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योग शिक्षा का महत्व विस्तार से समझाइयें।
योग शिक्षा का महत्व :- मनुष्य को शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ व सुन्दर बनाये रखने में योग शिक्षा का महत्व सर्वविदित हो चुका है। शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा है। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चे का सर्वांगीण विकास करना तथा उन्हें समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान दिलाना है। एक स्वास्थ्य तन-मन का स्वामी ही किसी देश का अच्छा नागरिक कहलाने का वास्तविक अधिकारी होता है। तन से जर्जर व मन से विक्षिप्त व्यक्ति किसी राष्ट्र की परिपक्व नींव नहीं बन सकते और इस तरह के नागरिकों से युक्त राष्ट्र का शीघ्र ही अन्त हो जाता है। शिक्षा का मुख्य मन्तव्य भी यही है कि वह अपने राष्ट्र के लिए एक सशक्त नींव तैयार करें व उस राष्ट्र के भविष्य (बच्चों) को स्वस्थ तन व मन का स्वामी बनाये।
योग दर्शन के अनुसार यह संसार दुःख से भरा माना गया है। दुःख से छुटकारा पाने के लिए मोक्ष अथवा मुक्ति ही एकमात्र उपाय है। इस उपाय को अपनाने के लिए ‘योग’ शिक्षा का सहारा लेना आवश्यक है। इसलिए, आत्मा के परम विकास के लिए अथवा आत्मा का परमात्मा में विलीन होने के लिए ‘योग’ शिक्षा को एक साधन के रूप में प्राय: सभी भारतीय दर्शनों ने स्वीकार किया है। वेद, उपनिषद, स्मृति, गीता, महाभारत इत्यादि सभी प्राचीन महान् ग्रन्थों में योग के अभ्यासों की चर्चा है। धर्म और दर्शन के पूर्ण ज्ञान के लिए भी मनुष्य को अपने चित्त अथवा आन्तरिक स्वरूप को नियंत्रित करना होता है। हृदय की शुद्धता और मन की शान्ति के बिना गहन चिन्तन कभी संभव नहीं है। इसलिए गूढ सत्यों के अध्ययन के लिए और प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने के लिये भी योग साधना की आवश्यकता पड़ती है। योग शिक्षा से जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति होती है। इसलिए, चावार्क को छोड़कर प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने ‘योग’ शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि योग दर्शन के वि के अनुसार योग का उद्देश्य है – पंच विधि क्लेशों तथा विभिन्न प्रकार के कर्मफलों से अलग होकर आत्मा को मुक्त करना।
योग दर्शन का एक विशेष दार्शनिक महत्व भी है। आत्म साक्षात्कार के इच्छुक लोगों के लिये योग दर्शन एक संतोष का विषय है। आत्मा को अपनी उन्नति के लिये एक निश्चित निर्धारित दिशा में ही बढ़ना चाहिए। इसके लिये एक अनुशासन चाहिए। इस अनुशासन के लिये आत्म-नियंत्रण आवश्यक है। यह ‘आत्म-नियंत्रण’ योग के द्वारा ही सम्भव है। इसी के कारण योग दर्शन में बहुत ही सुन्दर तरीके से चित्त की शुद्धता के ऊपर प्रकाश डालते हुए संयम पूर्ण जीवन का आदर्श पूर्ण चित्र खींचा गया है।
