प्रोजेक्ट पद्धति क्या है ? प्रोजेक्ट पद्धति का सविस्तार वर्णन कीजिये।
प्रोजेक्ट पद्धति की आवश्यकता- प्रोजेक्ट पद्धति पुस्तकीय पद्धति के विरुद्ध एक खुला विद्रोह है, क्योंकि इस पद्धति द्वारा बच्चों को संसार की यथार्थताओं का उचित ज्ञान करवाया जाता है। आज के शिक्षा शास्त्री स्पष्ट तथा निश्चित शब्दों में पुरानी पद्धति का विरोध करते हैं, क्योंकि इसमें विषयों का कृत्रिम विभाजन होता है। उनका कहना है कि, इन पुरानी पद्धतियों को छोड़ो, बच्चों के सम्मुख वास्तविक जीवन सम्बन्धी कोई आयोजन करो ताकि बच्चे इस पर कार्य करें तथा इसके परिणामों का निरीक्षण करें।
वह पद्धति स्कूल के परम्परागत वातावरण का भी विरोध करती है, क्योंकि यह योजनारहित तथा नीरस वातावरण होता है। इसमें न तो सजीवता होती है और न ही श्रेष्ठ जीवनयापन करने के लिये कोई उत्सुकता।
यह पद्धति अमरीका के सुप्रसिद्ध दार्शनिक शिक्षा शास्त्री ड्यूवी (Dewey) की प्रयोजनात्मक विचारधारा का ही क्रियात्मक रूप है। कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के डॉ० विलियम हर्ड किलपैट्रिक ने इस पद्धति का विकास किया।
प्रोजेक्ट पद्धति क्या है- विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने इस पद्धति की निम्नलिखित ढंग से व्याख्या की है-
1. विलियम किलपैट्रिक- प्रयोजन एक तन्मयतापूर्ण तथा उद्देश्यपूर्ण क्रिया है, जिसका सामाजिक वातावरण में विकास होता है।
2. बर्टन- समस्या ही एक प्रोजेक्ट है, जिसका परिणाम निकलता है क्रियाशीलता। परन्तु यह बात स्मरणीय है कि केवल यान्त्रिक तत्वों से ही कोई प्रोजेक्ट कार्य नहीं हो जाता, अपितु व्यावहारिक ढंग से कार्यशील रहकर किसी समस्या को सुलझाने से ही कोई प्रोजेक्ट बनता है।
3. डब्ल्यू० डब्ल्यू० चार्टर्स – प्रचलित शिक्षण प्रणाली में विषय संगठन इस प्रकार होता है कि सिद्धान्त पहले पढ़ाये जाते हैं, परन्तु प्रोजेक्ट पद्धति में पहले समस्याएँ रखी जाती हैं, जिनका समाधान करते हुए विद्यार्थी आवश्यकतानुसार सिद्धान्तों का निर्माण कर लेता है।
4. जे० ए० स्टीवेन्सन – प्रोजेक्ट एक समस्यामूलक कार्य है, जिसे प्राकृतिक वातावरण में पूरा किया जाता है।
5. बालार्ड – प्रोजेक्ट वास्तविक जीवन का अंश होता है, जिसे स्कूल में लाया जाता है।
6. सडन— प्रोजेक्ट शिक्षात्मक कार्य की एक कड़ी है, जिसका महत्वपूर्ण तत्व है निश्चित तथा ठोस निष्पत्ति ।
इस प्रकार उपर्युक्त कथनों के आधार पर निम्नलिखित बातों पर बल दिया जाता है, जो कि प्रोजेक्ट पद्धति की विशेषतायें कही जा सकती हैं। अतः प्रोजेक्ट-
- उद्देश्यपूर्ण क्रियाशीलता है।
- प्राकृतिक वातावरण में क्रियाशीलता है।
- स्कूल में वास्तविक जीवन की झलक है।
- ठोस तथा निश्चित निष्पत्ति है।
- समस्यामूलक क्रियाशीलता है।
- अनेक समस्याओं के सुलझाने की क्रियाशीलता है।
- तन्मयतापूर्ण क्रियाशीलता है।
- सामाजिक वातावरण में क्रियाशीलता है।
