योग शिक्षा का विभिन्न रोगों के उपचार व रोकथाम में महत्व का विस्तार से उल्लेख कीजियें ।
योग शिक्षा का विभिन्न रोगों के उपचार व रोकथाम में महत्व :- योग शिक्षा के द्वारा विभिन्न रोगों से बचा जा सकता है। हृदय तथा रक्तचाप के रोगी कमरचक्रासन, व्रजासन, उष्ट्रासन, भुजंगासन, शलभासन, मकरासन, पवनमुक्तासन,. मत्स्यासन, से स्वयं को इन रोगों से बचा सकते हैं। मधुमेह के रोगी नावासन, कमरचक्रासन, जानुशिरासन, महामुद्रा, पश्चिमोत्तानासन, योग मुद्रा, मयूरासन, हलासन, सर्वांगासन आदि से तथा गठिया, जोड़ों के दर्द के रोगी, जानुशिरासन, गारे क्षासन, गोमुखासन, व्रजासन, मकरासन, सुप्तवज्रासन आदि करके स्वयं को रोगों से दूर रख सकते हैं। गले की पैराथाइराइड ग्रंथियों से निकलने वाले रस पर्याप्त मात्रा में न होने से बच्चों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता और युवकों के असमय ही बाल गिरने लगते हैं।
आयुर्वेद ने रोग के तीन आयतन बताये हैं। ‘अर्थानां कर्मणः कालस्य चातियोगायोग मिथ्या योगा:’ के अनुसार रोगों की उत्पत्ति के तीन कारण होते हैं- (1) अतियोग (2) अयोग और (3) मिथ्या योग। इन तीनों कारणों का सम्बन्ध अर्थ (इन्द्रियों के विषय), कर्म और काल से भी होता है यानी अर्थ के अतियोग, अयोग और मिथ्या योग की तरह कर्म और काल का अतियोग, अयोग और मिथ्या योग भी रोग उत्पन्न करने में कारण होता है। पहले अर्थ यानी इन्द्रियों के अतियोग, अयोग और मिथ्या योग के बारे में विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
योग शिक्षा के अभाव में विभिन्न रोग तथा इनके उपचार – मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा सुख उसके शरीर व मन का स्वस्थ रहना है। आज के भौतिकवादी युग में हम अपने रहन-सहन के तरीके और आदतों द्वारा जितना प्रकृति से दूर जा रहे हैं उतना ही हमें शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता का सामना करना से पड़ रहा है। हम अपने चारों ओर देखते हैं कि जनमानस दिनों-दिन नई-नई बीमारियों से ग्रस्त होता जा रहा है। यद्यपि नई-नई चिकित्सा पद्धति की आज के युग में कोई कमी नहीं है, परंतु फिर भी लोग बीमारियों से ग्रस्त हैं। योग-साधना और जीवन पद्धति हमें अपने शरीर और मन को न केवल इन रोगों से बचाने में भरसक सहायक होती है, बल्कि किसी कारणवश रोगों से ग्रस्त हो जाने पर अचूक इलाज भी प्रस्तुत करती है। उदाहरण के लिए :-
मधुमेह – पाचन तंत्र में इंसुलिन (क्लोमरस) कम बनने या बिल्कुल न बनने पर भोजन में ली गई शक्कर ग्लूकोज में परिवर्तित नहीं हो पाती है तथा रक्त या पेशाब में उसकी मात्रा बढ़ जाने से मधुमेह का रोग हो जाता है। क्लोमरस ‘पेन्क्रियाज’ नाम की ग्रंथि से निकलता है। इस ग्रंथि के खराब होने पर यह रस शरीर में नहीं बनता, इसलिए मधुमेह के रोगों को इंसुलिन का इंजेक्शन भोजन करने से पूर्व लगाया जाता है ताकि शक्कर ग्लूकोज में परिवर्तित होकर शरीर को शक्ति प्रदान कर सकें।
योग उपचार – इस रोग के उपचार में योगाभ्यास का विशेष स्थान है। सर्वप्रथम | षट्कर्म में आसानी से की जाने योग्य योग क्रियाएं करनी चाहिए, जैसे- जलनेति, कुंजल क्रिया व उड्डियान बंध। तत्पश्चात् अभ्यास होने पर शंख प्रक्षालन, कपालभाति, न्यौली, | वस्ति क्रियाएँ करनी चाहिए। इन क्रियाओं से हमारे शरीर के तंत्र शुद्ध होकर, कार्यशील हो जाते हैं।
इसके बाद उन आसनों का अभ्यास करना चाहिए जो इस रोग को दूर करने में अति सहायक होते हैं जैसे- पश्चिमोत्तानासन, अर्धमत्स्येंद्रासन, हलासन, बज्रासन, पवनमुक्तासन, नौकासन, भुजंगासन, धनुरासन, शलभासन व सूर्य नमस्कार आदि।
