मूलप्रवृत्तियों के वर्गीकरण तथा रूप परिवर्तन को बताइए। मूलप्रवृत्तियों का शिक्षा में क्या महत्व है?
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मूलप्रवृत्तियों का वर्गीकरण (Classification of Instincts)
डेवर, वुडवर्थ, थार्नडाइक (Drever, Woodworth, Thorndike) आदि अनेक विद्वानों ने मूलप्रवृत्तियों का वर्गीकरण किया है। इन सब में McDougall का वर्गीकरण मौलिक और सर्वमान्य है। उसने निश्चित शारीरिक क्रियाओं के आधार पर 14 मूलप्रवृत्तियों की सूची दी है और प्रत्येक मूलप्रवृत्ति से सम्बद्ध एक संवेग बताया है, जैसे-
मूलप्रवृत्ति | सम्बद्ध संवेग |
1. युयुत्सा, युद्धप्रियता : (Combat)
2. शिशु-रक्षा : (Parental) 3. काम ( Sex) 4. आत्महीनता : (Self-Abasement) 5. सामूहिकता : (Gregariousness) 6. संचय, संग्रह : (Acquisition) 7. हास : (Laughter) 8. पलायन, भागना : (Escape) 9. निवृत्ति, अप्रियता : (Repulsion) 10. संवेदना, शरणागति : (Appeal) 11. जिज्ञासा, कुतूहल : (Curiosity) 12. आत्म-प्रदर्शन: (Self-Assertion) 13. भोजनान्वेषण : (Food Seeking) 14. रचना : (Construction) |
1. क्रोध: (Anger)
2. वात्सल्य : (Tender Emotion) 3. कामुकता : (Lust) 4. अधीनता की भावना : (Feeling of Subjection) 5. एकाकीपन : (Loneliness) 6. अधिकार की भावना : (Feeling of Ownership) 7. आमोद : (Amusement) 8. भय : (Fear) 9. घृणा : (Disgust) 10. कष्ट : (Distress) 11. आश्चर्य : (Wonder) 12. श्रेष्ठता की भावना : (Feeling of Superiority) 13. भूख : (Appetite) 14. रचना का आनन्द : (Feeling of Creativeness ) |
मूलप्रवृत्तियों का रूप परिवर्तन (Modification of Instincts)
रॉस के अनुसार- “मूलप्रवृत्तियाँ चरित्र का निर्माण करने के लिए कच्चा माल हैं और शिक्षक को अपने सब कार्यों में उनके प्रति ध्यान देना आवश्यक है।”
“The instincts are the raw material of character, and throughout his task the educator must (deal with them.” -Ross
शिक्षक इस कच्चे माल का रूप परिवर्तन करके ही बालकों के चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है। इस कार्य में वह निम्नलिखित विधियों अथवा सिद्धान्तों की सहायता ले सकता है-
1. प्रयोग न करने का सिद्धान्त (Principle of Disuse) – इस सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि प्रयोग न करने से मूलप्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं (Instincts die through disuse) । उदाहरणार्थ, यदि बालक में लड़ने की मूलप्रवृत्ति है, तो उसे ऐसे वातावरण में रखा जा सकता है, जहाँ उसे लड़ने का अवसर न मिले। परिणामस्वरूप, कुछ समय के बाद उसकी लड़ने की प्रवृत्ति नष्ट हो सकती है।
2. सुख व दुःख का सिद्धान्त (Principle of Pleasure and Pain)- इस सिद्धान्त के अनुसार, सुख और दुःख के द्वारा मूलप्रवृत्तियों में परिवर्तन किया जा सकता है। उदाहरणार्थ- यदि बालक के अनुचित मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार को दुःखद अनुभवों से सम्बन्धित कर दिया जाए, तो वह उनको नहीं दोहराता है। वैलेनटीन (Valentine) के अनुसार “हममें सुखद कार्यों को जारी रखने और दुःखद कार्यों से बचने की प्रवृत्ति होती है।”
3. दमन का सिद्धान्त (Principle of Suppression) – रैक्स एवं नाइट (Rex and Knight) के अनुसार- “दमन के सम्बन्ध में वास्तविक तथ्य यह है कि हम मूलप्रवृत्ति का अनुभव तो करते हैं, पर हम उसको प्रकट नहीं होने देते हैं। “ माता-पिता और शिक्षक, बालकों की मूलप्रवृत्तियों को दमन करने के लिए दण्ड, डाँट-फटकार या कठोर नियन्त्रण का प्रयोग करते हैं। इस विधि से मूलप्रवृत्ति कुछ ही समय के लिए शान्त होती है और अवसर मिलने पर फिर उमड़कर घातक सिद्ध हो सकती है; उदाहरणार्थ दमन की हुई संचय की प्रवृत्ति-चोरी, डाका, लूट-मार आदि का रूप धारण कर सकती है।