पतंजलि के योग दर्शन स्वरूप और विभिन्न प्रकारों की बहुत सूक्ष्म व्याख्या की गई है। इसका रूप आलोचनात्मक भी पाया जाता है। सांख्य दर्शन की तरह योग दर्शन भी इस बात पर बल देता है कि विवेक ज्ञान अथवा आध्यात्मिक ज्ञान से ही भी इस बात पर बल देता है कि विवेक ज्ञान अथवा आध्यात्मिक ज्ञान से ही मुक्ति अथवा मोक्ष प्राप्त करना संभव है। यह ज्ञान योग की विशेष अवस्था के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की वृत्तियों का पूर्ण दमन करना अत्यन्त ही आवश्यक है। इस तरह से शरीर, मन, बाह्य इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण के बाद ही आत्मा का शुद्ध और वास्तविक रूप प्रकट हो सकता है। आत्मा के सच्चे स्वरूप को पहचानना और इसे परमात्मा में विलीन कर देना ही विवेक ज्ञान है। यह बिना योग के अभ्यास से प्राप्त करना कठिन है। इसलिए, आत्म ज्ञान या विवेक ज्ञान के साधक के लिए योग दर्शन जीवन का एक व्यावहारिक मार्ग बताया जाता है। इस अलौकिक ज्ञान को प्राप्त करने के लिए अध्ययन, मनन और निदिध्यासन का निर्देश योग शिक्षा के द्वारा ही होता है।
योग शिक्षा इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक है तथा वर्तमान में योग शिक्षा ही एक ऐसा मार्ग है, जिस पर चलकर शिक्षा अपने सच्चे व वास्तविक उद्देश्य की सहज प्राप्ति कर सकती है। योग के शिक्षा के क्षेत्र में महत्व को विश्व के अनेक देश स्वीकार कर चुके हैं तथा उन्होंने अपनी आधुनिकतम शिक्षा प्रणाली में योग को स्थान देना प्रारम्भ कर दिया है। वह दिन भी दूर नहीं है; जब सम्पूर्ण विश्व योग के शैक्षिक महत्व से अवगत हो जायेगा तथा इसे अपनी सम्पूर्ण शिक्षा में एक अहम् जगह देने लगेगा। योग के शैक्षिक महत्व को हम निम्नलिखित बिन्दुओं की सहायता से स्पष्ट कर सकते हैं।
शारीरिक विकास में महत्व-
शरीर को हष्ट-पुष्ट बनाने, उसके अंग-प्रत्यांगों की कार्य क्षमता में वृद्धि करने तथा उसे निरोग बनाए रखकर ओजस्वी एवं कांतिमय बनाने में योग-साधना का कोई सानी नहीं। इसमें निम्न प्रकार के शारीरिक एवं स्वास्थ्य संबंधीं लाभ प्राप्त होने की पूरी-पूरी संभावना रहती है। योग संबंधी प्राणायाम द्वारा हमारे फेफड़ों को फैलने व सिकुड़ने की शक्तियों में वृद्धि होती है जिससे अधिक से अधिक प्राणवायु (ऑक्सीजन) फेफड़ों में जाती है। इससे रक्त संचार और रक्त की शुद्धि का कार्य अच्छी तरह होता है। श्वास क्रिया को नियंत्रित कर श्वास को स्थिर एवं शांत करने में सहायता मिलती है। खून के दबाव हृदय की गति को स्वाभाविक बनाने में सहायता । मिलती है। पाचन क्रिया को नियंत्रित करने तथा उसे शरीर को उपयुक्त बनाए रखने में भी पूरा सहयोग मिलता है।
रीढ़ की हड्डी और मांसपेशियों के उचित गठन एवं नियंत्रण में योग-
साधना महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे हड्डी और मांसपेशियों में कड़ापन नहीं आ पाता और वे स्वाभाविक रूप से लचीली एवं शक्तिशाली बनी रहती है। व्यक्ति को चुस्त फुर्तीला एवं चिर युवा बनाए रखने में मांसपेशियों और रीढ़ की हडड़ी संबंधीं यह शारीरिक लाभ बहुत सहयोगी सिद्ध होता है। योग-साधना शरीर के तापक्रम को सहज और सामान्य बनाए रखने तथा पसीने और दुर्गंध इत्यादि को असामान्य रूप से पैदा न होने में भी सहायता करती है। शरीर में विभिन्न रस द्रव्यों का निर्माण करने वाली गन्थियों को ठीक प्रकार नियंत्रित कर उन्हें पर्याप्त रूप से सजग एवं क्रियाशील बनाए रखने में सहायता मिलती है। शरीर के आंतरिक अवयवों एवं प्रणालियों की पूरी तरह सफाई रखने के कार्य में भी योग-साधना बहुत सहायता करती है। रक्त की नलिकाओं व कोशिकाओं की सफाई से लेकर श्वसन तथा पाचन तंत्रों की आंतरिक सफाई तथा विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालने के कार्य में योग शिक्षा से बहुत सहायता मिलती है।