योगाभ्यास करते समय इस बात का भी ध्यान रहे कि रोगी आलू, चीनी, गुड, शकरकंद, अंगूर, केला, संतरा, मिठाईयां आदि शर्करायुक्त पदार्थों का सेवन न करे।
दमा या अस्थमा- श्वसन तंत्र में फेफड़ो, श्वास नली, गला आदि के ठीक प्रकार से कार्य न करने पर श्वास प्रश्वास क्रिया में बाधा पहुँचती है और व्यक्ति को सांस लेने में परेशानी होती है। दोनों फेफड़ों में लाखों की संख्या में छोटे-छोटे वायु के थैले होते हैं, जिनमें अशुद्ध वायु, शुद्ध वायु में परिवर्तित होती रहती है अर्थात् ये थैले कार्बन डाईऑक्साइड को बाहर निकालकर ऑक्सीजन को रक्त में मिला देते हैं। वायु के इन छोटे-छोटे थैलों के कुछ या अधिक मात्रा में खराब होने पर, सामान्य सांस द्वारा शरीर की ऑक्सीजन की पर्याप्त आवश्यकता पूरी नहीं हो पाती और व्यक्ति जल्दी-जल्दी सांस लेकर ऑक्सीजन की कमी को पूरा करने का प्रयास करता है, यही दमा होता है।
योग उपचार- इसमें नेति, धौति, न्यौली व कपालभाति आदि षट्कर्म की क्रियाएँ सहायक सिद्ध होती हैं। दमें के रोगी को धनुरासन, गौमुखासन, सर्वांगासन, पश्चिमोत्तानासन, सर्पासन, पवनमुक्तासन एवं सूर्य नमस्कार का अभ्यास करना चाहिए। इन आसनों के साथ-साथ नाड़ी शोधन, उज्जायी व सूर्यभेदी प्राणायाम भी दमें को दूर करने में विशेष सहायता पहुँचाते हैं। बंध व मुद्राएँ भी दमें के रोगी के लिए अति लाभकारी सिद्ध होती है।
सामान्य जुकाम- व्यक्ति को जुकाम होना एक सामान्य सी बात है परंतु बीमारी के रूप में यह बहुत दुःखदायक हो जाता है। इसकी शुरूआत नाक से पानी बहने, छींक आने तथा सांस लेने में तकलीफ से होती है। धीरे-धीरे हलका बुखार, खांसी व गले में खराश शुरू हो जाती है। इसका समय पर उपचार होना अति आवश्यक है अन्यथा असावधानी बरतने पर जुकाम पक जाता है और शरीर अनेक व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है।
योग उपचार – जुकाम को दूर करने में षट्कर्म – जल नेति, सूत्र नेति, वस्त्र धौति, कुंजल आदि से सहायता मिलती है। सर्वांगासन, हलासन और शीर्षासन जुकाम दूर करने में सहायक है। सूर्यभेदी, उज्जायी, भ्रामरी, भस्त्रिका प्राणायामों से भी जुकाम में लाभ होता है। सभी मुद्राएं व बंध भी जुकाम में लाभकारी सिद्ध होते हैं।
उच्च रक्तचाप – हमारे पूर्ण शरीर में रक्त परिभम्रण प्रक्रिया में धमनियों और शिराओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। धमनियाँ शरीर के सभी भागों में शुद्ध रक्त पहुँचाती में हैं और शिराएँ शरीर का अशुद्ध रक्त हृदय तक पहुँचाती है। इन धमनियों व शिराओं में जो रक्तप्रवाह होता है उसे रक्तचाप कहते हैं। धमनियों का रक्त प्रवाह अधिक होता है तब इसे सिस्टोलिक कहते हैं। शिराओं का रक्त प्रवाह कम होता है तब इसे डिस्टोलिक कहते हैं। एक स्वस्थ व्यक्ति का रक्तचाप देखने के लिए उसकी आयु में 80 जोड़ने पर सिस्टोलिक और आयु में 40 जोड़ने पर डिस्टोलिक रक्तचाप होता है। रक्त परिभ्रमण संस्थान में किसी प्रकार का विकार होने पर रक्त के प्रवाह का दबाव सामान्य से बढ़ जाता है। जिसे उच्च रक्तचाप कहते हैं।
योग उपचार- उच्च रक्तचाप की बीमारी को दूर करने के लिए हर रोज सुबह 10 से 20 मिनट तक श्वासन करना चाहिए। पवनमुक्त आसन व उत्तानपाद आसन का धीरे धीरे अभ्यास करना चाहिए। थकावट महसूस होने पर केवल श्वासन का अभ्यास करना चाहिए। प्रातःकाल व सायंकाल की सैर से इसमें बहुत लाभ होता है। शीतली व सीत्कारी प्राणायाम से भी उच्च रक्तचाप में सहायता मिलती है।
कब्ज – समय पर भली प्रकार से शौच न आने को कब्ज कहते हैं। यह पाचक तंत्र संबंधी विकार है, जो अन्य सभी तंत्रों में विकार उत्पन्न कर देता है। इसीलिये इसे सभी रोगों की जड़ कहा जा सकता है।