- व्यावहारिक समस्याओं का समाधान है।
Contents
प्रोजेक्ट पद्धति के मुख्य सिद्धान्त
1. क्रियाशीलता का सिद्धान्त- बच्चे स्वभाव से ही क्रियाशील होते हैं। उन्हें कोई न कोई क्रिया करते रहने में ही न आनन्द मिलता है। उत्सुकता, सृजन तथा समूह कार्य की वृत्तियाँ उन्हें क्रियाशील बनाये रखती हैं। अतः बच्चों को ऐसे अवसर जुटाने चाहिये, जिनसे वे क्रियाशील रहें। शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की क्रियाओं का स्कूलों में आयोजन होना चाहिये ताकि वे कार्य करते हुये शिक्षा प्राप्त करें तथा जीवन यापन की तैयारी करें।
2. सामाजिक अनुभव का सिद्धान्त – बच्चा एक सामाजिक प्राणी है तथा हमें उसे सामाजिक जीवन व्यतीत करने के लिये तैयार करना है। बचपन में उसे सहकारिता का प्रशिक्षण अवश्य दिया जाये। प्रोजेक्ट पद्धति में बच्चा समूह में कार्य करता है।
3. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- कार्य को करने की इच्छा स्वयं होनी चाहिये न कि अध्यापक विद्यार्थियों पर किसी कार्य को घूंसे। बच्चे पर किसी प्रकार का दबाव तथा प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिये ताकि वह अपने आपको स्वतन्त्रतापूर्वक पूर्ण रूप से व्यक्त कर सके। प्रोजेक्ट पद्धति इस प्रकार की स्वतन्त्रता प्रदान करती है।
4. उद्देश्य का सिद्धान्त- उद्देश्य का ज्ञान एक महान् प्रेरणा है, जो बच्चे को उसके लक्ष्य तक पहुँचने के लिये उत्सुक किये रहती है। बच्चे के मस्तिष्क में निश्चित कल्पना होनी चाहिये कि वह अमुक कार्य क्यों कर रहा है। उद्देश्य शिक्षा प्राप्ति का उत्प्रेरण है। उद्देश्यरहित तथा निरर्थक कार्यक्रमों से बच्चे की रुचियों को जागृत नहीं किया जा सकता।
5. अनुभव का सिद्धान्त – एक कहावत है कि अनुभव एक श्रेष्ठ अध्यापक हैं। इस पद्धति में बच्चे अनुभव द्वारा ही नई-नई बातों को सीखते हैं।
6. उपयोगिता का सिद्धान्त-ज्ञान तभी उपयोगी होगा, जब वह क्रियात्मक हो। शिक्षण का परम्परागत सिद्धान्त पुस्तकीय तथा मौखिक शिक्षा को ही महत्व देता है, जो किसी भी रूप में उपयोगी नहीं। प्रोजेक्ट पद्धति द्वारा अर्जित ज्ञान बहुत ही उपयोगी सिद्ध होता है। इस पद्धति द्वारा विभिन्न रुचियों तथा मूल्यों का निर्माण होता है, जो कि व्यावहारिक तथा रचनात्मक दृष्टि से लाभदायक है।
7. वास्तविकता का सिद्धान्त – जीवन यथार्थ है। अतः जीवन की शिक्षा भी यथार्थ ही होनी चाहिये। बच्चे ने अपना सारा जीवन यथार्थताओं में ही व्यतीत करना है अतः उसका शिक्षण भी उसी के अनुरूप होना चाहिये। प्रोजेक्ट पद्धति ही स्कूल में जीवन की वास्तविक स्थितियों से बच्चों को परिचित कराती है।
प्रोजेक्ट के विभिन्न चरण