योग-साधना के द्वारा शरीर की रोगनाशक और कीटाणुओं से लड़ने की क्षमता में वृद्धि होती है। रोग पैदा करने वाले हानिकारक पदार्थों को शरीर में इकट्ठा न होने देने से शरीर रोग मुक्त रहता है। विभिन्न प्रकार के रोगों का शिकार होने की दशा में योग-साधना के रूप में अपनाई जाने वाली उपचार पद्धति उपयुक्त लाभ पहुँचाने का कार्य करती है। शारीरिक थकावट को दूर करने, शारीरिक शक्ति को प्राप्त करने एवं निरोग तथा स्वस्थ रहकर दीर्घायु बनने के कार्य में भी योग बहुमूल्य सहायता प्रदान करता है।
मानसिक विकास में महत्व-
योग शिक्षा के द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि उत्तम मानसिक स्वास्थ्य को भी प्राप्त करने में पूरी-पूरी सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त मानसिक शक्तियों के समुचित पोषण और विकास के लिए उपयुक्त चेतना और शक्ति भी प्राप्त होती है। संक्षेप में मानसिक दृष्टि से प्राप्त लाभों को निम्न प्रकार प्रकट किया जा सकता है-
कहते हैं कि अच्छे तन में अच्छे मन का निवास होता है। योग शिक्षा के द्वारा प्राप्त सुंदर और स्वस्थ शरीर में इस दृष्टि से सबल और सशक्त मस्तिष्क का प्रादुर्भाव स्वतः ही हो जाता है। ज्ञानेंद्रियों के स्वास्थ्य, सबल एवं क्षमता युक्त होने से उनकी ग्राह्य शक्ति एवं संवेदनशीलता में काफी वृद्धि हो जाती है वे ठीक प्रकार से ज्ञान ग्रहण करने में पूर्ण सक्षम बन जाती है।
योग शिक्षा द्वारा चित्तवृत्तियों और मन की चंचलता पर अंकुश लगाने की शक्ति आती है। एकाग्रचित्तता एवं ध्यान की स्थिरता मानसिक शक्तियों के विकास के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार करती है तथा अभ्यास, संयम, साधना और समाधि द्वारा इन्हें उचित पोषण मिलता रहता है। मन का मैल साफ होने तथा पूर्वाग्रह, मतिभ्रम और अन्य शारीरिक और मानसिक विघ्नों से दूर रहने तथा सत्य, प्रत्यक्ष प्रमाण और पवित्र ग्रन्थों के अध्ययन में रूचि रहने से योगी को अपनी तर्क शक्ति, विचार शक्ति, निरीक्षण शक्ति, कल्पना शक्ति एवं निर्णय क्षमता में उत्तरोत्तर वृद्धि करने का पूरा-पूरा अवसर मिलता है।
योग-साधना, ग्रहण क्षमता, धारणा शक्ति तथा पुनः स्मरण शक्ति में सहायक बनकर योगी की स्मृति प्रक्रिया को अच्छे से अच्छा बनाने में अमूल्य सहयोग प्रदान करती है।
नैतिक विकास में महत्व –
योग-साधना से प्राप्त इन्द्रिय निग्रह द्वारा व्यक्ति को अपनी इंद्रियों पर आवश्यक नियंत्रण रख उन पर अंकुश लगाने की क्षमता प्राप्त होती है। परिणामस्वरूप वह विषय जनित इंद्रियों का दास न होकर उनका स्वामी बनता है और इस तरह रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्दों के मोहजाल से दूर रहकर पथ भ्रष्ट न होने देने में योग- साधना अमूल्य सहयोग प्रदान करती है। योगी का भोजन और भोजन संबंधी आदतें काफी सात्विक और नियंत्रित होती हैं, परिणामस्वरूप उसके आचार-विचार में बहुत अधिक सादगी, सात्विकता और अच्छाईयां घर कर लेती हैं। नशे, मद्यपान तथा अन्य तामस भोजन से जो बुराईयाँ व्यक्ति में आती है, उनसे योगी कोसों दूर रहता है।
