शिक्षा मनोविज्ञान / EDUCATIONAL PSYCHOLOGY

अभिवृद्धि तथा विकास में क्या अन्तर है ? विकास के सिद्धान्त

अभिवृद्धि तथा विकास में क्या अन्तर है ? विकास के सिद्धान्त
अभिवृद्धि तथा विकास में क्या अन्तर है ? विकास के सिद्धान्त

अभिवृद्धि तथा विकास में क्या अन्तर है ? विकास के सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।

व्यक्ति के विकास से अभिप्राय उसके गर्भ में आने से लेकर पूर्ण प्रौढ़ता प्राप्त होने तक की स्थिति से है। पितृ-सूत्र (Sperms) तथा मातृ-सूत्र (Ovum) के संयोग से जीव का निर्माण होता है। यह अवस्था, जब तक भ्रूण गर्भ से बाहर नहीं आता, गर्भ-स्थिति-काल (Prenatal period) कहलाती है। 9 कैलेन्डर मास एवं 10 या 12 दिन अथवा 10 चन्द्र मास या 280 दिन तक भ्रूण गर्भ में रहता है और उसका विकास होता रहता है। इस अवधि में उसके शरीर के अंगों का विकास होता है। गर्भ में स्थित भ्रूण जब पूर्ण विकसित हो जाता है, तब वह गर्भ में रह नहीं पाता और उसे बाहर आना पड़ता है। गर्भ से बाहर आने पर उसके विकास का नया दौर आरम्भ होता है। इसे गर्भोत्तर (Postnatal) स्थिति कहते हैं। मुनरो ने इस विकास की परिभाषा देते हुए कहा है- “परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था, जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है।” गैसल (Gessell) के अनुसार— “विकास सामान्य प्रयत्न से अधिक महत्व की चीज है। विकास का अवलोकन किया जा सकता है एवं किसी सीमा तक इसका मूल्यांकन एवं मापन भी किया जा सकता है। इसका मापन तथा मूल्यांकन तीन रूपों में हो सकता है— (i) शरीर निर्माण (Auotomic), (ii) शरीर शास्त्रीय, (iii) व्यावहारिक । व्यवहार चिन्ह (Behaviour signs) विकास के स्तर एवं शक्तियों की विस्तृत रचना करते हैं।’

विकास का अर्थ

विकास क्या है? विकास से अभिप्राय बढ़ना नहीं है। विकास का अर्थ परिवर्तन है। परिवर्तन एक प्रक्रिया है, जो हर समय चल रही है। अतः प्रत्येक क्षण विकास भी हो रहा है। हरलॉक के अनुसार– “विकास बड़े होने तक ही सीमित नहीं है। वस्तुतः यह तो व्यवस्थित तथा समानुगत प्रगतिशील क्रम है, जो परिपक्वता की प्राप्ति में सहायक होता है। “

विकास को चिन्तन का मूल माना गया है। यह एक बहुमुखी क्रिया है और इसमें केवल आवयविक विकास ही नहीं प्रत्युत् सामाजिक, साँवेगिक अवस्थाओं में होने वाले परिवर्तन को भी सम्मिलित किया जाता है। इसी के अन्तर्गत शक्तियों और क्षमताओं के विकास को भी गिना जाता है। हेनरी सीसल वील्ड ने विकास को इस प्रकार पारिभाषित किया है- “(1) विकास के कारण और उसकी प्रक्रिया, किसी क्रिया में निहित प्रक्रिया, (2) मानव मस्तिष्क में सभ्यता की, प्राणी के जीवन के विकास की अवस्था या विकास की वह प्रक्रिया जो अभिवृद्धि, प्रसार आदि में योग देने वाली स्थिति, (3) विकास की प्रक्रिया का परिणाम जो अनेक कारण दशायें, वर्गभेद आदि सामाजिक समस्याओं के रूप में प्रकट होते हैं।”

जेम्स ड्रेवर ने विकास की परिभाषा करते हुए कहा है-“विकास की वह दशा जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में प्राणी में सतत् रूप से व्यक्त होती है, (यह प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक होता है) विकास तन्त्र को सामान्य रूप में नियन्त्रित करती है। यह प्रगति का मानदण्ड है और इसका आरम्भ शून्य से होता है। “

