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भारत में जातिवाद (Castism in India)
भारत का सामाजिक ढाँचा जाति प्रधान है। वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रगति के बावजूद हमारा सामाजिक ढाँचा जातियों के वर्गीकरण पर टिका हुआ है। रूढ़ियाँ, परम्पराएँ तथा धार्मिक आस्थाएँ भारतीय समाज का महत्वपूर्ण अंग हैं। हमारे समाज का जो वर्तमान जाति-प्रधान ढाँचा है, वह शताब्दियों की देन है।
वैदिक काल में समाज का आधार जाति न होकर वर्ण था। वर्ण से अर्थ पेशे से होता था। शनैः शनैः वर्ण व्यवस्था का स्थान जाति व्यवस्था ने ले लिया।
जाति व्यवस्था की विशेषताएँ (Main Attributes of Caste System)
जाति व्यवस्था के निम्नलिखित प्रमुख लक्षण हैं-
(1) भारतीय समाज का विजातीय स्वरूप (Heterogeneous character of Indian Society)- भारतीय सामाजिक व्यवस्था का प्रमुख लक्षण इसका विजातीय स्वरूप है। हिन्दू समाज में 4 प्रमुख जातियों के अलावा अनेकों उप-जातियाँ पायी जाती हैं। इससे समाज की सजातीयता नष्ट हुई। कोई भी समाज जिसमें विजातीयता होगी, विघटन की ओर अधिक शीघ्रता से उन्मुख होगा। यही कारण है कि वर्तमान दौर में भारतीय समाज विघटन की प्रक्रिया से गुजर रहा है।
(2) जाति प्रथा का धार्मिक आधार (Religious basis of Caste System) – हमारी जाति प्रथा की एक उल्लेखनीय विशेषता इसका धार्मिक आधार है। वैदिक काल में जब इसका आरम्भ हुआ तो इसका आधार आर्थिक था। पेशे के आधार पर वर्ण अथवा जातियाँ निर्धारित की गयी थीं। शनैः शनैः इस व्यवस्था की पुष्टि के लिये धर्म ग्रन्थों का सहारा लिया जाने लगा। धर्म ग्रन्थों में कहा गया कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति हुई। पेट से वैश्य की उत्पत्ति हुई। हाथों से क्षत्रिय उत्पन्न हुए तथा पैरों से शूद्रों (सेवकों) का जन्म हुआ। इस प्रकार जाति प्रथा को हिन्दू समाज में अधिक दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये इसे धर्म का सहारा दिया गया।
(3) जाति-प्रथा का ढाँचा देश भर में एक समान नहीं है (The structure of caste system is not uniform all over the Country) – भारतीय जाति प्रथा की विशेषता यह है कि देश के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न जातियाँ पायी जाती हैं। उदाहरण के लिए, भूमिहार बिहार में, बोक्कालिंग तथा लिंगायत कर्नाटक में, पाटीदार गुजरात में, रेड्डी तथा कामा आंध्र में प्रमुख रूप से पायी जाने वाली जातियाँ हैं।
(4) जातिगत निष्ठा दलीय निष्ठा से अधिक प्रबल (Caste loyalty is more strong then Party loyalty)- भारतीय राजनीति में सामान्य मतदाता जातिवाद की भावना से इतना अधिक ग्रस्त है कि वह मतदान करते समय न तो दल के दृष्टिकोण से सोचता है और न ही उम्मीदवार की योग्यता के दृष्टिकोण से। प्रायः सभी लोकसभायी अथवा विधानसभायी क्षेत्रों में सभी मतदाता अपनी-अपनी जाति के उम्मीदवारों को वोट देते हैं। भारतीय राजनीति में यह प्रवृत्ति खतरनाक तथा लोकतन्त्र के लिये घातक है।
(5) प्रत्येक जाति की अपनी परम्पराएँ, नियम तथा धार्मिक संस्कार होते हैं (Each Caste has its own customs, rules and rituals)- भारतीय समाज में पायी जाने वाली जाति प्रथा की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि प्रत्येक जाति की अपनी परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज होते हैं। जाति का प्रत्येक सदस्य इन रीति-रिवाजों का पालन करता है। प्रत्येक जाति के धार्मिक संस्कार भी अलग-अलग होते हैं। इन जातियों में विवाह तथा अन्य संस्कारों की विधियों में भी भिन्नता पायी जाती है।
प्रो. घुरिये (Ghurye) ने जाति व्यवस्था की छ: विशेषताएँ बतायी हैं, जो इस प्रकार हैं-
(1) भारत में जाति ऐसा समुदाय है जिसका अपना विकसित जीवन है और इसकी सदस्यता जन्म से निश्चित होती है।
