हिन्दी काव्य

कबीर ने अपने समय के धार्मिक पाखण्ड एवं कुरीतियों को दूर करने तथा पारस्परिक विरोध मिटाने का सफल प्रयास किया है।” सिद्ध कीजिए।

कबीर ने अपने समय के धार्मिक पाखण्ड एवं कुरीतियों को दूर करने तथा पारस्परिक विरोध मिटाने का सफल प्रयास किया है।" सिद्ध कीजिए।
कबीर ने अपने समय के धार्मिक पाखण्ड एवं कुरीतियों को दूर करने तथा पारस्परिक विरोध मिटाने का सफल प्रयास किया है।” सिद्ध कीजिए।

कबीर ने अपने समय के धार्मिक पाखण्ड एवं कुरीतियों को दूर करने तथा पारस्परिक विरोध मिटाने का सफल प्रयास किया है।” सिद्ध कीजिए।

अथवा

कबीर एक समाज सुधारक या क्रान्तिकारी थे। इसकी विवेचना कीजिए।

अथवा

कबीरदास की सामाजिक भावना पर प्रकाश डालिए।

अथवा

कबीर के समाज सुधारक रूप की सोदाहरण विवेचना कीजिए।

कबीर सुधारक एवं क्रान्तिकारी के रूप में

कबीर के सामाजिक विचारों को समझने के लिए उनकी पृष्ठभूमि का ज्ञान आवश्यक है। जिस समय कबीर का प्रादुर्भाव हुआ उस समय समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अन्धकार, अस्त-व्यस्तता और विशृंखलता फैली हुई थी। उनके समय में व्यक्तिवाद का प्राबल्य था। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस और ‘अपनी ढपली अपना राग’ वाली कहावत सर्वत्र चरितार्थ हो रही थी। आ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “स्वामी शंकराचार्य के बाद कोई भी ऐसी विभूति भारत में प्रादुर्भूत नहीं हुई जो इस अन्धकार को विदीर्ण करने में समर्थ होती। स्वामी रामानन्द अपने युग की अद्वितीय देन थे, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु सर्वशास्त्र पारंगत विद्वान् होने के कारण तथा साधु मत में अधिक विश्वास रखने के कारण साधारण जनता के सम्पर्क में अधिक न आ सके। इसका फल यह हुआ कि उनका कार्य अधूरा ही रह गया। सन्त कबीर ने उसी की पूर्ति की थी। कबीर जो सन्देश लेकर सामने आये वह रामानन्द की ही देन थी। केवल प्रस्तुत करने का ढंग उनका अपना था, वह भी ‘भाव भगति’ से। इस भाव भगति के सहारे ही उन्होंने व्यक्तिवादिता के समाज को संयमित करने का प्रयत्न किया। इसी के द्वारा वे विविध अवयवों को एकसूत्र में बाँधने में समर्थ हुए थे।”

जाति-पाँति का खण्डन- समस्त जीवों का कारण वही परमात्मा है। वहीं सब में है और सब उसमें हैं। कोई उससे अलग कैसे हो सकता है। उसी का अंश जीव को सर्वथा सजग तथा गतिशील बनाये रखता है। अन्धविश्वासी जीव मनुष्य को कई भागों में विभाजित कर देते हैं और उनको अलग-अलग महत्त्व प्रदान करते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र तथा वैश्य ये भगवान् के द्वारा विभाजित नहीं अपितु मानव निर्मित प्रति-सीमाएँ हैं। ऊंच-नीच की भावना से एक ओर हिन्दू समाज त्रस्त था तो दूसरी ओर मुसलमान भी अछूता नहीं रह पाता था। हिन्दुओं का बड़ा वर्ग इसीलिए धर्म परिवर्तन जैसी अग्नि-परीक्षा को भी पारकर आगे बढ़ रहा था। कबीर समाज में छोटे वर्ग की हीन भावना को दूर करने हेतु सदैव अपने नाम के आगे ‘नीचा कुल जुलाहरा’ का प्रयोग किया करते हैं।