1. स्थिति का आयोजन – बच्चों पर किसी प्रोजेक्ट को ढूंसना अहितकर है। बच्चों को चाहिये कि वे स्वयं प्रोजेक्ट का चुनाव करें। निस्सन्देह अध्यापक का कार्य यह है कि वह वास्तविक स्थिति का आयोजन करे। वह बच्चों की रुचियों, योग्यताओं एवं स्वभावों को ध्यान में रखकर इस प्रकार की स्थिति का आयोजन करे, जिसमें बच्चे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार स्वयं कार्य करने के लिये प्रेरित हों। स्टीवेन्सन ने बिजली की घण्टी को ठीक करने का प्रोजेक्ट ऐसे ही चलाया था। स्कूल में घण्टी को ठीक करने की आवश्यकता पड़ी और इसी सुअवसर को एक स्थिति के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया।
2. चुनाव तथा उद्देश्य (Choosing and Purposing) – उद्देश्य निश्चित करना बहुत आवश्यक है। यही एक केन्द्र बिन्दु है, जिस पर प्रोजेक्ट स्थिर रहता है। जिस प्रोजेक्ट का चुनाव किया जाये वह किसी न किसी आवश्यकता या उद्देश्य को अवश्य पूरा करे। जहाँ तक हो सके उद्देश्य ऐसा निश्चित किया जाये जिसे श्रेणी के सभी विद्यार्थी स्वीकार करें। बच्चों को प्रोजेक्ट स्वयं चुनना चाहिये। अध्यापक को जल्दी-जल्दी अधीर होकर स्वयं प्रोजेक्ट का चुनाव नहीं कर देना चाहिये। श्रेष्ठ परिणाम एवं पूर्ण सन्तुष्टि तभी होती है, जब बच्चों द्वारा प्रोजेक्ट खुद चुना जाये। बच्चों को बहुत-सी अवस्थाएँ जुटानी चाहियें। इन अवस्थाओं पर विचार-विमर्श किया जाये और अध्यापक उपयोगी राय दे। प्रोजेक्ट का निश्चय प्रजातन्त्रात्मक ढंग से होना चाहिये। अध्यापक केवल मार्ग-दर्शन करे न कि अपनी राय बच्चों पर थोप दे। बच्चे यह अवश्य अनुभव करें कि प्रोजेक्ट का चुनाव उनकी इच्छानुसार ही हुआ है।
3. योजना (Planning)- जब प्रोजेक्ट का निश्चय हो जाये तो अगली समस्या है योजना की। अध्यापक प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले बच्चों का ध्यान योजना की आवश्यकता की ओर अवश्य आकर्षित करे। योजना बनाने का कार्य अतीव कठिन है। अच्छी योजना अच्छे परिणाम का मूल है। प्रत्येक बच्चा अपनी राय दे। अध्यापक बच्चों का ध्यान उनके कार्य एवं शक्ति स्रोतों की ओर दिलवायें। विभिन्न प्रस्तावों तथा उनके परिणामों पर विचार किया जाये। समुचित विचार-विमर्श के पश्चात् सबसे अच्छी योजना को कापी पर लिखने के लिये बच्चों को प्रेरित किया जाना चाहिये। यह अत्यन्त अनिवार्य है कि अध्यापक पहले से ही योजना के सम्बन्ध में कुछ धारणायें निश्चित कर ले ताकि वह योजना बनाने में बच्चों की श्रेष्ठतम ढंग से सहायता कर सके।
4. योजना को कार्य रूप में परिणित करना (Executing the Plan)- यह चरण सबसे अधिक लम्बा है तथा इसमें पर्याप्त परिश्रम करना पड़ता है। सभी बच्चे सहयोगात्मक रूप से प्रोजेक्ट को पूरा करने में प्रयत्नशील रहें। प्रोजेक्ट का विभिन्न प्रक्रियाओं को श्रेणी के विद्यार्थियों की विभिन्न रुचियों, योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुसार विभाजित कर देना चाहिये। अध्यापक बच्चों का समुचित मार्गदर्शन करे।