(2) भारत का प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामाजिक जनता है और जातियों के पदसोपान में ब्राह्मण सबसे ऊपर माना जाता है।
(3) जातियों के आधार पर खान-पान और सामाजिक आदान-प्रदान के प्रतिबन्ध लगे रहते हैं।
(4) गाँवों तथा शहरों में जाति के आधार पर पृथकता की भावना बनी रहती है।
(5) कुछ जातियाँ कतिपय विशेष प्रकार के व्यवसायों को अपना पुश्तैनी अधिकार समझती हैं।
(6) जातियों की परिधि में ही वैवाहिक आदान-प्रदान होता है। जातियाँ कई उप-जातियों में विभक्त होती हैं। उप-जातियों में भी वैवाहिक परिसीमाएँ हैं।
प्रो. रजनी कोठारी के राजनीति में जाति सम्बन्धी विचार निम्न हैं-
(1) आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में भाग लेने के कारण पहले तो जाति प्रथा पर पृथकता की प्रवृत्ति का प्रभाव पड़ा, बाद में जाति भावना का सामंजस्य हुआ और इसने राजनीतिक संगठन में सहायता दी।
(2) आधुनिक राजनीति में भाग लेने से लोगों की दृष्टि में परिवर्तन हुआ और उनकी यह समझ में आ गया कि आज के युग में केवल जाति और सम्प्रदाय से काम नहीं चल सकता।
(3) जहाँ जाति बड़ी होती है, वहाँ भी उसमें एकता नहीं रहती, उसमें उप-जातियों के भेद होते हैं और छोटी जातियाँ तो अपने बल पर चुनाव भी नहीं जीत सकती हैं। यदि कोई प्रत्याशी अपनी ही जाति का पक्ष लेता है तो दूसरी जातियाँ उसके विरुद्ध हो जाती हैं इसलिये चुनाव की राजनीति में अनेक जातियों का गुट बनाना पड़ता है।
(4) राजनीति में आने के कारण जाति की भावना ढीली पड़ जाती है और अनेक नयी निष्ठाओं का उदय होता है।
(5) आजकल राजनीति में जातिवाद और सम्प्रदायवाद का जोर बढ़ने की शिकायत की जाती है। ऐसा समझा जाता है कि शिक्षा प्रसार, शहरों के विस्तार एवं औद्योगीकरण के कारण सम्प्रदाय और जाति के बन्धन ढीले पड़ रहे थे, वे चुनाव की राजनीति के कारण फिर से जोर पकड़ रहे हैं और इससे देश में फूट बढ़ेगी जिससे धर्म-निरपेक्ष लोकतन्त्र का ढाँचा खतरे में पड़ जायेगा किन्तु प्रो. कोठारी का मानना है कि वास्तव में जाति और राजनीति के मिश्रण से दूसरे ही परिणाम निकलते हैं। बजाय राजनीति पर जाति के हावी होने के, जाति का राजनीतिकरण हो जाता है। (It is not politics that gets caste ridden, It is caste that gets politilisation) राजनीति ने जाति को लीक से हटाकर नया सन्दर्भ दे दिया, जिससे उसका पुराना रूप बदल रहा है।
(6) आधुनिकतावादी नेता जाति-पाँति पर भले ही नाक-भौं सिकोड़ें, परन्तु इसके द्वारा राजनीतिक शक्ति उन वर्गों या समूहों के हाथ में पहुँच सकी, जो अब तक उससे वंचित थे।
(7) जाति के आधार पर संघ और संगठन बनते हैं, जैसे-कायस्थ सभा, क्षत्रिय संघ आदि सब मिलाकर जातीय संगठनों ने भारत की राजनीति में वही भाग लिया है जो पश्चिमी देशों में विभिन्न हितों व वर्गों के संगठनों ने।
(8) जातियों और सम्प्रदायों के राजनीति में भाग लेने के फलस्वरूप सामूहिक या राष्ट्रीय भावना का उदय हुआ है और उनकी पृथकता कम होकर उनका राजनीतिक एकीकरण हुआ|
भारतीय राजनीति पर जाति का प्रभाव (Impact of Caste on Indian Politics)
राजनीति को प्रभावित करने में जातीयतावादी राजनीति की भूमिका को निम्नानुसार विश्लेषित किया जा सकता है-
(1) निर्वाचन परिणामों को प्रभावित करना- भारत के सभी निर्वाचनों में जातीयतावाद की भूमिका रही है और इसने निर्वाचन परिणामों को प्रभावित किया है। यद्यपि सन् 1977, 1980 और 1984 के संसदीय निर्वाचनों में जातिवादी राजनीति को गहरा धक्का लगा और इसका प्रभाव नगण्य ही रहा, लेकिन सन् 1989 और 1991 और आगे के संसदीय चुनाव तथा सन् 2003 के विधानसभा चुनावों में इसका प्रभाव बढ़ा। में
