शिक्षा मनोविज्ञान / EDUCATIONAL PSYCHOLOGY

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक | factors affecting learning in Hindi

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक | factors affecting learning in Hindi
अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक | factors affecting learning in Hindi

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।

अधिगम की क्रिया को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं। उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे है-

1. बालक से सम्बन्धित प्रभावक प्रतिकारक (Factors Belonging to Learner)

जब कोई बालक पहली बार विद्यालय में आता है तो उस समय उस पर घर का प्रभाव अधिक होता है। वह घर तथा परिवार की कल्पना लिए विद्यालय के प्रांगण में आता है, उस समय अनेक प्रश्न तथा जिज्ञासा उसके मन में उठती हैं। उसे नवीन परिस्थिति में अपने को समायोजित करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में अधिगम की क्रिया अनेक कारकों से प्रभावित होती है। उसे प्रभावित करने वाले प्रतिकारक इस प्रकार हैं-

1. बालक – बालक किसी भी क्रिया को सीखने का केन्द्र बिन्दु है। शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है। बालकों की रुचि, योग्यता, क्षमता, व्यक्तिगत भेद, बुद्धि के आधार पर सम्पन्न की गई क्रिया प्रभावशाली होती है। बालक अधिगम का आधार है, उसके अभाव में किसे सिखाया जा सकता है ?

2. अध्यापक एवं अभिभावक – विद्यालय एवं घर में किसी भी क्रिया के सीखने का दायित्व अध्यापक एवं अभिभावकों का है। वे बालक में ज्ञान तथा क्रिया का अधिगम कराने के लिए उचित वातावरण की तैयारी करते हैं।

3. पाठ्यक्रम- बालक को कोई क्रिया उस समय तक नहीं सिखायी जा सकती, जब तक यह ज्ञात न हो कि उसको क्या सिखाना है ? ‘क्या सिखाना’ ही पाठ्यक्रम है। विद्यालय में जो सिखाया जाता है, उसका माध्यम पाठ्यक्रम होता है। पहले पाठ्यक्रम का अभिप्राय पुस्तकों से समझा जाता था। अब खेल-कूद, भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि पाठ्यक्रम का अंग बन गए हैं।

4. अधिगम की परिस्थिति (Situation) – अधिगम की परिस्थिति से तात्पर्य वातावरण से है। विद्यालय, कक्षा तथा घर का वातावरण आदि सुन्दर है तो अधिगम की प्रक्रिया सरल हो जाती है। बालकों का योग भी इनमें निहित रहता है।

5. अधिगम की प्रक्रिया (Process) – किसी भी क्रिया को किस प्रकार सम्पन्न किया जाता है, इससे भी अधिगम प्रभावित होता है। यद्यपि मनोवैज्ञानिक अधिगम की प्रक्रिया के सम्पादन पर मतैक्य नहीं हैं। अधिगम की प्रक्रिया चाहे जिस भी ढंग से सम्पादित की जाए, परन्तु यह बात अपनी जगह सत्य है कि बालक किसी भी क्रिया को अपने ही ढंग से ग्रहण करता है।

अधिगम: प्रभावक प्रतिकारक

1. उचित वातावरण- अधिगम, वातावरण से प्रभावित होता है। वातावरण बाह्य हो या आन्तरिक, घर का हो या समुदाय का विद्यालय का हो या कक्षा का, अधिगम का वातावरण ठीक है तो क्रिया को सीखने में कठिनाई नहीं होगी। कक्षा एवं घर में प्रकाश, वायु का प्रबन्ध, सफाई आदि बाह्य वातावरण की सृष्टि करते हैं। बालकों को किसी भी क्रिया या ज्ञान के सीखने के लिए यह आवश्यक है कि वे मानसिक रूप से तैयार हों अर्थात् उनके लिए मनोवैज्ञानिक परिस्थिति उत्पन्न की जाए।

2. शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य- प्रायः देखा जाता है कि शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ बालक ज्ञान तथा क्रिया को ग्रहण करने में कुशल होते हैं। जो बालक बीमार रहते हैं, वे पढ़ने-लिखने में रुचि नहीं लेते। अध्यापक एवं अभिभावकों को अपना काम कराने के लिए इन बालकों से जबरन काम लेना पड़ता है। फलतः वे बीमार तथा मन्दबुद्धि बालक अध्यापक, कक्षा, विद्यालय एवं घर के प्रति पूर्वाग्रहों (Prejudices) से पीड़ित हो जाते हैं। ऐसे बालकों के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखकर ही शिक्षण विधि अपनाई जाए।

3. अधिगम विधि (Learning method) – अध्यापक किस प्रकार छात्रों को किसी ज्ञान को प्रदान करता है, इस बात पर भी अधिगम निर्भर करता है। प्रत्येक छात्र एक ही विधि से प्रभावित नहीं होता है। यदि बालक को अवैज्ञानिक तथा अमनोवैज्ञानिक पद्धतियों से किसी बात को जबरन सिखाया जा रहा है तो बालक सीखने की उस क्रिया में तनिक भी रुचि नहीं लेगा। आरम्भ की कक्षा में खेल विधि (Play method) कार्य द्वारा सीखने (Learning by doing) आदि विधियों पर इसीलिए जोर दिया जाता है। उच्च कक्षाओं में फिल्मों के माध्यम से शिक्षण दिया जाता है।

4. अभिप्रेरणा (Motivation) – सीखने की क्रिया में प्रेरणा का मुख्य योग रहा है। बालक को यदि किसी कार्य के लिए प्रेरित नहीं किया जाता है तो वह सीखने की क्रिया में रुचि नहीं लेगा। अध्यापक एवं अभिभावकों को चाहिए कि वे बालकों को प्रेरणा दें तो वे अधिक सफलता प्राप्त कर सकेंगे। प्रेरणा से बालकों में महत्वाकांक्षा उत्पन्न होती है।

5. अध्यापक एवं अभिभावक की भूमिका – अधिगम उस समय तक प्रभावशाली ढंग से काम नहीं कर सकता जब तक कि अध्यापक एवं अभिभावक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह नहीं करते। इस क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण अनुसंधान हो रहे हैं। उन्हें चाहिए कि शिक्षा के नवीनतम अन्वेषणों के सम्पर्क में रहें और शिक्षण की नवीनतम विधियों का उपयोग करें। ऐसी स्थिति में उसका प्रभाव अच्छा होगा।

6. इच्छा शक्ति (Will to learn) – अधिगम सीखने वाले की इच्छा शक्ति पर भी निर्भर करता है। यदि कोई बालके किसी ज्ञान को सीखना ही न चाहे तो उसके साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती। इसी प्रकार यदि अध्यापक ज्ञान तथा क्रिया को नहीं सिखाना चाहता तो छात्र किस प्रकार सीख सकेंगे ? दोनों ही स्थितियों में पहला कार्य अध्यापक का है। वह स्वयं में बालकों को ज्ञान देने की संकल्प शक्ति का निर्माण करे। इसी प्रकार वह बालकों में नवीन ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न करे। उनमें प्रेरणा भरे।

7. परिपक्वता (Maturation) – अधिगम की क्रिया में बालकों की शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता का योग विशेष रहता है। छोटी कक्षाओं में बालकों की माँसपेशियों को प्रशिक्षण दिया जाता है, जिससे वे इस योग्य हो जाएँ कि कलम, किताब, कापी आदि पकड़ सकें। बड़ी कक्षाओं में छात्रों की बुद्धि, योग्यता, क्षमता आदि को ध्यान में रखकर ही पढ़ाया जाता है। बालकों को सिखायी जाने वाली क्रियाएँ, उनकी आयु तथा क्षमता के अनुकूल होनी चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि मानसिक तथा शारीरिक परिपक्वता ही सीखने की क्रिया को सफलता प्रदान करती है।

8. कार्य का समय और थकान – प्रायः यह देखा जाता है कि अधिगम की क्रिया में उस समय अवरोध उत्पन्न होता है, जब थकान आती है। थकान की परिस्थिति में अधिगम की क्रिया की सफलता संदिग्ध हो जाती है। काम के समय का निर्धारण तथा समय पर विश्राम देने से अधिगम की क्रिया में सफलता मिलती है। समय विभाग चक्र बनाते समय अत्यन्त सावधानी रखनी चाहिए।

