नति की गति में अभ्यास के साथ-साथ वृद्धि होती चलती है।
अधिगम वक्र: विशेषतायें
अधिगम के वक्रों का अध्ययन करने पर उसमें अनेक विशेषतायें देखी गयी हैं। ये विशेषतायें इस प्रकार हैं-
1. अनियमित अधिगम (Irregular Learning)- अधिगम के वक्र की गति इस प्रकार की होती है कि उसमें अनियमित उन्नति प्रकट होती है। उसमें प्रकट होने वाली अस्थिरता (Fluctuation) का कारण चाहे पाठ्यक्रम की कठिनाई हो या शिक्षण विधि का दूषित होना हो, वह वक्र में प्रकट हो ही जाता है। कोई छात्र गणित में निरन्तर उन्नति करता जा रहा है। अचानक ही उसे बाहर जाना पड़ता है। इस मध्य उसका अभ्यास छूट जाता है। उसके अधिगम में स्वभावतः शिथिलता आयेगी और वह शिथिलता वर्गांकित कागज पर अंकित हो जायेगी।
2. वक्र में पठार (Plateaues in curve) – सीखने की क्रिया में एक स्थिति ऐसी भी आती है, जबकि सीखने की गति में समानता नजर आती है। ऐसी स्थिति में ऐसा लगता है कि प्रगति रुक रही है। इस स्थिति को पठार कहते हैं। इस प्रगति को मापा नहीं जा सकता। पठार हर वक्र में होता है।
3. कार्य-कारण का सम्बन्ध- अधिगम के वक्र से हमें यह पता चल जाता है कि बालक के सीखने की प्रगति में कार्य तथा कारण के सम्बन्ध किस सीमा तक कार्य करते हैं। अनेक परीक्षणों से छात्र की प्रगति का पता लगाया जा सकता है। वास्तविकता यह है कि छात्र की गुणात्मक तथा परिमाणात्मक उन्नति का परिचय प्राप्त हो जाता है।
4. शारीरिक क्षमता- अधिगम वक्र से व्यक्ति की शारीरिक क्षमता की सीमा का ज्ञान हो जाता है। अधिगम के वक्र से यह पता चलता है कि छात्र में किसी क्रिया को सीखने की शारीरिक क्षमता कितनी है ? और वह किस सीमा तक उसका उपयोग करता है ?
अधिगम वक्र : प्रभाव का तत्व
अधिगम वक्र पर अनेक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। गेट्स तथा अन्य विद्वानों ने उन प्रभावक तत्वों को इस प्रकार व्यक्त किया है-
1. अधिगम में पूर्वानुभव प्रगति का प्रदर्शन करते हैं। वक्र में बालक द्वारा पूर्व ज्ञान का लाभ उठाकर नवीन ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया और उसका परिणाम स्पष्ट हो जाता है।
2. अधिगम की जाने वाली क्रिया का यदि आभास मात्र भी हो जाये तो उसका भी प्रभाव वक्र में परिलक्षित हो जाता है। परीक्षा के समय एक सूत्र का आभास मिलने पर छात्र अच्छे अंक प्राप्त कर लेता है।
3. अधिगम की क्रिया यदि सरल से कठिन की ओर (From easy to complex) सिद्धान्त पर आधारित है, तो वक्र पर उसका अंकन उन्नति सूचक होगा।
4. अधिगम की क्रिया में कुशलता का अर्जन होने पर मापन के समय उसका प्रभाव स्पष्ट प्रकट होता है।
5. अधिगम की क्रिया के लिये यदि सीखने वाले में क्रिया के प्रति अपूर्व उत्साह है तो उसका दर्शन भी वक्र में हो जायेगा।
अधिगम पठार
स्किन्नर ने अधिगम के पठार के बारे में कहा है- “पठार क्षैतिज प्रसार है, जिससे उन्नति का बोध नहीं होता है। ” इससे स्पष्ट है कि अधिगम की प्रक्रिया में एक स्थिति ऐसी आ जाती है, जब सीखने की गति में कोई प्रगति होती दिखाई नहीं देती। यह स्थिति ही पठार (Plateau) कहलाती है। रैक्स एवं नाइट (Rex and Knight) ने पठार के विषय में कहा है- “सीखने में पठार तब आते हैं जब व्यक्ति सीखने की एक अवस्था पर पहुँच कर दूसरी में प्रवेश करता है। “