रामानुजाचार्य का उस समय एक विशिष्ट स्थान था। रामानुजाचार्य ने अपने गुरु शठकोप स्वामी की इच्छा के विपरीत शूद्रों को राम नाम का मन्त्र दिया। रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही स्वामी रामानन्द काफी पीछे आते हैं। उन्होंने सर्वप्रथम शूद्रों को भक्ति करने का अधिकार प्रदान किया। आगे के वैष्णवाचार्य कुछ अधिक योगदान नहीं कर सके। इसी परम्परा में पुनः लम्बे अन्तराल के बाद क्रान्तिकारी सुधारक, जगजयी कबीर की अवतारणा हुई जिन्होंने स्पष्ट रूप से घोषित किया-

जाति पाँति पूछे नहि कोई।

हरि को भजै सो हरि का होई॥

कबीर ने जाति को महत्त्व नहीं दिया वरन् ज्ञान को प्रधानता प्रदान की। उन्होंने अपना उदाहरण देते हुए कहा कि ब्राह्मण लोग, तुम जुलाहे के ज्ञान को पहचानो, उसकी जाति पर मत जाओ-

तू ब्राह्मन मैं कासी का जुलाहा।

बूझड़ मोर गियाना।

देखें कबीर की कटूक्ति का भीषण प्रहार-पण्डितों के इस कथन पर कि ‘ब्राह्मणस्य मुखमासीत् कबीर ने कहा कि यदि ब्राह्मण ब्रह्म के मुख से उत्पन्न हुए तो समस्त ब्राह्मणों को किसी और मार्ग से क्यों नहीं आने को मिला अर्थात् समस्त जाति के शिशु माँ के उदर से ही उत्पन्न होते हैं फिर पण्डित को अलग मार्ग क्यों नहीं मिला? कबीर की ‘शब्दावली देखें-

जे तू ब्राह्मन ब्राह्मनी जाया।

और बाट तू काहे न आया॥

हिन्दू-मुसलमान में भेद— हिन्दू-मुसलमान में भेद-भाव की भावना थी मुसलमान हिन्दुओं से चिढ़ते थे। हिन्दू भी मुसलमान को नफरत की निगाह से देखता था। अलाउद्दीन के समय में एक काजी का यह कथन लगभग उनकी भावना का स्पष्टीकरण करने में समर्थ है-“हुजूर, ये सब खिराज गुजार (लगान देनेवाले) हैं। जब लगान वसूल करनेवाले अफसर इससे चाँदी माँगें तो इन्हें बिना किसी उज्ज्र के अत्यन्त नम्रता एवं आदर के साथ सोना दे देना चाहिए। यदि वे अफसर इनके मुँह में थूकना चाहें तो इन्हें उसे लेने के लिए स्वेच्छा से अपना मुँह खोल देना चाहिए। ऐसा करके ही उस अफसर के प्रति अपना आदर दिखा सकते हैं। इस्लाम का महत्त्व बढ़ाना पुण्य और उसका अनादर करना पाप है। इन हिन्दुओं से ईश्वर घृणा करता है और इन्हें पददलित करके रखने की आज्ञा देता है। हिन्दुओं की बेइज्जती करके रखना एक धार्मिक कर्तव्य है, क्योंकि ये हमारे नबी के शत्रु हैं।”

मुसलमान अल्लाहताला को बुलाने हेतु मस्जिद पर जाकर बाँग देता है। कबीर कहते हैं कि अल्लाह क्या बहरा है जिसे इतने जोर से चिल्लाकर बुलाते हैं। वह क्या इतनी दूर है? दिनभर रोजा रहते हैं। भला सायंकाल को गोहत्या करने से खुदा क्या खुश हो सका है? असम्भव-