क्रोध सभी बुराइयों की जड़ है। यह वह शैतान है, जिससे ज्ञान, बुद्धि और अन्य सभी मानवीय गुणों का क्षण भर में नाश हो जाता है। योग साधना नैतिकता के इस महा शत्रु तथा उसके अन्य सहयोगियों जैसे ईर्ष्या, घृणा, वैमनस्य आदि पर विजय प्राप्त करने में सहायता करती है।
संवेगों पर उचित नियंत्रण स्थापित करने और भावात्मक संतुलन बनाए रखने की क्षमता विकसित होती है। यम, नियम, संयम, साधना और समाधि द्वारा नैतिकता संबंधीं सद्विचारों और आदतों को पोषित कर पल्लवित और सुरभित करने का सुयोग प्राप्त होता है। सत्य प्रियता, प्रिय भाषण, समय की पाबंदी, ईमानदारी, सहिष्णुता, शांति प्रियता, दया, सहानुभूति, पारस्परिक प्रेम एवं सहयोग आदि सभी नैतिक मूल्यों की स्थापना में योग साधना इस प्रकार पूरा सहयोग देती है।
सामाजिक विकास में महत्व-
योग साधना के द्वारा मात्र व्यक्तिगत हित ही नहीं होता, बल्कि सामाजिक दृष्टि से व्यक्तियों से मिलकर समाज का निर्माण होता है। जैसे व्यक्ति होंगे वे अपने अनुकूल समाज का निर्माण करना चाहेंगे। योग-साधना के पथ पर चलने वाले व्यक्तियों से इस प्रकार एक अच्छे समाज की रचना का सुयोग प्राप्त ही सकता है।
सामाजिक बुराईयों जैसे छल, कपट, धोखाधड़ी, नशीले पदार्थों का सेवन, रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, हिंसा, मारकाट तथा अन्य इन्द्रिय जनित और सांसारिक विषयों की आसक्ति से संबंधित अपराधों की संख्या में कमी लाने के कार्य में भी यौगिक पथ अमूल्य सहयोग प्रदान कर सकता है।
आज समाज के सामने मूल्यों और नैतिकता के मापदंडों को बनाए रखने का जो संकट है और आपसी वैमनस्य, ईर्ष्या, शत्रुता और घृणा का जो वातावरण घर-बाहर, देश विदेश में व्याप्त है, उसे यौगिक साधना द्वारा सुझाए गए प्रेम, सहयोग, शांति, संयम, धैर्य, सहिष्णुता, साधना और सच्चाई के मार्ग से ही सहज और सुखमय बनाया जा सकता है। अति भौतिकवाद जिसने पश्चिमी देशों की सामाजिक व्यवस्था को खोखला बना दिया है अब हमारे देश में भी जड़ जमाने लगा है। स्वार्थपरता और भौतिक सुखों को प्राप्त करने की अंधी दौड़ को योग-साधना द्वारा प्रकाशवान पथ पर चलने से ही नियंत्रित किया जा सकता है तथा एक सुखी और आनंदमय समाज का निर्माण किया जा सकता है।
आध्यात्मिक विकास में महत्व –
योग शिक्षा व्यक्ति को शरीर एवं मन से कहीं अधिक ऊपर ले जाकर आध्यात्मिक प्रगति का रास्ता दिखाती है। यौगिक साधना द्वारा शारीरिक और मानसिक शक्तियों से परे अति सूक्ष्म तथा सुप्त दैविक एवं अलौकिक शक्तियों के जागरण एवं उन्नयन के अवसर प्राप्त होते हैं। शरीर और मन से परे अपने व्यक्तित्व के अभिन्न अंग आत्मा को जानने, पहचानने का अवसर मिलता है। केवल स्वयं की आत्मा ही नहीं, बल्कि सभी प्राणियों की आत्माओं का उद्गम और गंतव्य स्थान परमात्मा है, इस तथ्य का बोध होता है। सृष्टि ईश्वरमय है सभी प्राणी उसी परमात्मा के अंश हैं तथा हमें सभी के प्रति प्रेम और आदर भाव रखने चाहिए। ऐसे आत्मिक और आध्यात्मिक विचारों का प्रादुर्भाव होता है। जीवन का अंतिम उद्देश्य भौतिक सुखों और साधनों का संचय नहीं, बल्कि परमात्मा से मिलन अथवा मोक्ष प्राप्ति हैं, इस शाश्वत सत्य का ज्ञान होता है। योग के विभिन्न साधनों एवं विधाओं द्वारा आत्मा परमात्मा के मिलन संबंधी विभिन्न उपायों से परिचय होता है और उन पर चलने का सुयोग प्राप्त होता है।