9. अभ्यास विभाजन (Distribution of practice) – प्रायः देखा जाता है कि अधिगम की क्रिया में उस समय उन्नति होती है, जब बालक को अभ्यास के लिए कार्य दिया जाता है, परन्तु यह भी देखा गया है कि विद्यालय में प्रत्येक विषय का अभ्यास कार्य इतना अधिक हो जाता कि घर पर ही गर्दन ऊपर करने की फुर्सत नहीं मिलती। परिणामतः उसकी रुचि विद्यालय के कार्यों में कम होने लगती है। अतः आवश्यक है कि अभ्यास कार्य का उचित विभाजन किया जाए। अभ्यास कार्य के उचित विभाजन से अधिगम में निश्चय ही प्रगति होती है। मान लीजिए हम एक बालक को गणित के 50 प्रश्न हल करने के लिए देते हैं। यदि उसको एक ही दिन में वे प्रश्न हल करने पड़ें तो निश्चय ही उसके प्रश्नों में त्रुटियों की संख्या में वृद्धि होगी। यदि वह उन प्रश्नों को एक सप्ताह में करेगा तो उसके प्रश्नों के सही होने की संख्या में वृद्धि हो जाएगी।

10. पाठ्य सामग्री की संरचना (Structure of curriculum) – यदि पाठ्यक्रम ‘सरल से कठिन की ओर सिद्धान्त के आधार पर संगठित किया गया है तो वह अधिगम में अधिक सहायक होगा। अध्यापक को यह ज्ञान होना चाहिए कि उसे क्या पढ़ाना है, छात्रों को मालूम होना चाहिए कि उन्हें क्या पढ़ना है। यदि पाठ्य सामग्री असंगठित है तो वह अध्यापक तथा छात्र दोनों को ही परेशानी करेगी।

2. शिक्षक से सम्बन्धित कारक (Factors Belonging to Teacher)

आर० एल० लूथर ने कहा है- “अधिगम अनुभवों को अलग-अलग छात्रों के अधिगम के तरीकों के साथ समंजित करने के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्न किए जाने चाहिएँ। कुछ छात्र व्याख्यान एवं प्रदर्शन के माध्यम से सबसे अच्छा अधिगम करते हैं, जिनमें शाब्दिक अधिगम पर बल दिया जाता है; दूसरे एक प्रयोगशाला की परिस्थितियों, जहाँ वास्तविक हस्त प्रयोग से अधिगम की प्रक्रिया में अधिक गति समन्वय की गुंजाइश रहती है, अधिक अधिगम करते हैं; इस कथन से अधिगम के उन कारकों का प्रभाव परिलक्षित होता है, जिनका सम्बन्ध शिक्षक से है।”

1. शिक्षक के गुण- अधिगम की क्रिया को सम्पन्न करने में शिक्षक के गुणों का अत्यधिक महत्व है। ये गुण-सहानुभूति, सहयोग, विषय ज्ञान, शिक्षण कला, साम्य व्यवहार आदि हैं। यदि शिक्षक किसी छात्र से भेदभाव नहीं करता, सबसे समान व्यवहार करता है तो उसके छात्र उससे सीखने में अधिक रुचि लेते हैं।

2. विषय ज्ञान- वह अध्यापक कभी सफल नहीं होता, जिसे अपने विषय के ज्ञान तथा कौशल का पूर्ण बोध नहीं है। इस पूर्ण बोध के अभाव में ज्ञान का विकास अधिगम की अधूरी प्रक्रिया द्वारा होता है। यह अधूरा ज्ञान अवास्तविक है। उसका जीवन से सम्बन्ध नहीं हो पाता।

3. वैयक्तिक भेदों पर बल- शिक्षा मनोविज्ञान का आधार व्यक्ति है। यह दो व्यक्तियों के समान व्यवहारों को समान क्रिया-प्रतिक्रियाओं का फल नहीं मानता। एक कक्षा में एक अध्यापक के शिक्षण को कुछ छात्र शीघ्र समझ लेते हैं और कुछ नहीं समझ पाते। अतः ऐसे वैयक्तिक भेदों से युक्त छात्रों को व्यक्तिगत शिक्षण की आवश्यकता होती है। मन्द बुद्धि, प्रतिभाशाली तथा विकलांग बालकों की पृथक शिक्षा पर मनोविज्ञान इसीलिए बल देता है।

