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भारतीय लोकतन्त्र के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप की विवेचना कीजिए। Discuss the secular character of Indian democracy.
साम्प्रदायिकता ब्रिटिश साम्राज्यवाद की विरासत के रूप में (Communalism as a Legacy of British Raj)
अंग्रेजों ने भारत में विभिन्न सम्प्रदायों में ‘फूट डालो और शासन करो’ (Divide and Rule) की नीति अपनाकर सफलता प्राप्त की। उन्होंने सन् 1919 में देश में ‘साम्प्रदायिक चुनाव क्षेत्र’ को लागू करके देश के विभिन्न सम्प्रदायों में वैमनस्य के बीज बो दिये जिसका परिणाम देश को सन् 1947 में विभाजन के रूप में भुगतना पड़ा तथा हिन्दू-मुस्लिम दंगों के रूप में स्वाधीनता तथा विभाजन के पश्चात् भी भुगतना पड़ रहा है। सन् 1857 के भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रथम युद्ध में मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर भाग लिया था। अन्तिम मुगल बादशाह ने इसका नेतृत्व किया था। अतः ब्रिटिश शासकों ने सन् 1857 के पश्चात् मुसलमानों के उत्पीड़न की नीति अपनायी। सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के स्थान पर हिन्दुओं को प्राथमिकता दी गयी। इसी बीच सर सैय्यद अहमद खाँ ने मुसलमानों का सामाजिक नेतृत्व सँभाला। उन्होंने अंग्रेजों को विश्वास दिलाया कि मुसलमान ब्रिटिश राज्य के हितों के विरुद्ध नहीं हैं। अत: अंग्रेजों ने अपनी नीति में परिवर्तन किया। कांग्रेस की स्थापना के पश्चात् उन्होंने मुसलमानों को संरक्षण देना आरम्भ कर दिया। अंग्रेजों की इस नीति के परिणामस्वरूप हिन्दुओं तथा मुसलमानों के मध्य अविश्वास की ऐसी गहरी खाई बन गयी जिसे पाटा न जा सका। दोनों ही सम्प्रदायों में अविश्वास के कारण ही भारत का विभाजन हुआ। इस प्रकार ब्रिटिश शासक अपने उद्देश्य में सफल रहे।
भारत के नवीन संविधान के अन्तर्गत धर्मनिरपेक्षवाद (Secularism under the new Constitution)
भारत की राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए तथा देश में विभिन्न सम्प्रदायों में सौहार्द्र बनाये रखने के लिए हमारे प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू तथा दूसरे नेताओं ने नये संविधान के अन्तर्गत धर्म निरपेक्षवाद को राष्ट्रीय नीति के रूप में स्थान दिया। संविधान की प्रस्तावना में धार्मिक स्वतन्त्रता की पूरी गारण्टी दी गयी । संविधान की प्रस्तावना को व्यावहारिक रूप देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 27 तथा 28 के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतन्त्रता की गारण्टी दी गयी। अनुच्छेद 25 के अनुसार, “सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य के मार्ग में बाधक न होने पर सभी व्यक्तियों को समान रूप से चिन्तन की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छानुसार धर्म का पालन करने तथा उसका प्रचार करने की स्वतन्त्रता होगी।” (Subject to public order, morality and public health and other provision of Part III of the constitution, all persons are entitled to freedom of conscience, and the Tight to freely profess, practice and propagate religion.” – Article 25) अनुच्छेद 26 के अनुसार, प्रत्येक वर्ग अथवा सम्प्रदाय को अपने धार्मिक तथा धर्मार्थ संस्थाएँ चला की नन्त्रता होगी। इन संस्थाओं का काम चलाने के लिए चल-अचल सम्पत्ति को प्राप्त करने की भी पूर्ण स्वतन्त्रता होगी। अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष को कर देने के लिए विवश नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र (Secular Nation) बनाने के लिए पर्याप्त व्यवस्थाएँ की हैं।
हमारे धर्मनिरपेक्षवाद का स्वरूप (Nature of our Secularism)
भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद का स्वरूप सकारात्मक है- भारत की साम्प्रदायिकता तथा धार्मिक विविधता को देखते हुए हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने धर्मनिरपेक्षवाद को राष्ट्रीय नीति के रूप में घोषित किया। यदि हमारे देश में किसी धर्म विशेष को राज्य धर्म के रूप में घोषित कर दिया जाता है तो इससे निःसन्देह हमारी राष्ट्रीय एकता को खतरा पहुँचता। धर्मनिरपेक्षवाद को व्यावहारिक रूप देने के लिए ब्रिटिश शासकों द्वारा लागू की गयी साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों की योजना को समाप्त कर दिया गया। सार्वजनिक मताधिकार के आधार पर समस्त देश में संयुक्त निर्वाचित क्षेत्रों की व्यवस्था की गयी।
हमारे धर्मनिरपेक्षवाद के अन्तर्गत धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति उदार नीति को अपनाया गया है तथा उनके अधिकारों की रक्षा की गारण्टी दी गयी है। इन धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के साथ भेदभाव न हो इसलिए केन्द्रीय संसद तथा राज्यों के विधान मण्डलों में इनके प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए इनके स्थान सुरक्षित कर दिये गये हैं। केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों की सेवाओं में भी इनके स्थान सुरक्षित कर दिये गये हैं। हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. स्व. राधाकृष्णन ने हमारे धर्मनिरपेक्षवाद के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है ” भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में सम्बोधित किया जाता है तो इसका यह अभिप्राय नहीं है कि हम अदृश्य शक्ति की वास्तविकता से इनकार करते हैं अथवा जीवन में धर्म की उपयोगिता को अस्वीकार करते हैं अथवा धर्म विरोधी कार्यों में प्रोत्साहन देते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि धर्मनिरपेक्षवाद स्वयं सकारात्मक धर्म हो गया अथवा राज्यों में स्वयं दैवी विशेषाधिकार को धारण कर लिया है। यद्यपि सर्वोच्च शक्ति के अस्तित्व में विश्वास भारतीय परम्परा का बुनियादी सिद्धान्त है तथापि भारत में राज्य स्वयं का किसी धर्म के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं करेगा और न किसी धर्म विशेष से नियन्त्रित ही होगा।”
श्री हरिविष्णु कामथ ने जो स्वयं संविधान सभा के सदस्य थे तथा जिन्होंने संविधान सभा की बहसों में महत्वपूर्ण भाग लिया था, धर्मनिरपेक्ष राज्य की व्याख्या करते हुए कहा है-“जब मैं यह कहता हूँ कि राज्य को किसी धर्म विशेष से तादात्म्य स्थापित नहीं करना चाहिए तो मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि राज्य को धर्म विरोधी अथवा अधार्मिक होना चाहिए। हमने निश्चित रूप से भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया है। मेरे विचार में धर्मनिरपेक्ष राज्य न तो ईश्वर विहीन राज्य है और न धर्म विरोधी अथवा गैर धार्मिक राज्य है।” (“When I say that a state should not identify itself with any particular religion, I don’t mean to say that a state should be anti-religious or irreligious. We have certainly declared India to be a secular state; but to my mind, a secular state is neither a Goddess state nor an irreligious or antireligious state.” –Prof. H. V. Kameth)
भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद के स्वरूप को श्री लक्ष्मीकान्त मिश्रा ने स्पष्ट करते हुए कहा है, “धर्मनिरपेक्ष राज्य से मेरा अभिप्राय यह है कि राज्य धर्म अथवा सम्प्रदाय के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करेगा और न किसी धर्म विशेष को संरक्षण ही प्रदान करेगा। दूसरे शब्दों में राज्य के मामलों में, किसी धर्म विशेष को प्राथमिकता नहीं दी जायेगी। मैं समझता हूँ कि धर्मनिरपेक्ष राज्य का यही मूल तत्त्व है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे धर्मनिरपेक्षवाद का स्वरूप सकारात्मक एवं रचनात्मक है न कि नकारात्मक ।
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