4. विरोध का सिद्धान्त (Principle of Opposition) – इस सिद्धान्त का अभिप्राय है कि किसी मूलप्रवृत्ति के जाग्रत होने पर उसके विरोध में किसी दूसरी मूलप्रवृत्ति को उत्तेजित कर देना चाहिए। ऐसा करने से पहली प्रवृत्ति अपने आप ही निर्बल हो जाती है; उदाहरणार्थ – काम प्रवृत्ति के प्रबल होने पर निवृत्ति (Repulsion) की प्रवृत्ति को जायत कर देने से काम प्रवृत्ति स्वयं ही शिथिल हो जाती है।
5. शोधन का सिद्धान्त (Principle of Sublimation) – ‘शोधन’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए रॉस (Ross) ने लिखा है—“मूलप्रवृत्ति को अपने मौलिक लक्ष्य से उच्चतर सामाजिक और वैयक्तिक लक्ष्य की ओर मार्गान्तरित करने की प्रक्रिया को शोधन कहते हैं।” इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि ‘शोधन’ एक प्रकार का ‘मार्गान्तीकरण’ है। दोनों में अन्तर यह है कि ‘मार्गान्तीकरण’ में मूलप्रवृत्ति की दशा तो बदल जाती है, पर उसके वास्तविक रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है। ‘शोधन’ में दिशा बदलने के साथ-साथ मूलप्रवृत्ति का रूप भी बदल जाता है। साथ ही, उसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार होती है कि व्यक्ति और समाज दोनों का हित होता है। उदाहरण के लिए, काम-प्रवृत्ति को परिष्कृत करके काव्य, चित्रकला आदि किसी रचनात्मक कार्य में उपयोग किया जा सकता है। कालिदास और तुलसीदास ने अपनी काम प्रवृत्ति का शोधन करके काव्य के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की।
6. निषेध या निरोध का सिद्धान्त (Principle of Inhibition) – ‘निषेध’ का साधारण अर्थ है–’प्रतिबन्ध’ या ‘रुकावट’। इस विधि का प्रयोग मूलप्रवृत्तियों की क्रियाशीलता को रोकने के लिए किया जाता है; उदाहरणार्थ-काम-प्रवृत्ति की क्रियाशीलता को रोकने के लिए किशोरों और किशोरियों को एक-दूसरे से अलग रखा जा सकता है। इस विधि के सम्बन्ध में गेट्स एवं अन्य (Gates and Others) ने लिखा है— “निरोध में प्रवृत्ति का सचेत रूप से अनुभव किया जाता है और कार्य रूप में व्यक्त न होने देने के लिए सचेत रूप से रोका जाता है।”
7. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (Principle of Freedom)– ए० एस० नील (A. S. Neill) ने अपनी पुस्तक “The Dreadful School” में मूलप्रवृत्तियों को रूपान्तरित करने के लिए विद्यालय में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता दिए जाने पर बल दिया है। उसका यह सिद्धान्त सर्वमान्य नहीं है, क्योंकि एक बालक की स्वतन्त्रता का दूसरे बालक की स्वतन्त्रता में बाधक सिद्ध होना अनिवार्य है।
8. मार्गान्तीकरण का सिद्धान्त (Principle of Redirection) – इस सिद्धान्त का अर्थ है-मूलप्रवृत्ति की क्रियाशीलता को अच्छे कार्य या दिशा की ओर मोड़ना; उदाहरणार्थ- बालक की लड़ने की मूलप्रवृत्ति को व्यर्थ में लड़ाई-झगड़ा करने – की दिशा से हटाकर समाज सेवा और दीन-दुःखियों की रक्षा करने की दिशा में मोड़ा जा सकता है। इस विधि की सराहना करते हुए एविल (Aveill) ने लिखा है-“बालक की सहायता करने की सबसे सन्तोषजनक विधि उसकी मूलप्रवृत्तियों को मार्गान्तीकरण द्वारा प्रोत्साहित करना है।”
मूलप्रवृत्तियों का शिक्षा में महत्व (Importance of Instincts in Education)
शिक्षा का उद्देश्य मानव व्यवहार में संशोधन करना है। मूलप्रवृत्तियाँ व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार की मूल स्रोत है। शिक्षा के क्षेत्र में मूलप्रवृत्तियों का विशेष महत्व इसलिए है कि यह उनमें संशोधन कर सामाजिक मान्यता प्रदान करती हैं।
रॉस के अनुसार- “मूलप्रवृत्तियाँ व्यवहार के अध्ययन के लिए अति आवश्यक हैं। अतः शिक्षा-सिद्धान्त और व्यवहार में उनका बहुत अधिक महत्व है।”