यह एक ऐसी अवस्था है, जिसमें बच्चे बहुत से कार्य करते हैं एवं उपयोगी अनुभव प्राप्त करते हैं। बच्चे अपने आपको सामग्री तथा सूचना एकत्रित करने, विभिन्न भाषाओं में पढ़ना-लिखना सीखने, हिसाब-किताब रखने, कीमतें निकालने, मानचित्र का अध्ययन करने, विभिन्न चीजों के नमूने इकट्ठे करने, लम्बाई-चौड़ाई मापने, मार्किटों में जाने, चिड़ियाघर, खेत, फसलों का सर्वेक्षण करने, तथा एक-दूसरे से सहायता लेने के कार्य में व्यस्त रखते हैं।
5. निर्णय करना या मूल्यांकन (Judging and Evaluating)- प्रोजेक्ट जब पूरा हो जाता है, तब उसकी समालोचना होती है। प्रोजेक्ट पर कार्य करते हुये जो त्रुटियाँ होती हैं, उनसे शिक्षा ग्रहण की जाती है। बच्चे अपने ही कार्य की आलोचना करना सीखते हैं। आत्मालोचन प्रशिक्षण का एक बहुमूल्य अंग है।
6. अभिलेखन (Recording) – प्रोजेक्ट से सम्बन्ध रखने वाली सभी क्रियाओं का पूरा रिकार्ड रखा जाना चाहिये। प्रोजेक्ट की कापी अच्छी तरह से सम्भाल कर रखी जाये। प्रोजेक्ट की कापी ऐसी हो कि यह प्रोजेक्ट का विस्तृत एवं स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करे। यह कापी बताये कि कैसे स्थिति का निर्माण हुआ, कैसे प्रोजेक्ट का चुनाव हुआ, कैसे उत्तरदायित्व लिये गये, प्रोजेक्ट में क्या कठिनाइयाँ आयीं तथा कौन-कौन से नये अनुभव प्राप्त किये गये।
अच्छे प्रोजेक्ट की विशेषतायें
1. समयानुकूल – प्रोजेक्ट बच्चे के खेल तथा व्यवसाय से सम्बन्धित हो। प्रोजेक्ट बच्चों की मानसिक अवस्थाओं के अनुसार हो। प्रोजेक्ट समयानुकूल होना चाहिये ।
2. रुचिकर- प्रोजेक्ट बच्चों के लिये रुचिकर हो –
3. मितव्ययी- प्रोजेक्ट मितव्ययी होने चाहियें। वे बच्चों की शक्ति तथा धन का अनावश्यक दुरुपयोग न करें और साथ ही वे समय भी बरबाद न करें।
4. सहयोग- बच्चों को व्यक्तिगत तथा सामाजिक रूप से सोच-विचार करने की सुविधा हो। प्रोजेक्ट इस प्रकार से पूरा किया जाये कि बच्चे मानसिक तथा शारीरिक दृष्टि से चेतन्य रहें।
5. उपयोगिता- व्यावहारिक उपयोगिता की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। प्रोजेक्ट हमारी आवश्यकता को पूरा करे। जो अनुभव प्रोजेक्ट से प्राप्त हों, वे व्यावहारिक जीवन में काम आ सकें।
6. चुनौती प्रदत्त – प्रोजेक्ट न तो बहुत आसान और न ही बहुत कठिन होने चाहियें। वे बच्चों की शक्तियों को चुनौती देने वाले हों। यह सर्वमान्य तथ्य है कि बच्चे उन्हीं कार्यों में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं, जो उनकी शक्तियों को चुनौती दें।
7. अनुभव प्रदान- प्रोजेक्ट का चुनाव ऐसा हो कि वह जीवन की विभिन्न प्रक्रियाओं तथा विषयों का आपस में समन्वय करे।
प्रोजेक्ट पद्धति के गुण
1. जीवन से सम्बन्धित – जब शिक्षा व्यावहारिक रूप धारण करती है तो वह जीवन से गुम्फित हो जाती है। बच्चों को ऐसे कार्यक्रम जुटाये जाते हैं, जो उद्देश्य तथा अर्थ- पूर्ण होते हैं। बच्चों को वास्तविक जीवन में आने वाली समस्याओं का परिचय प्राप्त होता है। बच्चे पाठ्यक्रम के विषयों की व्यावहारिक उपयोगिता का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