दिन भर रोजा रखत है रात हनत है गाय।

यह रोज़ा यह बन्दगी कैसे खुशी खुदाय॥

हिन्दुओं की आलोचना करते हुए सुधारक कबीर ने तीखी किन्तु सच्ची बात कही है-

हिन्दू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न दे।

बेस्या के पायन तर सोवें यह देखो हिन्दुआई।

हिन्दू गो-हत्या को पाप करार देता है लेकिन जिह्वा के स्वाद हेतु बकरा की हत्या पुण्य मानता है और मुसलमानों के ऊपर ही जीव हत्या को स्वीकारता है-

बकरी पाती खात है ताकी काढ़ खाल।

जो बकरी को खात हैं ताको कौन हवाल॥

कबीरदास बार-बार संसार की असारता को बताकर हिन्दू तथा मुसलमान दोनों को असत् मार्ग से विरत होने की सलाह देते हैं।

बाह्याडम्बर का खण्डन- शाक्त लोग मंदिरा तथा जीव-हत्या द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का विधान करते हैं। कबीर कहते हैं कि यह कितना बड़ा भ्रम है। यह मात्र आडम्बर है। ऐसा करना नितान्त मूर्खता है। इस आशय का पद देखें-

पापी पूजा बैसि करि भषै मांस मद होड़।

तिनकी दस्या मुकति नहीं कोटि नरक फल होइ॥

कबीर तीर्थों की निरर्थकता सिद्ध करते हुए तीर्थाटन के पीछे ईश्वर-चिन्तन नहीं मात्र पर्यटन का भाव रखते हैं। गंगा स्नान को मुक्ति का साधन बताना नितान्त भ्रामक है। कबीर सत्य को जानने की आकांक्षा प्रकट करते हैं। इसीलिए कहते हैं-

तीरथ में तो सब पानी है, होवै नय कछु अन्हाय देखा।

प्रतिमा सकल तो जड़ हैं भाई, बोलें नहीं बोलाय देखा ॥

कुरान पुरान सबै बात है, या घट का परदा खोल देखा।

अनुभव की बात कबीर कहै, यह सब झूठी पोल देखा॥

केश बिगाड़ने से कबीर को बड़ी नाराजगी है। मन जिसे बिगाड़ने से सहजावस्था मिलेगी, उसको कोई नहीं बिगाड़ता है। कबीर इसी को मुँड़ाने का प्रावधान बताते हैं-

मन मैं वासी मूँडिले केसौ मूँड़ कोइ।

X              X              X

जो कुछ किया सु मन किया केसौ कीया नाहिं।

लोग हाथों में माला लिये रहते हैं। वे माला का जाप भी करते हैं और दुनियादारी भी निभाते रहते हैं। कबीर इसे जाप की संज्ञा नहीं प्रदान करते हैं। वास्तव में मन को फिराने की बात है। वह फिरकर ब्रह्मानुभूति में लीन हो जाय लेकिन लोग वैसा नहीं कर पाते हैं। बाह्याडम्बर के इस रूप से कबीरदास जी सख्त नाराज रहते हैं-

कर पकरें अंगुरी गिनें मन धावै चहुँ ओर।

जाहि फिरायां हरि मिलैं सो भया काठ की ठौर।

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।

कर का मनका डारि के, मनका मनका फेर ॥

माथे पर लगा तिलक ब्रह्मशक्ति का द्योतक नहीं बन सकता है। वह तो डैना है। डैना जंगली जानवरों के गले में डाल दिया जाता है ताकि वे भाग न सकें। तिलक और माला भी साधक के गले के डैने हैं। वे ईश्वरानुभूति के मात्र बाधक हैं, साधक कदापि नहीं हो सकते। कबीर इस ओर भी अपना ध्यान डालते हैं। कहते हैं-