4. मनोविज्ञान का ज्ञान- बाल विकास एवं मनोविज्ञान आज की महत्वपूर्ण उपलब्धि बन गया है। सामाजिक विज्ञानों के विकास की परम्परा में इसका विशेष स्थान है। बालक को ही सम्पूर्ण मानव के विकास की इकाई माना जाता है। को एवं को ने इसके महत्व का वर्णन करते हुए कहा है-“व्यक्ति तथा समाज के कल्याण में रुचि रखने वाले मनोवैज्ञानिक, अध्यापक तथा प्रौढ़ व्यक्ति बालकों के विकास को महत्व देने लगे हैं। बालक व्यक्ति का पिता है; बालक के प्रथम छः वर्ष महत्वपूर्ण होते हैं; आदि लोकोक्तियों ने बाल विकास के अध्ययन का महत्व बढ़ाया है।”

5. बाल केन्द्रित शिक्षा – बाल मनोविज्ञान तथा बाल विकास के अध्ययन ने शिक्षा की धारा तथा प्रत्यय (Concept) को बदल दिया। प्राचीन काल में शिक्षा का केन्द्र बालक न होकर अध्यापक था। बालक की रुचियों, अभिवृत्ति तथा अभिरुचियों की परवाह किए बिना ही शिक्षण कार्य चलता था। अब समय बदल गया है और उसी के साथ-साथ शिक्षा का केन्द्र बिन्दु बालक हो गया है। बालक की योग्यता, क्षमता, रुचि, अभिरुचि आदि के अनुसार पाठ्यक्रम तथा शिक्षण विधियों का निर्माण किया गया ।

6. शिक्षण पद्धति में परिवर्तन- प्राचीन पद्धति में अध्यापक रटने (Cramming) पर बल देते थे। उनका विचार था कि रटने से बुद्धि का विकास होता है। मनोवैज्ञानिक शिक्षण पद्धतियों का विकास हो गया है, जिनके अनुसार शिक्षण देने से बालक की अन्तर्निहित स्तयों का विकास होता है एवं अभिव्यक्ति को माध्यम मिलता है। डाल्टन (Dalton) योजना, प्रोजेक्ट (Project) पद्धति, किन्डरगार्टन (Kindergarten) एवं बेसिक शिक्षा ऐसी ही शिक्षण पद्धतियाँ हैं, जिनमें बालक का सर्वांगीण विकास होता है।

7. पाठ्यक्रम – मनोवैज्ञानिक पहलुओं के विकास से पहले पाठ्यक्रम में इस बात पर बल दिया जाता था कि पाठ्यक्रम कठिन हो तथा उसमें अभ्यास अधिक हो। यही कारण है कि गणित में कठिनतम प्रश्न रखकर अभ्यास पर बल दिया जाता रहा है। डेनिस ने बाल-मनोविज्ञान का महत्व दर्शाते हुए कहा है- बाल मनोविज्ञान ने शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, इसका माध्यम रहे हैं। अनेक मनोवैज्ञानिक परीक्षणों से ज्ञात बालकों की क्षमताएँ तथा व्यक्तिगत भेद; इससे उनके ज्ञान विकास तथा परिपक्वता को समझने में भी योग मिला है। यही कारण है कि आज पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय बालक की रुचियों, अभिवृत्ति, विकास आदि को ध्यान में रखा जाता है। अब पाठ्यक्रम बच्चों के लिए है, बच्चे पाठ्यक्रम के लिए नहीं हैं।

8. समय-सारिणी (Time-table) – शिक्षा मनोविज्ञान के कारण ही विद्यालयों में समय-सारिणी बनाते समय यह ध्यान रखा जाता है कि कौन-सा विषय पहले लिया जाय और कौन-सा बाद में पहले बालकों की थकान, विश्राम, अवधान (Attention) आदि का कोई ध्यान नहीं रखा जाता था। उनकी क्षमता तथा योग्यता का ध्यान तो बिल्कुल ही नहीं रखा जाता था। अब समय-सारिणी बनाते समय मौसम, बालकों की योग्यता, रुचि, व्यक्तिगत भेदों आदि का ध्यान रखा जाता है।