2. प्रजातन्त्रात्मक जीवन यापन का प्रशिक्षण- यह पद्धति सांझे उद्देश्य के लिये मिलकर कार्य करने के अनेक अवसर जुटाती है। सभी निर्णय प्रजातन्त्रात्मक ढंग से लिये जाते हैं। बच्चे जो कार्य चुनते हैं, उन्हें योजनाबद्ध करके पूर्ण करते हैं उनके विषय में वे अपना मत दे सकते हैं।
3. श्रम की महत्ता – प्रोजेक्ट पद्धति श्रम की महत्ता पर बल देती है। विद्यार्थी अपने हाथों से कार्य करते हैं तथा इस प्रकार वे हर प्रकार के कार्य करने में अभ्यस्त हो जाते हैं। वे स्वयं कार्य करने में श्रम की महानता का अनुभव करते हैं।
4. शिक्षा प्राप्ति के सिद्धान्तों पर आधारित- प्रोजेक्ट पद्धति मनोवैज्ञानिक शिक्षा प्राप्ति के सिद्धान्तों पर आधारित है।
(i) अभ्यास का सिद्धान्त – अभ्यास द्वारा ही शिक्षा स्थायी और प्रभावपूर्ण होती है। प्रोजेक्ट पद्धति में बच्चे क्रियाशीलता द्वारा शिक्षा प्राप्त करते हैं। अतः क्रियाशीलता उन्हें समुचित अभ्यास का अवसर प्रदान करती है।
(ii) तैयारी का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार हम तभी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। जबकि हम इसके लिये तैयार हों। प्रोजेक्ट पद्धति उपयुक्त स्थिति प्रस्तुत करके बच्चों को कार्य करने के लिये तैयार करती है।
(iii) प्रभाव का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त से तात्पर्य यह है कि शिक्षा प्राप्ति तभी सफल तथा प्रभावपूर्ण हो सकती है, जब इस कार्य में बच्चों को सन्तोष तथा आनन्द मिले। जब बच्चे अपने कार्यों को प्रदर्शन करते हैं तो उन्हें अतीव आनन्द प्राप्त होता है।
5. विषयों का समन्वय- प्रोजेक्ट पद्धति पाठ्यक्रम को एकता प्रदान करती है। विषयों को एक-दूसरे से नितान्त भिन्न न समझकर उन्हें एक-दूसरे के पूरक अथवा सहायक समझा जाता है। उनका शिक्षण उद्देश्यपूर्ण कार्यक्रमों द्वारा किया जाता है।
6. समस्या समाधान-मूलक- यह पद्धति रट्टे तथा बहुत अधिक स्मरण कार्य का विरोध करती है। यह बच्चों में चिन्तन तथा तर्क शक्ति का निर्माण करती है।
7. नागरिकता के लिये प्रशिक्षण- यह पद्धति बच्चों में आवश्यक गुण जैसे सहिष्णुता, आत्म निर्भरता, उदारता इत्यादि का विकास करती है।
8. मितव्ययी – अपने ही द्वारा निर्वाचित प्रोजेक्ट पर बच्चे बहुत ही उत्साह तथा खुशी से कार्य करते हैं। वातावरण पूर्णतया स्वतन्त्र होता है और बच्चे भिन्न-भिन्न कार्य करते हुये थकते नहीं।
9. पिछड़े बच्चों की खुशी का साधन- यह पद्धति पिछड़े बच्चों के लिये एक वरदान है, क्योंकि यह उन्हें रचनात्मक कार्य करने की सुविधा प्रदान करती है। ऐसे बच्चे अमूर्त परिभाषाओं पर सोच-विचार नहीं कर सकते। अतः वे रचनात्मक कार्य में व्यस्त रहते हैं।
10. अनुशासन की समस्या का हल – चूँकि बच्चे अपने-अपने कार्य में व्यस्त रहते हैं, अतः उन्हें समाज-विरोधी कार्य करने का समय ही नहीं मिलता।