योग-साधनाएं मनुष्य को उसके सामान्य सांसारिक कर्मों के लिए शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ प्रदान करने के अतिरिक्त ईश्वर से मिलन के लिए विशेष रूप से प्रयास करने की दिव्य शक्ति प्रदान करती हैं। इन नियम और साधनाओं के कठिन पथ पर से गुजरता हुआ योगी अंततः अपने परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने में सफल हो जाता है।
भावनात्मक विकास में महत्व-
योग शिक्षा बच्चों के भावात्मक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। जिसको हम निम्नलिखित ढंग से व्यक्त कर सकते हैं। योग शिक्षा बच्चों को अपने संवेगों पर नियंत्रण करना सिखाती है। इन्द्रियों को वश में करना, मन को स्थिर रखना, ध्यान और एकाग्रता बनाये रखना आदि में योग ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बच्चों में चिड़चिड़ापन तनाव, क्रोध, चिन्ता आदि को दूर करने में योग शिक्षा लाभप्रद है।
योग शिक्षा से सकारात्मक सोचने की शक्ति बढ़ती है। जिससे बच्चा अपने संवेगों पर नियंत्रण रखते हुए विभिन्न कार्यों को कुशलतापूर्वक करने लगता है। इस तरह योग व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक ऊँचाईयों को छूने में भरसक सहायता प्रदान करता है। आज की पिसती-कराहती और दैहिक तथा मानसिक व्याधाओं से घिरी इस भौतिकवादी दुनियां को योग-साधना की संजीवनी बूटी की सभी ओर से काफी आवश्यकता है। अपने देश को घोर नैतिक और मानवीय मूल्यों की गिरावट के संकट से उबारने का भी काम योग शिक्षा द्वारा ही संभव है। बालकों को शुरू से ही शरीर, मन और आत्मा से सबल एवं कांतिमय बनाकर उनकी शक्ति को समाज, देश एवं मानवोपयोगी बनाने की दृष्टि से विद्यालय पाठ्यक्रम में प्रारम्भ से ही योग शिक्षा की अनिवार्यता पर अवश्य ही बल दिया जाना चाहिए।
योग शिक्षा एवं स्वाध्याय :-
तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान ये तीनों क्रिया योग के अंग हैं। स्वाध्याय का अर्थ केवल पुस्तक पढ़ते रहना ही नहीं है। श्रेष्ठ साहित्य, गीता, उपनिषद् रामायण और भागवत् आदि का नियमित अध्ययन, स्वाध्याय की प्रक्रिया का एक आवश्यक चरण है। अपना अध्ययन करना, अपने आपको जानने की प्रक्रिया स्वाध्याय है। इसका श्रीगणेश अन्तर्मुखता से प्रारम्भ होता है। जब हम अपने आपको देखने लगते हैं तो क्या दिखता है-
सर्वप्रथम मुझे अपने दोष दिखाई देते हैं। दोष दिखाई देने पर मैं उन्हें ठीक करने का, उपचार का काम करने का प्रयास करूंगा। अंधेरा होगा तो मुझे कुछ दिखाई नहीं देगा।
अगर प्रकाश हो तो कूड़ा करकट या विषैले जीव सभी दिखाई देंगे। तभी मैं कूड़े को साफ कर सकता हूँ। इसके पूर्व मुझे अपने योग साधना काल में प्रातः और सायं बैठना होगा। प्रातः उठकर अपने सारे दिन की कार्य योजना बनानी होगी तथा रात्रि होने से पूर्व अपनी दिनचर्या का अवलोकन करना होगा। यह देखना है कि दिन भर में जो जो काम मैंने किए हैं वे सब पूरी ईमानदारी व समझदारी के साथ किए हैं। कितनी बार क्रोध आया,
