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भारतीय संसद की शक्तियाँ अधिकार | Powers of Indian Parliament in Hindi

भारतीय संसद की शक्तियाँ अधिकार | Powers of Indian Parliament in Hindi
भारतीय संसद की शक्तियाँ अधिकार | Powers of Indian Parliament in Hindi

भारतीय संसद के अधिकारों पर निबन्ध लिखिए।

भारतीय संसद की शक्तियाँ अधिकार

भारतीय संसद को व्यापक अधिकार प्राप्त है, जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

1. विधायी अधिकार- संसद का सबसे प्रमुख कार्य राष्ट्रीय हितों को दृष्टि में रखते, हुए कानूनों का निर्माण करना है। संसद को संघीय सूची के 97 और समवर्ती सूची के 47 विषयों पर कानून निर्माण का अधिकार प्राप्त है। यद्यपि समवर्ती सूची के विषयों पर संघीय संसद और राज्य विधानमण्डल दोनों के द्वारा ही कानूनों का निर्माण किया जा सकता है किन्तु इन दोनों द्वारा निर्मित कानूनों में पारस्परिक विरोध होने की स्थिति में संसद द्वारा निर्मित कानून ही मान्य होंगे। संसद के द्वारा अवशेष विषयों पर भी कानून का निर्माण किया जा सकता है, क्योंकि संविधान के द्वारा अवशेष शक्तियां संघ को सौंपी गयी है। इसके अतिरिक्त सभी संघीय क्षेत्रों के लिए संसद को सदैव ही सभी विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है।

संविधान के द्वारा संकटकाल के सम्बन्ध में विशेष व्यवस्था की गयी है। संकटकाल की घोषणा के समय संसद राज्यों के लिए राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है। इन सबके अतिरिक्त सामान्य काल में भी कुछ ऐसी परिस्थितियां हैं जबकि संसद के द्वारा राज्य सूची के विषयों पर भी कानून का निर्माण किया जा सकता है। प्रथम, अनुच्छेद 252 के अनुसार, जब कभी दो या अधिक राज्यों के विधानमण्डल प्रस्ताव पास करके संसद से राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो संसद उन राज्यों के सम्बन्ध में ऐसा कर सकती है। द्वितीय, अनुच्छेद 249 के अनुसार, जब कभी राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास करे कि राष्ट्रीय हित में संसद को राज्य-सूची के किसी विषय पर कानून बनाना चाहिए।

2. संविधान के संशोधन का अधिकार- संविधान के संशोधन के सम्बन्ध में संसद को महत्वपूर्ण शक्ति प्राप्त है। संविधान के अनुसार संविधान में संशोधन का प्रस्ताव संसद में ही प्रस्तावित किया जा सकता है, किसी राज्य के विधानमण्डल में नहीं। संसद के दोनों सदनों द्वारा संविधान के संशोधन का कार्य किया जाता है और संविधान के अधिकांश भाग में अकेली संसद के द्वारा ही या तो सामान्य बहुमत से या पृथक्-पृथक् दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत से परिवर्तन किया जा सकता है। संविधान की केवल कुछ ही व्यवस्थाएं ऐसी हैं जिनमें संशोधन के लिए भारतीय संघ के आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति आवश्यक है।

सन् 1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ विवाद में जो निर्णय दिया था, उससे संसद की संविधान में संशोधन की शक्ति सीमित हो गयी थी क्योंकि इस विवाद के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा था कि संसद ऐसा कोई विधेयक पारित नहीं कर सकती. जो मूल अधिकारों को छीनता या कम करता हो। लेकिन 1971 में संविधान का 24वां संशोधन विधेयक पारित हुआ जिसके अनुसार संसद को यह अधिकार होगा कि वह संविधान के किसी भी उपबन्ध में (जिनमें मूल अधिकार भी सम्मिलित हैं) संशोधन कर सके। 24वें संवैधानिक संशोधन में यह भी कहा गया है कि जब कोई संविधान संशोधन विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित होकर राष्ट्रपति के समक्ष उनकी अनुमति के लिए रखा जाय, तो उन्हें उस पर अपनी अनुमति दे देनी चाहिए। अब राष्ट्रपति भी संसद द्वारा विधिवत् रूप से पारित किये गये संविधान विधेयक को अस्वीकृत नहीं कर सकता है।