विकास के सिद्धान्त

अनेक विद्वानों ने विकास के सिद्धान्तों का अध्ययन किया, किन्तु इरिक एच० इरिकसन (Erik H. Erikson), जीन पियाजे (Jean Piaget) तथा रॉबर्ट आर० सीयर्स (Robert R. Sears) का योगदान विशेष रहा है। इन तीनों विद्वानों ने विकास के पृथक्-पृथक पहलुओं-संवेगात्मक, मानसिक तथा सामाजिक विकास के संदर्भ में चिन्तन किया है। ये सिद्धान्त इस प्रकार हैं-

1. मनोविश्लेषणात्मक (Psychoanalytic) सिद्धान्त

इस मत के प्रतिपादक इरिक एच० इरिकसन हैं। इनका जन्म जर्मनी के फ्रैंकफर्ट क्षेत्र में डेनिस माता-पिता से 1902 में हुआ था। पिता की शीघ्र मृत्यु हो जाने के कारण इनकी माता ने पुनर्विवाह किया और इनके सौतेले पिता ने इनको गोट ले लिया। इनका आरम्भ का नाम हॉमबर्गर था, परन्तु बाद में इन्होंने अपना नाम बदल लिया। इरिकसन ने अपनी धारणा का विकास फ्रॉयड के सिद्धान्तों पर किया। इरिकसन अपनी बौद्धिकता के प्रति इतना ईमानदार रहा है कि वह कहता है- “में किसी नये सिद्धान्त का विकास नहीं कर रहा हूँ।” इसका मत फ्रॉयड के मत से तीन रूपों में भिन्न है-

1. इरिकसन इड (Id) से इगो (Ego) तक के परिवर्तन पर बल देता है। इस धारणा का विकास फ्रॉयड प्रॉब्लम्स ऑफ एंक्जाइटी (Problems of anxiety) में कर चुका है। इरिकसन यह मानकर चलता है कि इड तथा इगो से ही पारस्परिक सामाजिक सम्बन्धों का विकास होता है।

2. इरिकसन ने व्यक्ति को उसके परिवेश (Environment) में देखा है। यह परिवेश व्यक्ति, परिवार, समाज तथा संस्कृति का होता है। इससे सामाजिक गतिशीलता का विकास होता है।

3. इरिकसन समय की माँग के प्रति भी सचेत रहा है। मनोवैज्ञानिक बाधाओं पर विजय प्राप्त करके ही व्यक्ति को विकास के अवसर प्राप्त होते हैं।

इरिकसन द्वारा प्रतिपादित विकास के मनो-विश्लेणात्मक सिद्धान्तों का सार यह है- (1) यह सिद्धान्त सम्पूर्णता तथा संगठन पर बल देता है। (2) मानव जीवन में विकास का निर्धारित क्रम होता है। (3) वह आधारभूत मानव मूल्यों में विश्वास करता है। (4) मानव व्यवहार का संचालन करने वाले तत्वों यथा, शक्तिचालक, काम-प्रवृत्ति, (Libido) के अस्तित्व पर विश्वास करता है। (5) वह फ्रॉयड के मत का पूर्ण रूप से समर्थक है कि मानवीय कार्यों से जीवन के अनेक पक्षों का विकास होता है। (6) मानव विकास के लिये सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक वातावरण का निर्माण अनिवार्य है।

2. संज्ञानात्मक (Cognitive) सिद्धान्त

इस मत के प्रतिपादक जीन प्याजे (Jean Piaget) का जन्म 1896 ई० में न्यू चैटल (Neuchatal) में हुआ था। इनके अपने विकास पर पागल माँ और बुद्धिमान पिता का प्रभाव पड़ा। पियाजे के विचारों पर प्राकृतिक विद्वानों के साथ-साथ दर्शन तथा मनोविज्ञान का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। पियाजे के मत का सार इस प्रकार है-—(1) सभी विकास एक दिशा में होते हैं। (2) विकास के सभी पक्ष मानसिक स्तरों पर जाने जाते हैं। (3) बालक तथा प्रौढ़ के व्यवहार में अन्तर आता है। सभी प्रकार के परिपक्व व्यवहारों का मूल शैशवास्था के व्यवहार में है।