9. पाठ्य-सहगामी क्रियाएँ (Co-curricular activities) – शिक्षा मनोविज्ञान के विकास के कारण पाठ्यक्रम में अनेक महत्वपूर्ण सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाने लगा है। पहले यह समझा जाता था कि पढ़ाई के अतिरिक्त की क्रियाओं से बालक अपना समय नष्ट करते हैं। अब यह विचार बदल गया है। वाद-विवाद प्रतियोगिता निबन्ध, लेख, कहानी, प्रतियोगिता, अंत्याक्षरी, बालचर विद्या, भ्रमण, छात्र संघ, खेल-कूद, अभिनय तथा नाटक, संगीत तथा इसी प्रकार की अन्य क्रियाओं को पाठ्यक्रम में स्थान देने के कारण बालकों के सर्वांगीण विकास में बहुत सहयोग मिला है।

10. अनुशासन – शिक्षा मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के कारण यह धारणा निर्मूल हो गई है कि डण्डा हटाते ही बालक बिगड़ जाता है (Spare the rod, spoil the child) अब यह अनुभव किया जाने लगा है कि डण्डे, मारपीट एवं भय के बल पर छात्रों का सर्वांगीण विकास नहीं किया जा सकता। मनोवैज्ञानिक परीक्षणों ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि छात्र, अपराध करने पर दण्ड से डरते नहीं, पर यह अवश्य है कि उन्हें दण्ड उनके अनुकूल दिया जाए।

3. पाठ्य-विषय से सम्बन्धित कारक (Factors Belonging to Subject Matter)

बालक को आज विद्यालय में अनेक विषय पढ़ने पड़ते हैं। इन पाठ्य-विषयों की प्रकृति तथा छात्रों की रुचि उनकी अधिगम-क्रिया को प्रभावित करती है। कार्ल सी० गैरिसन ने पाठ्य-सामग्री तथा विद्यालयी अधिगम के स्वयंसिद्ध तथ्य इस प्रकार बताए हैं—

1. एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व के रूप में बालक किसी भी विद्यालय का केन्द्र है। बालक को उपस्थिति शैक्षिक कार्यक्रम को सुदृढ़ आधार प्रदान करती है।

2. विद्यालयी अधिगम को घर तथा समुदाय के अधिगम से अलग नहीं किया जा सकता।

3. विद्यालय के क्रिया-कलाप उन व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तनों पर लागू होने चाहिएँ, जो विद्यालय में अनुभवों से उत्पन्न किए जा सकते हैं।

4. विद्यालयी अधिगम का सम्बन्ध उन व्यवहारों से तथा परिवर्तनों से होना चाहिए, जो शिक्षा के वांछनीय लक्ष्यों की दिशा में हों।

4. वातावरणीय कारक (Environmental Factors)

वातावरणीय कारक भी अधिगम की क्रिया को प्रभावित करते हैं। अनेक कारक ऐसे हैं, जो समाज तथा परिवार की देन हैं, जिनके कारण अधिगम की क्रिया उतनी बलवती नहीं रहती, जितनी रहनी चाहिए। विद्यालय की स्थिति तथा कक्षा की संरचना भी विद्यालय का वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण योग देते हैं।

1. सामाजिक संवेगात्मक स्तर – अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले वातावरणीय कारकों में सामाजिक संवेगात्मक स्तर का विशेष महत्व है। जाति, प्रजाति, संस्कृति आदि परिवेश का निर्माण करते हैं।

2. वंशक्रम तथा वातावरण – वंशक्रम तथा वातावरण का ज्ञान मनुष्य के लिए मनोवैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करता है। महापुरुषों का वंशक्रम देखने से पता चलता है कि उनका वंशक्रम दोष रहित था । इसीलिए उनमें उत्तम गुण का विकास हुआ। वंशक्रम तथा वातावरण का अध्ययन अनेक भ्रामक धारणाओं को तोड़ता है। बालक का विकास आज न तो वंशक्रम पर निर्भर करता है और न ही वातावरण पर। वंशक्रम तथा वातावरण की स्थिति बीज + धरती + खाद + प्रकाश + वायु जैसी होती है। इस यौगिक (Compound) में बीज निर्धारित करता है। वंशक्रम और वातावरण का निर्धारण करते हैं धरती, खाद, प्रकाश तथा वायु आदि

