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अनुवाद का अर्थ और परिभाषा बताते हुए इसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
अनुवाद का अर्थ
अनुवाद का अर्थ – अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति अनु उपसर्ग + वद् धातु + धन प्रत्यय से हुई है, जिसका अर्थ है पीछे है पीछे कहना या दुहराना है। किसी बात को एक बार व्यक्त कर दिया जाय उसके बाद उसे फिर दोहराया जाय। दोहराने की प्रक्रिया यथावत भी हो सकती है और भावान्तर करके भी। वेद, उपनिषद् तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में अनुवाद शब्द का व्यवहार पुनः कथन के लिए अनेक जगह मिलता है। वृहदारण्यक उपनिषद में आया है-
तद् एतद् एवैषा देव वागू अनुवदति
स्तनयित्नुः द द द इति ।
अष्टाध्यायी में अनुवादेचरणानाम् (2,4,3) के प्रयोग की कय्यट ने व्याख्या करते कहा है—
यदा प्रतिपत्ता प्रमाणान्तरावगतमप्यर्थ कार्यान्तरार्थ प्रयोक्ता प्रतिपाद्यते तदानुवादो भवति । अर्थात् किसी और प्रमाण से विदित बात को ही, दूसरे कार्य के लिए किसी के द्वारा श्रोता से जब कहा जाता है, तब अनुवाद होता है। भर्तृहरि के अनुसार अनुवाद का अर्थ दुहराना या पुनः कथन।
इस प्रकार किसी भाषा में अभिव्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में यथावत प्रस्तुत करना अनुवाद है। जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है वह मूल भाषा या स्त्रोतभाषा है और जिस नई भाषा में अनुवाद करना है वह प्रस्तुत या लक्ष्य भाषा है।
उपर्युक्त अर्थों में अनुवाद का वर्तमान आशय पूरी तरह समाहित नहीं हो पाता है। एक दृष्टि से अनुवाद किसी व्यक्त बात का पुनः कथन ही है, लेकिन इस समय इसमें भाषान्तरण का भाव प्रधान हो गया है। किसी एक भाषा में व्यक्त भावों या विचारों को दूसरी भाषा में रूपान्तरण ही अनुवाद है। इसके लिए अंग्रेजी में ट्रान्सलेशन, फ्रेंच में टुडुक्शन और अरबी में तर्जुमा संज्ञाओं का प्रयोग प्रचलित है। निडा की परिभाषा है.- Translation consists in producing in the receptor language the closest natural equivalent to message of the source language, first in meaning second in style (Nida) अनुवाद स्रोत के संदेश का पहले अर्थ पुनः शैली के स्तर पर लक्ष्य भाषा के निकटतम, स्वाभाविक तथा सम्मान ढंग से प्रस्तुत करना है।
अनुवाद का स्वरूप
एक भाषा में जो कुछ कहा जाए, उसे दूसरी भाषा में व्यक्त करना अनुवाद है। जिस भाषा में अनुवाद करते हैं उसे स्रोत भाषा कहा जाता है और उसका अनुवाद जिस भाषा में प्रस्तुत करते हैं उसे लक्ष्य भाषा कहते हैं ।
अतः सफल अनुवादक में तीन योग्यताएँ होनी चाहिए। स्रोत भाषा का ज्ञान, लक्ष्य भाषा का ज्ञान और उस विषय का ज्ञान, जिससे सम्बन्धित सामग्री का अनुवाद होना है!