पियाजे का मत एक पक्षीय (One dimensional) था। वह मानव व्यवहार पर अधिक बल देता है। उसने अपने अध्ययन का आधार जीवनशास्त्र (Biology) को बनाया। उसके अध्ययन का आरम्भ सर्वेक्षण तथा अनुसंधान है। उसमें विभिन्न प्रकार के प्राणियों का सर्वेक्षण करके आधारभूत सूचनायें एकत्र कीं। उसने इस आधार पर सार्वभौमिक नियम (Cosmos order) के दर्शन किये। विकासक्रम विश्व भर में एक-सा होता है और वह प्राकृतिक है। अलग-अलग प्राणियों में यह पृथक्-पृथक रूप से पाया जाता है। उसने व्यक्तित्व के विकास में चेतना (Consciousness), अचेतन (Unconsciousness), पहचान (Identification), खेल (Play), संवेग (Emotion) आदि का योग बताया। उसके विचार में व्यक्ति परिवेश में विकसित आवश्यकताओं को पूर्ण करने की प्रक्रिया से ही विकास पथ पर बढ़ता है।

पियाजे ने विकास के सिद्धान्त को इन्द्रियगति (Sensory motor), संज्ञान की आरम्भिक अवस्था तथा संज्ञानावस्था में बाँटा है। आरम्भ के 24 मास में इन्द्रियगति का विकास होता है। इसके बाद संज्ञानात्मक विकास होता चलता है। इसी में चिन्तन, तर्क तथा कल्पना का विकास होता है।

  1. विकास के सभी पक्ष समान क्रम में आगे बढ़ते हैं।
  2. विकास की जटिल प्रक्रिया में विकास प्राकृतिक एवं स्वाभाविक रूप से बढ़ता है।
  3. हर प्रकार का विकास शुद्ध सामान्य समस्या से आरम्भ होता है।
  4. पहले शारीरिक, फिर सामाजिक तथा वैचारिक विकास होता है।
  5. व्यक्तित्व के विकास में अहं (Ego) का योग प्रमुख होता है।
  6. बौद्धिक व्यवहार सक्रिय तथा निष्क्रिय रूप से विकसित होता है।
  7. विकास स्थूल से सूक्ष्म की ओर होता है।
  8. नैतिकता, न्याय एवं अवबोध का विकास सामाजिक पारस्परिकता से अधिक होता है।
  9. विकास के समय पूर्व अवस्था में प्राप्त गुण एवं विशेषतायें उम्र भर साथ रहती हैं।

हैनरी डब्ल्यू० मेयर ने ठीक ही कहा है—“पियाजे की विकासात्मक प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की क्षमता का वर्णन करती हैं। इससे हम व्यक्ति की दशा, अवबोध के विस्तार आदि की घोषणा विकास के मध्य करते हैं।”

3. अधिगम (Learning) सिद्धान्त

विकास के अधिगम सिद्धान्त का प्रतिपादन रॉवर्ट रिचर्डसन सीयर्स (Robert Richardson Sears) ने किया है। इनका जन्म 1908 में पलो आल्टी कैलीफोर्निया में हुआ था। इनको विशेष रुचि बालक के अधिगम की प्रक्रिया में थी। इनके विचारों पर क्लार्क हल (Clark Hull) का प्रभाव था। इनके द्वारा प्रतिपादित विचारों पर व्यवहारवाद तथा मनोविश्लेषणवाद, दोनों का समन्वय पाया जाता है।

यह मत बालक की आधारभूत आवश्यकताओं तथा उनके आधार पर सीखने की क्षमता के विकास पर बल देता है। आवश्यकतायें चालक आदि को जन्म देती हैं, जो व्यक्ति को किसी क्रिया के सीखने के लिये प्रेरित करती हैं। बालक स्तन चूस सकता है, वस्तु पकड़ता है, खाता है, पीता है, इन सभी क्रियाओं के मूल में उसकी आवश्यकतायें निहित होती हैं।