इस प्रकार संसद को संविधान में संशोधन में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है; लेकिन संसद को यह शक्ति प्राप्त नहीं है कि वह संविधान के मूल ढांचे को बदल सके या नष्ट कर सके।

3. वित्तीय अधिकार- अमरीकी स्वाधीनता संग्राम के समय से ही ऐसा माना जाता है कि ‘जनता के धन पर जनता के प्रतिनिधियों को ही पूर्ण अधिकार प्राप्त होना चाहिए।” संविधान द्वारा स्थापित प्रजातन्त्रीय व्यवस्था में इस विचार को पूर्णतया स्वीकार किया गया है। जनता के प्रतिनिधि होने के नाते भारतीय संसद को राष्ट्रीय वित्त पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है और प्रतिवर्ष वित्तमंत्री द्वारा प्रस्तावित बजट (राष्ट्रीय आय-व्यय का लेखा) जब तक संसद (लोकसभा) से स्वीकार न करा लिया जाय उस समय तक आय-व्यय से सम्बन्धित कोई कार्य नहीं किया जा सकेगा। लोकसभा के द्वारा बजट में कटौती की जा सकती है, जिसका आशय शासन के प्रति अविश्वास होता है। संसद ही अनुमान और सार्वजनिक लेखा समिति नियुक्त करती है तथा नियन्त्रक व महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन पर विचार कर उचित कार्यवाही करती है।

4. प्रशासनिक अधिकार- भारतीय संविधान के द्वारा संसदात्मक व्यवस्था की स्थापना की गयी है, अतः संविधान के अनुसार संघीय कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल संसद ( व्यवहार में लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी होता है । मन्त्रिमण्डल केवल उसी समय तक अपने पद पर रहता है, जब तक कि उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त हो। संसद अनेक प्रकार से कार्यपालिका पर नियन्त्रण रख सकती है।

(i) संसद सदस्य कार्यपालिका के सदस्यों से सरकारी नीतियों तथा कार्यों के सम्बन्ध में प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं तथा प्रशासन की आलोचना कर सकते हैं।

(ii) संसद ‘कामरोको प्रस्ताव’ के आधार पर सरकारी नीतियों और कार्यों की त्रुटियों को प्रकाश में ला सकती है।

(iii) संसद सरकारी विधेयकों को स्वीकार करके, मन्त्रियों के वेतन में कटौती का प्रस्ताव स्वीकार करके अथवा किसी सरकारी विधेयक में कोई ऐसा संशोधन करके, जिससे सरकार सहमत न हो, अपना विरोध प्रदर्शित कर सकती है।

(iv) संसद के द्वारा बजट में कटौती की जा सकती है। बजट में कटौती की जाने पर मन्त्रिमण्डल को पद त्याग करना होता है।

इन सबके अतिरिक्त, संसद को मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास करके उसे पदच्युत करने का अधिकार प्राप्त हैं। इस प्रकार संसद संघ की वास्तविक कार्यपालिका अर्थात् मन्त्रिमण्डल पर प्रभावशाली रूप में नियन्त्रण रखती है।

5. निर्वाचन सम्बन्धी अधिकार- अनुच्छेद 54 के द्वारा संसद को कुछ निर्वाचन सम्बन्धी शक्तियां प्रदान की गयी हैं। संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए गठित निर्वाचक मण्डल के अंग हैं। अनुच्छेद 66 के अनुसार संसद सदस्य दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में उप-राष्ट्रपति का निर्वाचन करते हैं।

6. राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव न उसे पदच्युत का अधिकार- संसद के दोनों सदन संविधान द्वारा निर्धारित विशेष प्रक्रिया के आधार पर राष्ट्रपति के विरुद्ध महाभियोग का प्रस्ताव पास कर उसे पदच्युत कर सकते हैं। इस प्रकार ये दोनों सदन सर्वोच्च या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को अक्षमता व दुराचरण के आधार पर पदच्युत करने का प्रस्ताव पास कर सकते हैं। इस प्रकार का प्रस्ताव प्रत्येक सदन में दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित होना चाहिए। उप-राष्ट्रपति को हटाने के लिए राज्यसभा द्वारा पारित प्रस्ताव लोकसभा द्वारा अनुमोदित होना चाहिए।

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Anjali Yadav

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