यदि स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के व्याकरण और मुहावरे में काफी समानता हो तो अनुवाद कार्य अपेक्षाकृत सरल होता है। दूसरी ओर स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के व्याकरण और मुहावरे में जितनी भिन्नता होगी, अनुवाद उतना ही कठिन होगा और उसके लिए उतने ही कौशल अभ्यास और सूझ-बूझ की जरूरत होगी। अंग्रेजी हिन्दी अनुवाद में यही भिन्नता देखने को मिलती है। इसलिए यह एक कठिन कार्य है। यदि तथ्य ही बहुत सीधा-सरल हो तो दूसरी बात है।
मोटे तौर पर अनुवाद दो प्रकार का माना जाता है- शब्दानुवाद और भावानुवाद। यद्यपि उनके बीच कोई कठोर सीमा रेखा खींचना उपयुक्त नहीं। शब्दानुवाद में स्त्रोत भाषा के कथ्य को शब्दशः ग्रहण करते हुए लक्ष्य भाषा में व्यक्त करने का प्रयास होता है। भावानुवाद अनुवादक को कुछ छूट होती है और वह स्त्रोत भाषा के भाव को ग्रहण करके लक्ष्य भाषा में स्वतंत्र रूप से व्यक्त करता है। यह बात ध्यान देने की है कि यदि शब्द प्रति शब्द अनुवाद में करने की कोशिश की जायेगी तो अनुवाद के अस्वाभाविक हो जाने का अंदेशा रहेगा और यदि केवल भाव ग्रहण करके अनुवाद किया जाता है तो उसकी प्रामाणिकता नष्ट हो जाने का खतरा पैदा हो जायेगा। बुढ़िया अनुवाद में प्रामाणिकता का निर्वाह भी होना चाहिए और स्वाभाविकता का भी। इन दोनों का निर्वाह अनुवादक के कौशल पर निर्भर है।
अनुवाद की परिभाषा
अनुवाद को परिभाषित करने के लिए अनेक प्रयास हुए हैं। और हर प्रयास में यही लक्ष्य किया गया है कि अनुवाद का मूल उद्देश्य स्रोत भाषा की विचार सामग्री को अपनी भाषा में यथासम्भव मूल रूप में उपस्थित करना है। अनुवाद की इन परिभाषाओं से अनुवाद की प्रकृति, अनुवादक के लक्ष्य और अनुवाद की प्रक्रिया के विभिन्न उपकरण इंगित होते हैं-
डॉ. भोलानाथ तिवारी- “एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथासम्भव समान और सहज अभिव्यक्ति द्वारा दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है। “
देवेन्द्र नाथ शर्मा के अनुसार, “विचारों को एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपान्तरित करना अनुवाद है। “
डॉ. विनोद गोदरे के अनुसार, “अनुवाद स्रोत भाषा में अभिव्यक्त विचार अथवा वक्तव्य अथवा रचना अथवा सूचना, साहित्य को यथासंभव मूल भावना के समानान्तर बोध एवं संप्रेषण के धरातल पर लक्ष्ये भाषा में अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया है। “
डॉ० रामप्रकाश के अनुसार, “स्रोत भाषा में प्रस्तुत रचना और लक्ष्य भाषा में प्रस्तावित रचना के मध्य निकटतम सहज समतुल्यता की स्थापना ही अनुवाद है। “
डॉ. दंगल के अनुसार, “स्रोत भाषा के मूल पाठ के अर्थ को लक्ष्य भाषा के परिनिष्ठित पाठ के रूप में रूपान्तरण करना अनुवाद है।”
डॉ. रीतारानी पानीवाल के अनुसार, “स्रोत भाषा में व्यक्त प्रतीक व्यवस्था को लक्ष्य भाषा की सहज प्रतीक व्यवस्था में रूपान्तरित करने का कार्य अनुवाद है। “
अनुवाद की परिकल्पना एक ऐसे संयंत्र के रूप में की गयी है, जिससे होकर स्रोत भाषा की सामग्री लक्ष्य भाषा में बदलती है। इसीलिए अनुवाद को परिभाषित करने के तमाम प्रयासों में प्रधानतः अनुवाद प्रक्रिया का ही ब्यौरा है। इस दृष्टि से अनुवाद को इन शब्दों में परिभाषित | किया जा सकता है – “अनुवाद एक भाषा समुदाय के विचार और अनुभव सामग्री को दूसरे भाषा समुदाय की शब्दावली में लगभग यथावत् सम्प्रेषित करने की सोदेश्य परिवर्तन प्रक्रिया हैं।”
इस परिभाषा से इंगित होता है कि अनुवाद एक भाषा-समुदाय के विचारों और अनुभवों को किसी दूसरे भाषा-समुदाय के पास सम्प्रेषित करता है। सम्प्रेषण के इस प्रयास में अनुवादक यत्न करता है कि सम्प्रेषण लगभग यथावत् हो। लेकिन इस क्रम में अनुवाद स्रोत भाषा में उपलब्ध विचारों और अनुभवों की शब्दावली को लक्ष्य भाषा की शब्दावली में परिवर्तित करता है। यह सारी प्रक्रिया निश्चित तौर पर सोदेश्य होती है। अनुवाद की यह परिभाषा एक साथ अनुवाद के उद्देश्य, कार्य और प्रक्रिया की ओर इशारा करती है।
अच्छे अनुवाद की विशेषताएँ
अच्छे अनुवाद की प्रमुख विशेषताएँ निम्न है –
- अनुवादक को जिस भाषा में वह अनुवाद कर रहा है और मूल भाषा का समुचित ज्ञान होना चाहिए।
- अनुवाद में आसान भाषा का प्रयोग होना चाहिए।
- अनुवादक को अनुवाद में स्पष्ट और सही उच्चारण का प्रयोग करना चाहिए।
- अनुवादक को अनुवाद में सही और आकर्षक शब्दों को उपयोग करना चाहिए।
- अनुवादक को व्याकरण का उचित ज्ञान होना चाहिए।
- अनुवाद को सम्बन्धित विषय का सम्पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।
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