आर्थिक विकास में शिक्षा की भूमिका की विवेचना कीजिए।
आर्थिक विकास में शिक्षा की भूमिका (Role of Education In Economic Development)
लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एण्ड पॉलिटिकल साइन्स के भूतपूर्व निदेशक आई.जी. पटेल ने अपने एक लेख में उच्च शिक्षा और आर्थिक विकास के सन्दर्भ में विकासशील देशों की समस्याओं के विषय में लिखा है, “परिवार नियोजन के स्वीकार्य और किफायती रूप विकसित करने, गर्म देशों की बीमारियों का उन्मूलन करने, स्थानीय वस्तुओं को घरेलू और विदेशी बाजारों में अधिक प्रतियोगिता-समर्थ बनाने की दृष्टि से उनको बेहतर बनाने जैसे काम श्रेष्ठ से श्रेष्ठ वैज्ञानिकों के लिए भी चुनौती भरे काम हैं। जाति, कबीले, धर्म और सांस्कृतिक परिष्कार सम्बन्धी भेदों से संतृप्त समाजों में समाज वैज्ञानिक अनुसन्धानों का और भी कठिन होना सम्भव है। अनुसन्धान और अध्यापन साथ साथ चल सकते हैं या उनको कुछ हद तक उपयोगी ढंग से अलग-अलग किया जा सकता है-यह एक केन्द्रीय प्रश्न है जिस पर मतभेद है। लेकिन यह विकासशील देशों के लिए कम गम्भीर समस्या है, मुझे इसमें सन्देह है। कारण कि इन देशों में अध्यापन और अनुसन्धान दोनों के मौजूदा स्तर सामान्य रूप से इतने कम हैं कि दोनों के सुधार के लिए एक उपयुक्त संस्थागत ढाँचा तैयार करने सम्बन्धी प्रयोगों की गुंजाइश अभी है।
हम आराम से यह भी कह सकते हैं कि विकासशील और विकसित देशों, दोनों में भविष्य में शैक्षिक परिदृश्य कहीं बहुत अधिक विविधता प्रस्तुत करेगा बल्कि उसकी माँग भी करेगा। यह विविधता विषयों की संख्या में ही नहीं बल्कि संस्थायित व्यवस्थाओं में भी और साथ ही विषयों के अध्यापन और अनुसन्धान के निष्पादन के ढंग में भी होगी। सम्भवतः आने वाले अनेक वर्षों में खासकर विकासशील देशों में विश्वविद्यालयों का यह स्वरूप बना रहेगा। वे एक निश्चित समय सीमा में सटीक और कुछ हद तक रूंढ़ पाठ्यक्रम पढ़ाकर तथा कारगुजारी योग्यता के आकलन के लिए समय-समय पर परीक्षाएँ लेकर उपाधियाँ प्रदान करते रहेंगे। लेकिन लातीनी अमेरीका में और एशिया में कुछ भागों में निजी संस्थाएँ अभी भी अधिक महत्व प्राप्त करती जा रही हैं। कारण कि यहाँ उच्च शिक्षा की काफी प्रगति हुई। है और यहाँ असन्तुष्ट माँग काफी अधिक है। सस्ती से सस्ती लागत पर इस माँग को पूरी करने की आकांक्षा के फलस्वरूप माड्यूलर उपाधियों, सायंकालीन कक्षाओं, प पाठ्यक्रमों, निजी डिप्लोमा सम्बन्धी प्रयोग होते रहेंगे और सभी प्रकार के शैक्षणिक व्यवस्थाएँ भी फले-फूलेंगी।
शिक्षा तेजी से बदलते कालों में एक जीवनपर्यन्त या सतत् प्रक्रिया होती है और होनी भी चाहिए। इसलिए विश्वविद्यालयों, व्यापारिक फर्मों या विशेषज्ञ निजी या सार्वजनिक संगठनों द्वारा चलाये जाने वाले अल्पकालीन पाठ्यक्रम अधिक आवश्यक बनेंगे और अधिक प्रचलित होंगे। परिवर्तनशील आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए गुणवत्ता या मितव्ययिता के हित में ऐसी किसी विविधतापूर्ण संरचना के लिए वित्त की व्यवस्था, उसका संचालन या उसकी निगरानी कैसे की जाये? यह ऐसे प्रश्न है जिस पर पहले से अधिक ध्यान देना ही होगा।
आर्थिक विकास का तात्पर्य देश की राष्ट्रीय आय, सामग्री उत्पादन की मात्रा तथा सेवाओं के परिणाम की उत्तरोत्तर वृद्धि करने से है। इसके लिये पूंजी साधन, श्रम संगठन तथा साहस की आवश्यकता होती है। उत्पादन में प्राकृतिक साधन तथा मानवीय साधन दोनों में ही जरूरी होते हैं। प्राकृतिक साधन में कच्चा माल, खनिज तथा उपयुक्त पर्यावरण आते हैं। मानवीय साधन में मनुष्य की शारीरिक मानसिक चेष्टायें आती हैं। एक आयु वर्ग के ऊपर के व्यक्ति, पुरुष और स्त्री, उत्पादन के लिये श्रम करते हैं। वे प्रकृति से कच्चा माल प्राप्त कर, कल यन्त्रों को चलाकर उसे समाजोपयोगी सामग्री में परिवर्तित करते हैं। सामग्री को उपभोक्ताओं तक पहुँचाने के लिए वाणिज्य-व्यापार का संगठन करते हैं। इस प्रकार आर्थिक विकास की प्रत्येक प्रक्रिया में मानव शक्ति की अनिवार्यता होती है।
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