कितनी बार और कितनी देर किसी के बारे में बुराई की या सोची आदि। अगर ऐसा हुआ है तो संकल्प करें कि कल मैं ऐसा नहीं करूंगा। इस प्रकार धीरे-धीरे अन्तःकरण पवित्र होने लगेगा। यह प्रक्रिया श्रेष्ठ पुरूषों के वचन या शास्त्रों में दिए गए जीवन-मूल्यों के वर्णन का अध्ययन करने से और भी अधिक सुदृढ़ होगी।
योग शिक्षा एवं चरित्र निर्माण तथा बुद्धि विकास :-
चरित्र एक बल है। जीवन में गुणों का संग्रह होने पर जो प्रभाव, दूसरों पर पड़ता है, जो सफलता हमें मिलती है, वह सब चरित्र का ही फल है। चरित्र ऐसा हीरा है जो बाधा रूपी पत्थर के टुकड़ों को भी काट देता है। चरित्रवान व्यक्ति ख्याति को प्राप्त होता है। चरित्र एक तरह की जीवन शैली है, जिसकी आज अत्यन्त आवश्यकता है। चरित्र जीवन का श्रृंगार है। चरित्र ही सच्चे अर्थों में मानव को मानव बनाता है और समाज को उन्नत करता है।
चरित्र का निर्माण योगाभ्यास के द्वारा आसानी से होता है। यह आज की विडंबना है कि टी.वी. और यहाँ तक कि माता-पिता और शिक्षक भी चरित्र निर्माण में सहयोग देने में असमर्थ हैं। बस्ते का बोझ, टी.वी. पर विदेशी संस्कृति का प्रदर्शन, अपने देश की महानता की उपेक्षा चरित्र निर्माण में बाधक हैं। यम- अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय व अपरिग्रह तथा नियम-शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान पालन करने से ही चरित्र बनेगा। योगाभ्यास से तन व मन पवित्र होता है।
बुद्धि का विकास किए बिना न तो सात्विक विचार उठेंगे, न अच्छे-बुरे की पहचान होगी, न विवेक शक्ति जागेगी, न इन्द्रियों पर संयम होगा, न शांति से जीने की चाह पैदा होगी। हर काम बुद्धि से तोल कर ही करना चाहिए। तर्क का सहारा लेकर अच्छे का ही चुनाव करना चाहिए। बौद्धिक विकास के लिए योग में कुछ साधन अपनाए जाते हैं। वे जहाँ चरित्र का उत्थान करते हैं वहाँ बुद्धि का भी विकास करते हैं। जैसे- गायत्री मंत्र का जाप करना, आसन व प्राणायाम, आत्म-निरीक्षण, सही ढंग से सोचना व करना, महापुरूषों की जीवनी पढ़ना, योगनिद्रा, प्रातःकाल उठना, एकाग्रता का अभ्यास करना, ध्यान तथा सेवा करना, शुभ संकल्प करना, जीवन के मूल्यों को अपनाना। अच्छे बच्चों के साथ समय बिताना, विज्ञान व ज्ञान का मेल रखते हुए कार्य करना, सादा भोजन करना आदि।
अतः यह मानना ही होगा कि आज समाज से चरित्र नाम की चीज खो गई है, यहाँ तक कि राष्ट्रीय चरित्र भी डॉवाडोल है। सभी जगह त्राहि-त्राहि मच रही है। आपसी संबंध, सादगी, सच्चाई आदि गायब हो रहे हैं। बस एक ही समाधान, एक ही हल समझ में आता है कि योगाभ्यास नित्य करोगे तो मन पवित्र बनेगा, दोष दूर होंगे। विचार व बुद्धि निखरेगी। अतः जीवन में सफलता पाने के लिए तथा समाज में शान्ति लाने के लिए चरित्र व बुद्धि का विकास करने के लिए योगाभ्यास करें, योग शिक्षा से जुड़े, योग शिक्षा को जीवन में उतारें।
योग शिक्षा एवं एकाग्रता :-