प्रोजेक्ट पद्धति में दोष
1. असम्बन्धित शिक्षण- एक ही प्रोजेक्ट में सभी विषयों का अध्ययन नहीं हो सकता। बहुत से विषय ऐसे भी हैं, जिनका इस पद्धति द्वारा शिक्षण नहीं हो सकता।
2. अभ्यास की उपेक्षा- यह पद्धति विभिन्न विषयों में निपुणता प्राप्त करने के लिये आवश्यक अभ्यास की उपेक्षा करती है। बच्चों को गणित, अध्ययन, स्पैलिंग तथा ड्राइंग में समुचित अभ्यास करने का पूरा अवसर नहीं मिलता।
3. अप्राकृतिक समन्वय – कभी-कभी अध्यापक प्रोजेक्ट की सीमा को बहुत बढ़ा देते हैं और उन विषयों को भी उससे सम्बन्धित करने का प्रयत्न करते हैं, जिनका कि उससे दूर का भी सम्बन्ध नहीं होता।
4. छोटे बच्चों पर अत्यधिक निर्भरता- बच्चों के चुनाव पर ही निर्भर रहना उचित प्रतीत नहीं होता।
5. स्थानान्तरित बच्चों के लिये अनुपयुक्त- एक बच्चा जो सामान्य स्कूल में पढ़ता वह अपने आपको प्रोजेक्ट पद्धति पर चलाये गये स्कूल के अनुसार नहीं बना सकता और न ही ऐसे स्कूल के बच्चों का स्थानान्तरण ही हो सकता है।
6. यौद्धिक कार्य की उपेक्षा- कहा जाता है कि प्रोजेक्ट पद्धति हाथ के कार्यों को बौद्धिक कार्यों से अधिक महत्व देती है। समालोचक यह तर्क देते हैं कि बच्चों को मॉडल अथवा इसी प्रकार की अन्य चीजें बनाने में ही व्यस्त रखा जाता है।
7. समय-विभाग चक्र की विश्रृंखलता- इस पद्धति में एक ही समय विभाग चक्र का अनुकरण करना बहुत कठिन है। यह स्कूल के सारे कार्यक्रम को विश्रृंखल कर देती है।
8. उपयुक्त पाठ्य पुस्तकों की कठिनाई- प्रोजेक्ट के लिये उपयुक्त पुस्तकों का निर्माण कोई मामूली कार्य नहीं है। इसके अतिरिक्त प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिये आवश्यक सामान बहुत कीमती होता है। यह पद्धति इसलिये सामान्य स्कूलों के अनुकूल नहीं है।
9. शर्मीले बच्चों के लिये अनुपयुक्त- वे बच्चे जो अपने ऊपर उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहते, पीछे रह जाते हैं।
10. सुयोग्य अध्यापकों की कमी- इस पद्धति की सफलता के लिये विद्वान, योग्य तथा प्रसाधन सम्पन्न अध्यापकों की आवश्यकता है। यह पद्धति अध्यापकों पर भारी बोझ तथा उत्तरदायित्व लाद देती है।
उपर्युक्त विवरण के बाद हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि बहुत से दोष तो अस्वाभाविक तथा बिना महत्व के हैं। यह एक रिवाज है कि जब भी कोई नई पद्धति सामने आती है तो अनावश्यक आलोचना या टीका-टिप्पणी की भरमार हो जाती है।
परम्परागत पद्धतियाँ परिवर्तनशील समय में अनुपयुक्त सिद्ध हुई हैं। नये सिद्धान्तों एवं पद्धतियों पर विचार अवश्य होना चाहियें, यदि वे उपयोगी तथा उपयुक्त हों तो उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिये, चाहे वे कतिपय खर्चीली ही क्यों न हों।
प्रोजेक्ट पद्धति के चरण तथा प्रोजेक्ट पद्धति में अध्यापक का स्थान
