गणराज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था पर लेख लिखिए।
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गणराज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था (Administration of the Republics)
गणराज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था राजतंत्रों से अलग थी। गणतंत्रीय व्यवस्था में निर्वाचित राजा कुलीनों के सहयोग से और उनके नियंत्रण में कार्य करता था। गणराज्यों तथा उनकी प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन निम्न है-
शाक्यगण – शाक्य-गणतंत्र में निर्वाचित राजा शासन का प्रधान होता था। राजकाज में उसकी सलाह और सहायता देने के लिए एक परिषद होती थी। परिषद में सिर्फ कुलीनों को ही स्थान दिया गया था। संभवतः यही परिषद राजा का भी चुनाव करती थी। राजा इस परिषद की सहमति लिए बिना राज्य में संबद्ध कोई भी महत्त्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकता था। ललितविस्तर से ज्ञात होता है कि शाक्यों की परिषद में 500 सदस्य थे। शाक्य सच्चरित्रता पर बल देते थे। एवं स्त्रियों का सम्मान करते थे। उन्हें अपने रक्त की शुद्धता का भी गौरव था। इसकी रक्षा करने के लिए वे सदैव प्रयत्रशील रहते थे। इसलिए, शाक्यों ने बाहरी लोगों से वैवाहिक संबंध बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया। शाक्यों और और कोलियों में रोहिणी नदी के जल के बँटवारे को लेकर हमेशा हमेशा संघर्ष होते रहते थे। एक बार स्वयं बुद्ध ने इस झगड़े का निबटारा किया। जब गौतम बुद्ध कपिलवस्तु गए तब परिषद ने उनका स्वागत किया।
लिच्छविगण- शाक्यों की प्रशासनिक व्यवस्था से अपेक्षाकृत अधिक जानकारी वैशाली के लिच्छवियों के विषय में प्राप्त है। लिच्छवियों ने विदेह और मल्ल के साथ एक संघ की स्थापना की थी, जो वज्जि या वृज्जिसंघ के नाम से विख्यात था। इस संघ में 9 मल्लिका, १ लिच्छवी तथा 18 काशी-कोशल के गणराजा सम्मिलित थे। इस संघ के सबसे मत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली गण लिच्छवि ही थे, जिनकी राजधानी वैशाली में थी। शाक्यों की ही तरह लिच्छवियों की भी एक राष्ट्रीय परिषद थी। इसके सदस्यों की संख्या 7,707 थी । इन्हीं सदस्यों में से बारी-बारी से राजा, उप-राजा, सेनानी और भांडागारिक बहाल किए जाते थे। राष्ट्रीय परिषद का स्वरूप केंन्द्रीय व्यवस्थापिक के समान था। राज्य के चार प्रमुख पदाधिकारी कार्यकारिणी के प्रतिरूप थे। वास्वतिक सत्ता केंद्रीय परिषद के हाथों में निहित थी । युद्ध एवं शांति के प्रश्न एवं अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर परिषद में वाद-विवाद होते थे। बहुमत या सर्वसम्मत से निर्णय किए जाते थे। किसी प्रश्न पर मतभेद होने की स्थिति में मतसंग्रह भी करवाए जाते थे।
लिच्छवियों की न्यायिक व्यवस्था की प्रशंसा पालि-साहित्य में मुक्तकंठ से की गई है। इस न्याय-व्यवस्था की विशेषता यह थी कि नागरिकों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता की सुरक्षा के पूर्ण उपाय किए गए थे।
अन्य गणराज्य- लिच्छवियों और शाक्यों के अतिरिक्त अन्य गणराज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था बहुत-कुछ उन्ही के तरह ही थी। शासन का प्रधान निर्वाचित राजा या राष्ट्रपति होता था। उसका निर्वाचन केंद्रीय सभा द्वारा होता था। राजा मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता से प्रशासन चलाता था। परिषद की संख्या गणों के आकार-प्रकार तथा उनकी स्थिति के अनुसार बदलती रहती थी। सामान्यतः, इसमें राजा के अतिरिक्त उपराजा, सेनापति और कोषाध्यक्ष रहते थे।
गणराज्य की वास्वतिक शक्ति उसकी केंद्रीय सभा या व्यवस्थापित में ही निहित थी। इसकी सदस्य संख्या निश्चित नहीं थी। जहाँ लिच्छवियों की सभा में 7,707 सदस्य थे, यौधेयों 5,000 वहीं शाक्यों में सिर्फ 500। ये सदस्य कुलीन वर्ग या शासक वर्ग से ही आते थे। सामान्य जनों को इसमें स्थान नहीं दिया गया था। सारे सदस्य संथागार (सभाभवन) में बैठकर, वाद-विवाद द्वारा महत्त्वपूर्ण विषयों का निर्णय करते थे। कार्यपालिका केंद्रीय सभा के निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए बाध्य थी। अधिकांश निर्णय बहुमत या सर्वसम्मति से किए, जाते थे। सभा की कार्यवाही को संचालित करने के लिए गणपूरक नामक पदाधिकारी होता था। मतों की गणना करनेवाला अधिकारी शलाकाग्राहक के नाम से जाना जाता था ।
यद्यपि गणराज्यों की न्यायिक व्यवस्था की प्रशंसा की गई है, तथापि शासन के अन्य विभागों यथा राजस्व, सैन्य-संगठन, पुलिस, नगर-व्यवस्था, ग्राम-प्रशासन इत्यादि के विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। संभवतः स्थानीय प्रशासन तत्त्वों की सहायता ली जाती थी। कोलियों के पास शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस की टुकड़ी थी।
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