गति विकास से क्या अभिप्राय है ? विभिन्न अवस्थाओं में इसकी विशेषतायें लिखिये।
गत्यात्मक योग्यताओं का विकास शारीरिक वृद्धि से सम्बद्ध होता है। व्यक्ति के कुल विकास के पीछे उसका शारीरिक तथा गत्यात्मक विकास निहित होता है। कार्ल सी० गैरिसन के अनुसार- “शक्ति, अंग सामंजस्य तथा गति का और हाथ, पैर तथा शरीर की अन्य माँसपेशियों के ठीक-ठीक उपयोग का विकास उसके पूरे विकास की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।” शरीर जैसे-जैसे विकसित होता है, बालक को उसी अनुपात में अनेक क्रियायें सीखनी पड़ती हैं। भार तथा कद के सन्तुलन पर बालक के गत्यात्मक कौशल का अधिगम निर्भर करता है। यह भी देखा गया है कि गति विकास आयु में वृद्धि के साथ पाया जाता है। गैरिसन ने गति विकास के कुछ निष्कर्ष इस प्रकार बताये हैं-(i) शैशव एवं विद्यालय-पूर्व के पहले वर्षों में गति विकास पर कई कारकों का क्रम व्यवस्थित होता है। (ii) परिपक्वता तथा अभ्यास का प्रभाव पड़ता है। (iii) प्राथमिक तथा जटिल गति कौशलों में अभ्यास में कुशलता आती है। (iv) गति कौशल का विकास वृद्धि चक्र के अनुरूप होता है। (v) कई गति कौशलों में लड़के-लड़कियों की दक्षता समान होती है और कई भिन्न |
(i) शैशवावस्था में गति विकास – जन्म के समय शिशु में इतनी क्षमता नहीं होती है कि वह अपने शरीर का संचालन कर सके। वह न तो चल सकता है और न ही बैठ सकता है। 4 या 5 मास की आयु में बालक अपना सिर उठाने योग्य हो जाता है। 7 मास का बालक बैठने योग्य हो जाता है। खड़े होने की क्षमता प्राप्त करने में बालक को सहारा लेकर खड़े होने और बाद में स्वतन्त्र रूप से खड़े होने की अवस्था पार करनी पड़ती है। लगभग 14 मास का बालक चलना आरम्भ कर देता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है— लड़कियाँ, लड़कों की अपेक्षा चलना शीघ्र सीख लेती हैं। वास्तविकता यह है कि बालक के चलने तथा अन्य गति-वाहिनी क्रियाओं के सीखने पर गर्भावस्था के समय के पोषण, शिशु के अंग-दोष आदि का प्रभाव पड़ता है। 2 वर्ष की आयु में बालक हाथ तथा पैरों का संचालन अच्छी प्रकार करने लगता है। 3 वर्ष की आयु में वह पेंसिल आदि से रेखायें खींचने में समर्थ हो जाता है।
(ii) बाल्यकाल में गति विकास- जैसे-जैसे शरीर विकसित होता जाता है, वैसे-वैसे बालक को नई-नई क्रियायें सीखनी पड़ती हैं। इस अवस्था में बालक का शरीर विकसित होता है और सन्तुलन तथा समायोजन करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। गति-विकास आयु की वृद्धि के साथ-साथ होता है। विलियम स्लोन ने ‘लिंकन ओरेत्सकी गति-विकास मान’ को प्रमापीकृत (Standardised) करके 6 से 14 वर्ष की आयु के 380 लड़कों तथा 369 लड़कियों पर परीक्षण करके गति-विकास के मध्यमान निर्धारण किए। कार्य संचालन में विधि अपनाने की ओर बालकों का ध्यान जाना स्वाभाविक ही है। जेकिंग ने 5 से 7 वर्ष तक के बच्चों को दौड़ने, फुदकने-कूदने में निपुण बताया है। कारपेंटर ने जेकिंग की धारणा की पुष्टि करते हुए कहा है कि लड़कियाँ फुदकने में तेज होती हैं।
(iii) किशोरावस्था में गति विकास- बाल्यावस्था पूर्ण करने के पश्चात् बालक किशोरावस्था में पदार्पण करता है। शारीरिक गतियों का विकास तो हो चुकता है, परन्तु गतियों का दिशाबोध होना अनिवार्य है। कुछ अध्ययन इस बात की और संकेत करते हैं कि शारीरिक वृद्धि के साथ अनेक गतिवाहिनी क्रियायें सम्मिलित होती हैं। इसलिये किशोर खेलकूद में अधिक रुचि लेते हैं। उनके खेलों में भाग-दौड़ वाले खेल होते हैं। फुटबाल, हॉकी, बॉसकेट बाल, क्रिकेट आदि खेलों के खेलने में उनकी रुचि विकसित हो जाती है। हैडो रिपोर्ट के अनुसार, “11 या 12 वर्ष की आयु से ही किशोरों की रगों में ज्वार फूटने लगता है। यह ज्वार ही कैशोर्य है। यदि ज्वार, बाढ़ की तरह समझा जाये और एक नई यात्रा का आरम्भ समझा जाये, हम समझेंगे कि यह भाग्य की ओर बढ़ते कदम का परिसूचक है।”
किशोरावस्था में प्रतिक्रिया आयु के साथ-साथ बढ़ती जाती है। सामान्यतः सरल प्रक्रियाओं का समायोजन कठिन होता है। बाल्यावस्था में गति-विकास की गति तथा जटिलता कम होती है। किशोरावस्था में गति-विकास में प्रौढ़ता आती है और सीखने में सहायता होती है।
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