पठार की अवधि कब तक रहती है, यह वैयक्तिक भिन्नता पर निर्भर करता है। सोरेनसन (Sorenson) ने इस प्रसंग में कहा है—“सीखने की अवधि में पठार साधारणतया कुछ दिनों, सप्ताहों या महीनों तक रहते हैं।”
पठार की स्थिति निम्न चित्र से स्पष्ट हो जायेगी। चित्र में मन्दतम मुख्य रेखा (Slowest main line rate) पठार की सूचक है।
अधिगम के पठार : कारण
अधिगम की प्रक्रिया में पठार के आने के कई कारण हैं, जो इस प्रकार हैं-
1. शारीरिक सीमा- छात्र किसी क्रिया को सीखते हैं। सीखते सीखते एक स्थिति ऐसी आती है, जब वह थकान अनुभव करने लगता है। ऐसी स्थिति में सीखने की प्रगति प्रभावित होती है और वहीं पर पठार बन जाता है।
2. गलत पद्धति- अधिगम की अनुचित विधि अपनाने पर छात्रों में अरुचि उत्पन्न होती है और वहीं पर पठार बन है।
3. प्रेरणा का अभाव – अध्यापक जिन विषयों को छात्रों में प्रेरणा उत्पन्न किये बिना पढ़ा देता है, उनके प्रति छात्र उदासीन हो जाते हैं। उदासीनता थकान उत्पन्न करती है और वही पठार के निर्माण में उत्तरदायी है।
4. गलत क्रम- यदि शिक्षण विधि का क्रम गलत है तो वह भी पठार के निर्माण में सहयोग देता है।
5. अभ्यास का अभाव- अधिगम की क्रिया अभ्यास के बिना पूर्णता प्राप्त नहीं करती। अभ्यास का अभाव ही पठार का कारण बन जाता है।
6. सामग्री का एकांगीपन- अधिगम की प्रक्रिया में जब केवल एक भाग पर बल दिया जाता है तो वह पठार का कारण बन जाता है।
7. त्रुटियों का स्थानान्तरण- अधिगम की प्रक्रिया में उत्पन्न त्रुटियाँ जब दूसरी क्रिया में भी स्थानान्तरित होने लगती है, तब भी पठार बन जाता है।
अधिगम पठार: निराकरण
अधिगम की प्रक्रिया में पठार का अस्तित्व अध्यापक तथा छात्र दोनों के लिये ही लाभदायक है। अध्यापक को पठार की उपस्थिति से यह ज्ञात हो जाता है कि छात्र अब थक गये हैं और उनमें सीखने की शक्ति नहीं है। अध्यापक इस स्थिति का लाभ उठा सकता है और अधिगम को प्रभावशाली बना सकता है। छात्रों के लिये भी जानकारी इसलिये आवश्यक है । पठार की जानकारी प्राप्त करके ज्ञान का संगठन कर सकते हैं।
पठार को दूर करने के लिये अध्यापक को इन उपायों का आश्रय लेना चाहिये-
1. शिक्षण विधि में परिवर्तन- अध्यापक जब यह अनुभव करे कि अधिगम में पठार आ रहा है तो उसे तुरन्त ही शिक्षण विधि बदल देनी चाहिये। पाठ को रोचक बनाना चाहिये एवं उसमें नवीनता लानी चाहिये।
2. प्रेरणा तथा उद्दीपन- अधिगम की क्रिया उस समय तक प्रभावहीन रहती है, जब तक छात्रों में अध्यापक क्रिया अथवा विषय विशेष के प्रति प्रेरणा तथा उद्दीपन (Incentive) नहीं रहता। पुरस्कार (Reward) तथा दण्ड (Punishment) के माध्यम से अध्यापक छात्रों में प्रेरणा उत्पन्न कर सकता है।
3. पाठ्य सामग्री का संगठन – अध्यापक को पठार की स्थिति से बचने के लिये पाठ्य सामग्री का संगठन ‘सरल से कठिन की ओर’ सिद्धान्त के आधार पर करना चाहिये। बालकों के मनोविज्ञान का पूरा-पूरा ध्यान इस संदर्भ में रखा जाना चाहिये ।
4. कार्य में परिवर्तन- अध्यापक को चाहिये कि जब वह पठार अनुभव करे तो उसे एक विषय को पढ़ाना बन्द करके दूसरा विषय पढ़ाना आरम्भ कर देना चाहिये।
5. विश्राम- पठार की स्थिति आ जाने पर अध्यापक को चाहिये कि वह छात्रों को विश्राम देकर उनकी थकान दूर करे।
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