एक सफल प्रोजेक्ट वही है, जो निश्चित क्रम पर आधारित हो। अध्यापक निम्नलिखित ढंग से प्रोजेक्ट को सफल बना सकता है।
अध्यापक का सबसे पहला कर्त्तव्य यह है कि वे ऐसी अवस्था उत्पन्न कर दे, जिसमें कि बच्चे अपने आप अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिये प्रेरित हों। अध्यापक को चाहिये कि वह बच्चों की रुचियों, योग्यताओं, झुकावों एवं आवश्यकताओं का अध्ययन करता रहे अवस्था प्रस्तुत करने के विभिन्न तरीके हैं। जहाँ तक सम्भव हो, बच्चों के सामने रखी जाने वाली समस्यायें सामाजिक हों। ऐसी समस्यायें बच्चों को सामाजिक प्रशिक्षण बहुत उचित ढंग से करती हैं तथा बच्चों की अधिक संतुष्टि होती है।
अध्यापक चाहे तो बच्चों के साथ विभिन्न रुचिकर विषयों पर बातचीत कर सकता है। विभिन्न दृश्यों की तस्वीरें बच्चों को दिखाई जायें। आसपास के स्थानों का सर्वेक्षण किया जाये। अध्यापक को चाहिये कि वे सब सूत्रों से सूचना प्राप्त करें।
बहुत-से शिक्षा-शास्त्रियों का मत है कि प्रोजेक्ट का चुनाव विद्यार्थियों को स्वयं करना चाहिये। वे यह सोचते हैं कि इससे विद्यार्थियों का उत्प्रेरण होगा और वे जो कुछ करते हैं यदि उसके निर्धारण में उनका हाथ होगा तो वह कार्य उनके लिये रुचिकर होगा।
कुछ शिक्षाशास्त्री यह कहते हैं कि प्रोजेक्ट का चुनाव अध्यापक करे, उनका यह मत है कि विद्यार्थी इस प्रकार केवल वही कार्य करते हैं, जो उनकी पहुँच में हो। विद्यार्थी अपरिपक्व बुद्धि के होते हैं और प्रोजेक्ट में उनका मार्ग दर्शन बहुत आवश्यक है।
फिर भी मध्य मार्ग सबसे उत्तम है। इस योजना के अनुसार ‘उद्देश्य’, ‘योजना’ तथा ‘कार्य करना’ ये सब अध्यापक की देख-रेख में होने चाहियें।
विभिन्न विषयों का प्रोजेक्ट द्वारा समन्वय- एक उदाहरण
‘ग्राम-सर्वेक्षण’ (Village Survey) प्रोजेक्ट द्वारा हम विभिन्न विषयों का समन्वय कर सकते हैं-
1. भूगोल- पानी के स्रोत, जलवायु, फसलों, फलों तथा अन्य उपज का ज्ञान।
2. नागरिक शास्त्र- ग्राम पंचायत, सहकारी स्टोर तथा शिक्षा सम्बन्धी सुविधाओं की जानकारी।
3. गणित- गाँव की नालियों की व्यवस्था, जमीन का माप, परिवार में होने वाले खर्च का ब्योरा, प्रामीण भूमि का क्षेत्रफल कितना भूमि पर उपज होती है तथा प्रति एकड़ कितनी उपज होती है आदि।
4. भाषा- सर्वेक्षण का विस्तृत विवरण।
5. कला सम्बन्धी कार्य- एक आदर्श गाँव का चार्टी आदि द्वारा चित्रण
6. इतिहास – यदि गांव का कोई इतिहास हो तो उसकी जानकारी करवाई जाये। वहाँ के स्मारकों, पुरुषों के निवास स्थान – गुफायें, झोपड़ियाँ, घर इत्यादि-इनकी विभिन्न युगों तथा समयों में क्या स्थिति रही।
7. अर्थशास्त्र – लोगों का व्यवसाय, ग्रामोद्योग, सहकारी समितियों इत्यादि का ज्ञान ।
8. साधारण विज्ञान- ग्राम की स्वास्थ्य स्थिति, पानी की सुविधा, बीमारियों के कारण, ग्राम डिस्पेंसरी आदि की जानकारी ।
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