“Instincts are fundamentally important in the study of behaviour, and therefore they are of profound consequence in education theory and practice.” -Ross
मूलप्रवृत्तियों के महत्व का मुख्य कारण यह है कि वे शिक्षक और छात्र दोनों की विभिन्न प्रकार से सहायता करती हैं, जैसे-
1. रुचि व रुझान जानने में सहायता (Helpful in Interest and Aptitude) – बालकों की मूलप्रवृत्तियों उनकी रुचियों व रुझानों की संकेत-चिन्ह हैं। शिक्षक को उनकी पूरी जानकारी होनी आवश्यक है। यह जानकारी उसे पाठ्य-विषयों और शिक्षण विधियों का चुनाव करने में सहायता दे सकती है।
2. प्रेरणा देने में सहायता (Helpful in Motivation) – शिक्षक, बालकों की मूलप्रवृत्तियों का प्रयोग करके उनको नए विचारों को ग्रहण करने की प्रेरणा दे सकता है। इस विधि को अपनाकर वह अपने शिक्षण और शिक्षा प्रक्रिया को सफल बना सकता है। इसका कारण बताते हुए एविल (Aveill) ने लिखा है- “मूलप्रवृत्तियाँ स्वयं प्रकृति की प्रेरणा देने की मौलिक विधि हैं।”
3. रचनात्मक कार्यों में सहायता (Helpful in Creativity)- बालकों में रचना की मूलप्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। इसीलिए, उनको रचनात्मक कार्यों में विशेष आनन्द आता है। इन कार्यों का “स्व शिक्षा” से घनिष्ठ सम्बन्ध है। शिक्षक, बालकों की रचना-प्रवृत्ति का विकास करके उनको रचनात्मक कार्यों द्वारा स्वयं ज्ञान का अर्जन करने में सहायता दे सकता है।
4. चरित्र निर्माण में सहायता (Helpful in Character-formation) – शिक्षक, बालकों की मूलप्रवृत्तियों का अध्ययन करके उनके चरित्र का निर्माण कर सकता है। इस सम्बन्ध में रॉस (Ross) ने लिखा है-“मूलप्रवृत्तियाँ इटें हैं जिनसे व्यक्ति के चरित्र का निर्माण किया जाता है। शिक्षक को अपनी प्राकृतिक दशा में मिलती हैं। उसका महान् कर्त्तव्य इनको परिवर्तित और परिष्कृत करना है। “
5. पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता (Helpful in Curriculum Construction) – पाठ्यक्रम निर्माण का आधारभूत सिद्धान्त बालकों की मूलप्रवृत्तियाँ होनी चाहिए। उनकी मूलप्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने वाला पाठ्यक्रम ही उनके लिए हितप्रद हो सकता है। अतः विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रमों का निर्माण करते समय शिक्षकों को बालकों की मूलप्रवृत्तियों का अवश्य ध्यान रखना चाहिए।
6. ज्ञान प्राप्ति में सहायता (Helpful in Gaining Knowledge)- बालकों में जिज्ञासा- प्रवृत्ति, ज्ञान प्राप्त करने में अद्भुत योग देती है। शिक्षक इस मूलप्रवृत्ति को जाग्रत करके बालकों को ज्ञान का अर्जन करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।
7. व्यवहार परिवर्तन में सहायता (Helpful in Behavioural Change) – शिक्षक, बालकों की मूलप्रवृत्तियों को रूपान्तरित करके उनके व्यवहार को समाज के आदर्शों के अनुकूल बना सकता है। ऐसा किए जाने की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए बी० एन० झा (B. N. Jha) ने लिखा है-“मूलप्रवृत्तियाँ व्यक्ति को विभिन्न प्रकार का व्यवहार करने के लिए उत्तेजित करती हैं। कोई भी सभ्य मानव समाज इनमें से सबको मौलिक रूप से स्वीकृति नहीं देता है।”
8. अनुशासन में सहायता (Helpful in Discipline) – बालक चोरी, उद्दण्डता, लड़ाई-झगड़ा, अनुचित आचरण आदि अनुशासनहीनता के कार्यों को तभी करते हैं, जब उनकी मूलप्रवृत्तियाँ उचित दिशाओं में निर्देशित नहीं होती हैं। शिक्षक उनकी मूलप्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण करके, उनमें अनुशासन की भावना का विकास कर सकता है।
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