सीयर्स का मत व्याख्यात्मक है। यह ऐसे विकास के ऐसे क्षेत्रों की ओर संकेत करता है, जो अछूते रहे हैं। बालक के विकास के सम्बन्ध में उसका मत है—(1) विकास के साथ-साथ बालक के सीखने तथा कार्य करने की गति में भी परिवर्तन होता रहता है। (2) बालक में जिज्ञासा तथा इच्छा सामाजिक सम्पर्क के कारण उत्पन्न होती है।

बालक का शारीरिक तथा मानसिक विकास उसके वातावरण पर निर्भर करता है। पूर्व व्यवहार के क्रम पर ही विकास की गति निर्भर करती है। सामाजीकरण की प्रक्रिया भी इसी आधार पर होती है। माता-पिता की भूमिका इस प्रक्रिया में अत्यन्त जटिल हो जाती है। सीयर्स विकास की प्रक्रिया में सामाजिक-आर्थिक कारकों पर बल नहीं देता। वह इसीलिये कहता है—“बालक का पोषण एक सतत् क्रिया है। वह प्रत्येक क्षण, जो बालक अपने माता-पिता के साथ व्यतीत करता है, उसके भावी व्यवहार की ओर संकेत करता है। बालक का विकास क्रमबद्ध प्रक्रिया है। वह जीवन की दशाओं के अनुरूप नवीन व्यवहार को ग्रहण करता है। “

विकास के सामान्य सिद्धान्त

विकास के सामान्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं-

1. परिपक्वता (Maturation) का सिद्धान्त- जब व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्तियों एवं वातावरण के प्रति कुशलतापूर्वक प्रक्रिया करता है, तब हम यह मान लेते हैं कि वह किन्हीं विशिष्ट क्रियाओं को करने में सक्षम अथवा परिपक्व हो गया है। परिपक्वता में सामान्यतः स्थायित्व आ जाता है। वह स्थायित्व कद, व्यक्तित्व निष्पत्ति आदि में होता है, जिसका प्रभाव अन्ततः बालक के सीखने की क्षमता पर पड़ता है। परिपक्वता एवं सीखना या अधिगम परिपक्वता के दो पहलू हैं। ये एक-दूसरे से इतने गुम्फित हैं कि इनको अलग नहीं किया जा सकता। परिपक्वता की क्षमता पर वंशक्रम तथा वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है।

2. मूलप्रवृत्यात्मक अभिगमन (The Instinct approach)- विकास के संदर्भ में मैक्डूगल (MeDougall) ने मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार का विश्लेषण किया है। मैक्डूगल ने नारियों में मातृत्व मूलप्रवृत्ति (Maternal instinct) बताई और इस बात पर बल दिया कि उनका विकास इस मूलप्रवृत्ति के आधार पर होता है। यदि मूलप्रवृत्ति का प्रयोग केवल जटिल व्यवहारों के प्रतिमानों के लिये होता है और ये विकास प्रतिमान को प्रभावित करते हैं तो हम यह मान सकते हैं कि इनके अभाव में सीखने की क्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती।

3. सहज-क्रिया अभिगमन (The Reflex approach)- वाटसन का कहना है कि सभी बालक जन्म के समय समान होते हैं। उनकी निश्चित शारीरिक रचना होती है, उनमें सहज क्रियायें होती हैं एवं तीन संवेग (Emotions) होते हैं प्रेम, भय और क्रोध। इनके अतिरिक्त कुछ अधिग्रहण (Manipulative) प्रवृत्तियाँ होती हैं। वातावरण के अनुसार बालक इनका प्रयोग करता है और वही उनकी अनुक्रिया होती है। यह सहज-क्रिया ही बालक के विकास की ओर संकेत करती है।