कहा भयो तिलक गरै जप माला, मरम न जानै मिलन गोपाला।

दिन प्रति पसू करै हरि हाई, गरै काठ बाकी बांनि न जाई।

स्वर्ग सेत करणीं मनि काली, कहा भयौ मति माला पाली।

बिन ही प्रेम कहा भयो रोये, भीतरि मैल बाहरि कहा धोये।

नागा बाबाओं पर कबीर की कटूक्ति है। वे कहते हैं कि यदि नंगा रहने मात्र से भगवान् मिल जायँ तो जंगल के पशु तो आजीवन नंगे ही रहते हैं। उन्हें भगवान् तुरन्त मिलते होंगे। लेकिन यह कथन अनुचित है। इसी प्रकार कुछ साधु मुँह मुँहा लेते हैं। कल्पना करते हैं कि मूँड़ मुँड़ाने से ब्रह्मानुभूति होती है तो उस पर कबीर का व्यंग्य द्रष्टव्य है-

नंगे फिर जोग जो होई, बन का मृग मुकुति गया कोई।

मूँड़ मुँड़ाये जो सिधि होई, स्वर्ग ही भेंड़ न पहुँची कोई॥

सत्य अन्धविश्वास से नहीं युक्ति से प्राप्त होता है। पुजारी तथा मुल्ला तो आजीवन मन्दिर, मस्जिद की सेवा करते हैं तो उन्हें तो उनका लक्ष्य मिलना ही चाहिए लेकिन सत्य तत्त्व के अभाव में उन्हें कुछ भी नहीं मिल पाता। इसी आशय का पद इस प्रकार है-

तन खोजौं नर नां करी बड़ाई, जुगति बिना भगति किन पाई।

एक कहावत मुल्ला काजी, राम बिना सब फोकटबाजी।

कहै कबीर यहु तन काँचा, सबद निरंजन राम नाम साँचा।

पाखण्ड को दूर करने के लिए कबीर कुर्बान हो गये। जाने कितनी समय की यातनाओं को सहा लेकिन वह योद्धा सब सहता हुआ भी आगे बढ़ता ही गया। पण्डितों तथा मौलवियों की शिकायत पर सिकन्दर लोदी का अपमान भी उन्हें सहना पड़ा, लेकिन समय के उस दीवाने ने उफ तक न किया-

मोहि आग्या दई दयाल दया करि काहू कूं समझाई।

कहँ कबीर मैं कहि कहि हार्यो अब मोहि दोस न लाई।।

कबीर ने मुल्ला-मौलवी के बताये मार्ग पर चलना नहीं चाहा वरन सत्य के मार्ग को अपनाया। जो उन्होंने उचित समझा लगभग उसी को अंगीकार किया, उसी का उपदेश दिया। स्पष्ट भाषा में कबीर के इसी मन्तव्य को देखें-

पंडित मुल्ला जो लिखि दीया, छांड़ि चलै हम कछु न लीया।

रिदै खलासु निरखि लै मीरा, आपु खोजि खोजि मिलें कबीरा॥

मुसलमान लोग बहिश्त की तलाश में न जाने कितनी नमाज अदा करते हैं, काबे, मक्का तक को दौड़ लगाते हैं लेकिन कबीर इस बात पर जोर देकर कहते हैं कि उनका यह सब कुछ भ्रम है और उन्हें बहिश्त कभी भी नहीं मिल सकता है। जिस माँ का दूध पीते हैं उसी गोमाता को रमजान जैसे महीने में काटते हैं और उनका खून पीते हैं।

कबीर मात्र कवि नहीं थे। शायद कवि बनना उन्हें अभीष्ट भी न था। मूलतः वे अपने युग के भगवान् बुद्ध, अपने युग के ईसा तथा गाँधी थे। वे जिये और मरे-मगर केवल किसके लिए उनका समस्त जीवन त्याग-बलिदान की एक लम्बी कहानी है। न जाने कितने अपमान, न जाने कितनी कटूक्तियाँ, न जाने कितनी गालियाँ युग के इस ईसा ने सहन की, लेकिन कुछ भी न कहता प्रतिकार के शब्द का प्रयोग न करता हुआ यह योद्धा आगे बढ़ता ही गया। सुकरात ने एक प्याला कडुवे जहर का पान, किया। कबीर तो अनेक बार जीते हुए ही मृत हो जाना चाहते थे।

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About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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