(2) जाति की महत्वपूर्ण भूमिका– सन् 1977 के पश्चात् श्री चरणसिंह के नेतृत्व में देश की पिछड़ी जातियाँ उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा में बड़ी तेजी के साथ शक्ति पुँज बनकर सामने आयीं। जाट, अहीर, गूजर, यादव, लोधा और कुर्मी जातियों की राजनीति में पहचान हुई। सर्वश्री रामनरेश यादव, मुलायम सिंह यादव, चौधरी देवीलाल और स्व. कर्पूरी ठाकुर इन जातियों के प्रमुख प्रवक्ता बने। वर्तमान में कांशीराम, मुलायम सिंह यादव और लालूप्रसाद यादव, मायावती, रामविलास पासवान, अजीत जोगी पिछड़ी जातियों के मुख्य नेता हैं।
(3) मन्त्रि-परिषद के गठन को भी प्रभावित करना- केन्द्र और राज्यों में मन्त्रिमण्डल का निर्माण करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखा जाता है कि इसमें सभी प्रमुख जातियों का प्रतिनिधित्व हो जाये।
(4) प्रशासनिक ढाँचे पर दबाव-प्रशासनिक ढाँचे और इसकी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने में भी जातिवादी राजनीति की मुखरित भूमिका रहती है। अनेक बार जातिगत हितों की पूर्ति करने के लिए भी प्रशासनिक निर्णय लिये जाते हैं।
(5) हिंसात्मक गतिविधियों का उदय- जातीयता के रोग से हिंसात्मक घटनाएँ भी घटित हुई हैं। बिहार की राजनीति इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
(6) आरक्षण व जातिगत द्वेष- आरक्षण की राजनीति ने भी जातिगत विद्वेष को भड़काया है। गुजरात का आरक्षण विरोधी हिंसक आन्दोलन इसका प्रमुख उदाहरण है। सन् 1990 में मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा के बाद भी देश में जगह-जगह इसके विरोध में हिंसक घटनाएँ हुईं।
(7) देश के सभी राजनीतिक दलो ने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिये जातिवादी राजनीति का सहारा लिया है।
जातिवाद की राजनीति को समाप्त करने के लिये सुझाव (Suggestions which can lead to the liquidation of the role of Castism in Politics)
स्वतन्त्रता के 56 वर्ष बाद आज भी हमीरी राजनीति जातिवाद से ग्रसित है। इसका मुख्य कारण हमारे सामाजिक ढाँचे का जाति-व्यवस्था पर आधारित होना है। राजनीति में जाति की इस निर्णायक भूमिका के कारण राष्ट्रीय हित तथा अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे पिछड़ जाते हैं तथा प्रत्येक समस्या को जाति के नजरिये से देखा जाता है यह लोकतन्त्र के लिये खतरनाक है। जातिवाद को निम्नलिखित उपायों द्वारा समाप्त किया जाना सम्भव है-
(1) सरकार को जातिवाद के आधार पर स्कूलों, कॉलेजों, सरकारी नौकरियों तथा अन्य क्षेत्रों में आरक्षण को समाप्त कर देना चाहिये। आरक्षण का आधार आर्थिक स्थिति होना चाहिये ।
(2) जातियों के नाम पर चलने वाली समस्त शिक्षण संस्थाओं के आगे से जाति बोधक नाम हटा देने चाहिये तथा इनके प्रबन्ध मण्डलों में जाति विशेष के प्रतिनिधित्व को समाप्त करना चाहिये।
(3) सरकारी मान्यता प्राप्त सार्वजनिक संस्थाओं में यह नियम बना देना चाहिये कि जो लोग जाति बोधक नाम का प्रयोग करें उन्हें इन संस्थाओं में प्रवेश नहीं देना चाहिये।
(4) जातियों के नाम पर गठित संस्थाओं (ब्राह्मण सभा, वैश्य सभा, त्यागी सभा आदि) पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाना चाहिये ।
(5) सरकार को चाहिये कि वह ऐसे पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन पर रोक लगा दे जो जातिवाद को उभारने में सहायक हों।
निष्कर्ष (Conclusion) – स्वतन्त्रता के पश्चात् के 56 वर्षों में राजनीति में जातिवाद को बढ़ावा मिला है। भले ही सभी चोटी के नेता जोरदार शब्दों में जातिवाद की निन्दा करें। परन्तु चुनावों में जातीय भावनाओं को उभारने से कोई नहीं चूकता। जाति के अत्यधिक राजनीतिक अभिव्यंजन के कारण राष्ट्रीय हित तथा मुद्दे पिछड़ जाते हैं। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि लोग जातीय निष्ठाओं को त्यागकर राष्ट्रीय दृष्टिकोण को अपनायें। यह तभी सम्भव है जब सभी राजनीतिक दल इस लक्ष्य के लिये ईमानदारी से संयुक्त प्रयास करें तथा इस विषय पर आम सहमति का निर्माण करें।
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