किसी एक विषय पर मन को टिकाना एकाग्रता है। एकाग्रता ध्यान से पहले की अवस्था है। एकाग्रता के लिए अपनी दिनचर्या को ठीक करना आवश्यक है। यथा शाम का भोजन जल्दी करना, जल्दी सोना, प्रातः जल्दी उठना। अपने सभी काम व्यवस्थित ढंग से एवं अंतः प्रेरणा से करना। योग शिक्षा से हम बारम्बार मन को अन्य विषयों से हटाकर एक केन्द्र पर लगाते हैं। एकाग्र मन स्वयं प्रसन्न रहता है, बुद्धि का विकास होता है, जीवन भीतर से परितृप्त और जीने योग्य होता है। व्यक्ति का मन जितना एकाग्र होगा, समाज पर उसकी वाणी का, उसके हाव-भाव का, उसके क्रिया-कलापों का उतना ही गहरा प्रभाव पड़ेगा। बिना एकाग्रता के साधना में प्रवीणता नहीं आ सकती। जब हम किसी कार्य को एकाग्र होकर नहीं करेंगे तो वह कार्य ठीक नहीं हो सकता। साधना की पूर्णता एकाग्रता के बिना सम्भव नहीं है। इसलिए आवश्यकता है कि एकाग्रता के द्वारा मन को बिना किसी भ्रम के किसी विषय पर लगाया जाए, तभी सफलता मिलेगी।
योग शिक्षा में जब हम एकांगी साधना करते हैं तो अपने मन को इन्द्रियों सहित, आसन में शरीर के एक भाग पर, प्राणायाम में श्वास क्रिया पर और ध्यान में चैतन्य पर लगाने का अभ्यास करते हैं। यह अभ्यास धीरे-धीरे हमारे मन और इन्द्रियों को अन्तर्मुखता प्रदान करता है। यह एकाग्रता की अवस्था है। एकाग्रता ध्यान लगाने में सहायक है। एकाग्रता के लिए मानसिक उद्विग्नता को नियंत्रित करना आवश्यक है। ऐसा कोई काम न करें जिससे मन उद्विग्न हो, यहां तक कि उठने, बैठने, चलने और सभी क्रियाएं करने में अपने मन को शान्त तथा उसी क्रिया पर टिकाने का अभ्यास करना होगा। पीठ के बल लेटकर हम अपने शरीर का पंजों से सिर तक और सिर से पंजें तक मानसिक अवलोकन करने का अभ्यास करते हैं। प्रायः एक दो चक्कर लगाने के बाद मन अन्यत्र चला जाता है। इसका निरन्तर अभ्यास हमें एकाग्रता की ओर ले जाता है।
आत्म-चिंतन का अभ्यास एकाग्रता का अभ्यास है। अपने दिनभर के क्रिया-कलापों का अवलोकन आत्म-चिंतन है। यह अवलोकन दिन-प्रतिदिन करते जाएं। इससे हम धीरे-धीरे एकाग्रता की ओर अग्रसर होंगे। मन की लघु लहरियां भी शान्त होंगी। आसनों के अभ्यास से शरीर शुद्ध होता है तथा प्राणायाम के अभ्यास से मन वास्तव में मन की एकाग्रता इसके नियन्त्रण की पूर्ण स्थिति है। प्राणायाम में हम श्वास को गहरा लम्बा बनाते-बनाते श्वास के आवागमन को भी समाप्त कर देते हैं। हम यह जानते हैं कि वायु के नियंत्रण से प्राण और प्राण के नियन्त्रण से मन का वशीकरण होता है, मन का किसी भी बाहरी परिस्थिति से आकर्षित होना बंद हो जाता है। इसको मन की निरविषयी अवस्था कहते हैं। प्रारम्भ में हम अपने अभ्यास काल में श्वास लेते तो हैं पर श्वास चैतन्य होकर नहीं लेते, श्वास लेते-लेते किसी और विषय पर विचार रहता है। कुछ समय के अभ्यास से ये अनन्य विषय समाप्त होते हैं और फिर श्वास के लेने और छोड़ने पर ही ध्यान रहता है। यह मन की एकाग्र अवस्था है। हम जब-जब भी प्राणायाम का अभ्यास करते हैं यह अवस्था हमें सहज ही उपलब्ध होने लगती है। यह सहज अवस्था ही इन्द्रियों और मन की एकाग्रता की जनक है। यह एकाग्रता उपलब्ध होने पर काम ठीक से होते हैं।
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