4. सामान्य से विशिष्ट की ओर (General to specific)- इस सिद्धान्त का आधार है कि सामान्य परिस्थिति से बालक का विकास होता है। धीरे-धीरे यह विकास विशिष्ट स्थिति की ओर होता है। आरम्भ में बालक पूरे हाथ का संचालन करता है। धीरे-धीरे वह अंगुलियों पर भी नियन्त्रण कर लेता है। इसी प्रकार सम्बन्ध के विकास की बात भी है। आरम्भ में वह केवल उत्तेजना अनुभव करता है। कालान्तर में वह संवेगों की अभिव्यक्ति किस प्रकार की जानी चाहिये, यह भी सीख लेता है। भाषा का विकास भी क्रन्दन से आरम्भ होता है, निरर्थक-सार्थक शब्दों के माध्यम से वह वाक्यों पर समाप्त होता है।

5. मस्तकोधमुखी (Cephaulocandal) सिद्धान्त- इस मत के अनुयायियों का कथन है कि विकास की क्रिया का आरम्भ सिर से होता है। भ्रूणावस्था में भी पहले सिर का ही विकास होता है। सिर के पश्चात् धड़ एवं टाँगों आदि का विकास होता है। जन्म के पश्चात् भी पहले बालक अपने सिर को इधर-उधर घुमाता है तथा उसे ऊपर उठाने का प्रयत्न करता है। बैठने तथा चलने की क्रिया वह बाद में करता है। यह सिद्धान्त शारीरिक विकास की प्रक्रिया पर आधारित है।

6. निकट-दूर (Proximodigital) सिद्धान्त- इस मत के मानने वालों का कहना है कि विकास का केन्द्र बिन्दु स्नायुमण्डल होता है। पहले स्नायुमण्डल का विकास होता है। इसके पश्चात् स्नायुमण्डल के निकट के भागों का विकास होता है; जैसे—हृदय, छाती, कुहनी आदि। इसके पश्चात् उँगलियों आदि का विकास होता है।

7. संगठित प्रक्रिया (Unified process) – बालक के विकास से अभिप्राय केवल शारीरिक विकास नहीं है। शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक विकास भी होने से व्यक्तित्व में पूर्णता आती है। इसीलिये ओलसन एवं हाज (Olson and Hughes) ने आवयविक (Organisinic) आयु का विचार विकसित किया है। इस विचार के अनुसार शारीरिक दृष्टि से कोई बालक 8 वर्ष का है तो वह मानसिक दृष्टि से 12 वर्ष का हो सकता है। संवेगात्मक दृष्टि से वह 14 वर्ष का हो सकता है। अतः विकास को किसी एक सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। वह तो एक संगठित प्रक्रिया

8. भिन्नता (Variation) का सिद्धान्त- विकास की गति समान नहीं होती। यह गति जीवन भर चलती रहती है, परन्तु इसके स्वरूप भिन्न-भिन्न होते हैं। विकास की गति शैशव में तीव्र होती है। बाल्यावस्था से गति फिर धीमी होती है और किशोरावस्था में यह फिर तीव्र होती है और पूर्णता प्राप्त करती है। लड़कों तथा लड़कियों का विकास भी समान ढंग से नहीं होता। उसमें भी भिन्नता पाई जाती है। यह भिन्नता केवल लड़के-लड़कियों में भिन्न-भिन्न रूप में पाई जातो है।

9. अनवरत (Continuous)- प्रक्रिया विकास की प्रक्रिया गर्भाधान से मृत्युपर्यन्त तक चलती रहती है। सच यह है कि वह अनवरत् प्रक्रिया है, जिसमें प्रत्येक प्राणी को गुजरना पड़ता है। व्यवहार का आधार प्रतिक्षण बदलता रहता है और व्यवहार परिवर्तन से ही विकास की गति की पहचान की जाती है।

10. विकास प्रक्रिया के समान प्रतिमान (Uniform pattern) – इस मत के मानने वालों का कथन है कि समान प्रजाति (Race) में विकास की गति समान प्रतिमानों से प्रवाहित होती हैं। मनुष्य चाहे अमेरिका में पैदा हुआ हो या भारत में, उसका शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, भाषा आदि का विकास समान रूप से होता है। विकास के सामान्य एवं विशेष सिद्धान्त अपने आप में अपूर्ण हैं। इनका महत्व एक-दूसरे से मिलकर होता है।

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Anjali Yadav

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