मनोवैज्ञानिकों ने वंशक्रम तथा वातावरण का अध्ययन करके अनेक महत्वपूर्ण परिणाम निकाले हैं। वुडवर्थ (Wood worth R. S.) की धारणा रही है कि बालक के व्यक्तित्व का 80% वंशक्रम से और 20% वातावरण से निर्धारित होता है। बालक की जन्मजात तथा अन्तर्निहित योग्यताओं का निर्धारण वंशक्रम से प्राप्त विशेषताओं द्वारा होता है। मैक्डूगल के अनुसार — “किसी अध्यापक की शिक्षा के प्रति चाहे जितनी आस्था क्यों न हो, किन्तु वह कभी नहीं कहेगा कि गुरिल्ला इसलिए अच्छा है कि उसे अनुकूल वातावरण मिला है। इसी प्रकार यह भी स्पष्ट है कि व्यक्तियों में वैयक्तिक भिन्नता पाई जाती है और वह वंशक्रम की देन है।”

रॉस (J. S. Ross) ने वंशक्रम का महत्व इसलिए बताया है कि बालक जो कुछ भी है और जिस रूप में विकसित होता है, वह वंशक्रम की देन है। उनके अनुसार-बालक अपने माता-पिता के शारीरिक तथा मानसिक गुण वंशक्रम से प्राप्त करता है। साधारण व्यक्ति भी यह समझता है कि किसी व्यक्ति का जीवन सुखमय या दुःखमय होना उसके वंशक्रम से प्राप्त गुणों पर निर्भर करता है। इन गुणों को प्राप्त करने के लिए उसे प्रयत्न नहीं करने पड़ते, अपितु सहज रूप में ही वंशक्रम द्वारा बालक को प्राप्त हो जाते हैं।”

3. पूर्वजों से सामाजिक वंशक्रम का ज्ञान- वंशक्रम का महत्व इसलिए भी है कि व्यक्ति को पूर्वजों से जहाँ जैविक वंशक्रम का ज्ञान होता है, वहाँ पूर्वजों के सामाजिक वंशक्रम की जानकारी भी होती है। इससे व्यक्ति को पूर्वजों के आदर्शों पर चलने की प्रेरणा मिलती है। यदि पूर्वज महान् रहे हैं तो व्यक्ति अपने पूर्वजों के चरित्र को अपना आदर्श मानकर तदनुसार कार्य करते हैं।

4. वातावरण का प्रभाव- वंशक्रम से बालक केवल पूर्वजों के गुणों को ही प्राप्त करता है। उन गुणों का समुचित विकास वातावरण द्वारा होता है। यदि वातावरण ठीक नहीं है तो उसके गुणों का विकास गलत दिशा में हो जाएगा। वातावरण का उचित होना वंशक्रम के विकास के लिए अनिवार्य शर्त है। अतः व्यक्ति वंशक्रम की आधारभूत मान्यताओं को विकसित करने के लिए वातावरण को उपयोगी बनाने में विश्वास रखता है।

5. मानवीय मूल्यों का विकास- वंशक्रम तथा वातावरण के ज्ञान से व्यक्ति मानवीय मूल्यों के विकास में रुचि लेने लगता है। बालक के संवेगात्मक तथा सामाजिक विकास में वंशक्रम के प्रति आस्था विशेष योग देती है।

6. व्यक्तित्व का विकास- वंशक्रम तथा वातावरण के ज्ञान का मनोवैज्ञानिक आधार यह है कि व्यक्तित्व के विकास में विशेष योग मिलता है। सामाजिक व्यक्तित्व, समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होता है। ऐसी स्थिति में यदि अभिभावकों को अपने वंशक्रम के प्रति आस्था तथा मोह है तो वे अपने शिशु के व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि वंशक्रम तथा वातावरण व्यक्तित्व के विकास के लिए मनोवैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करते हैं।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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