योग उपचार – शंख प्रक्षालन व वास्ति क्रिया कब्ज को दूर करती है। चक्रासन, कटिचक्रासन, सर्पासन, उदरासन, हलासन, धनुरासन, पवनमुक्तासन, पश्चिमोत्तानासन, वज्रासन का अभ्यास कब्ज के रोग को दूर करने में सहायक होता है। मूल बंध, उड्डियन बंध, अश्विनी मुद्रा व महामुद्रा का अभ्यास करने से पुराने से पुराने कब्ज का रोग भी ठीक हो जाता है।
बवासीर – बवासीर रोग में मल द्वार में मस्से हो जाते हैं जिनके कारण मल त्यागने में कठिनाई होती है तथा पाचन की क्रिया विकार युक्त होकर समस्त शरीर को प्रभावित करती है।
योग उपचार – बग़सीर के लिए भी वही योग- चिकित्सा है जो कब्ज को दूर करने के लिए की जाती है।
कमर दर्द – आजकल यह बीमारी काफी प्रचलित है। विशेषता स्त्रियों में 30-35 वर्ष के बाद इसकी आम शिकायत रहती है। इसके उपचार में सुप्त वज्रासन, मत्स्येंद्रासन, | त्रिकोणासन, उत्कटासन, सर्वांगासन, मत्स्यासन, उष्ट्रासन, हलासन, भुजंगासन, पश्चिमोत्तानासन, धनुरासन, शलभासन, चक्रासन तथा सूर्य नमस्कार आदि आसन काफी उपयोगी सिद्ध होते हैं।
गैस का बनना- पेट में गैस का बनना यह रोग भी आजकल बढ़ता ही जा रहा है। इसके उपचार के लिए नाड़ी शोधक प्राणायाम, नौलि, बस्ति, शंख प्रक्षालन आदि क्रियाएं उड्डियान बंध तथा जानु-शिरासन, पवन मुक्तासन, धनुरासन तथा चक्रासन आदि आसन से लाभ मिलता है।
नेत्र रोग – सभी प्रकार के नेत्र रोगों में जल नेति, घृत नेति तथा त्राटक आदि योग क्रियाएं और शीर्षासन तथा सर्वांगासन आदि आसन हितकारी सिद्ध होते हैं।
मानसिक तनाव – भौतिक समृद्धि ने मानसिक चिंताओं, तनावों तथा अस्वस्थता को आज काफी बढ़ा दिया है। इस मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाने में योग मुद्रा, योग निद्रा, त्राटक आदि योग क्रियाएँ, नाड़ी शोधक प्राणायाम तथा सर्वांगासन, शीर्षासन, श्वासन, उत्तानापादासन, पवन मुक्तासन, वज्रासन, गर्भासन, शलभासन, हलासन आदि योग आसन काफी लाभकारी सिद्ध होते हैं।
मोटापा- मोटापा एक अभिशाप भी है और रोग भी। इससे मुक्ति दिलाने में योग- मुद्रा के साथ उड्डियान बंध, नाडी शोधक प्राणायाम, सूर्य भेदन प्राणायाम, चक्रासन, शलभासन, त्रिकोणासन, गर्भासन, मयूरासन, पश्चिमोत्तानासन, सर्वांगासन, धनुरासन, त्रिकोणासन, मत्स्येंद्रासन, बद्धपद्मासन आदि आसन तथा सात्विक भोजन, नियमित आहार तथा संतुलित निद्रा आदि साधन उपयोगी सिद्ध होते हैं।
अम्लता – अम्लता से मुक्ति पाने में शीतली, शीतकारी तथा भस्त्रिका प्राणायाम एवं नाडी शोधन क्रिया तथा योगासनों में पश्चिमोत्तानासन, वक्रासन, मयूरासन, त्रिकोणासन, शलभासन तथा श्वासन काफी उपयोगी सिद्ध होते हैं।
रक्तचाप में कमी – इसके नियंत्रण एवं उपचार में भस्त्रिका तथा नाड़ी शोधन प्राणायाम, सिद्धासन, हलासन, पश्चिमोत्तानासन, सर्वांगासन, शीर्षासन तथा श्वासन उपयोगी सिद्ध होते हैं।
गुरदे के रोग – नाड़ी शोधन प्राणायाम तथा योग-मुद्रा, भुजंगासन, धनुरासन, वक्रासन, पश्चिमोत्तानासन, सर्वांगासन, ऊर्ध्व मत्स्येंद्रासन, उष्ट्रासन गौमुखासन, शशकासन तथा श्वासन आदि से गुरदे की बीमारियों में लाभ पहुँचता है।
यकृत विकार – नाड़ी शोधन प्राणायाम तथा शशकासन, भुजंगासन, शलभासन, धनुरासन, हलासन, पश्चिमोत्तानासन, सर्वांगासन, मयूरासन, बद्धपद्मासन तथा उष्ट्रासन के साथ सूर्य नमस्कार यकृत विकारों के लिए उपयोगी सिद्ध होते हैं।
सिर दर्द – सिर दर्द से पीड़ित व्यक्ति को नाड़ी शोधन प्राणायाम तथा सर्वांगासन, शीर्षासन एवं श्वासन आदि से काफी राहत मिलती है।
योग के शिक्षा के क्षेत्र में महत्व को विश्व के अनेक देश स्वीकार कर चुके हैं तथा उन्होंने अपनी आधुनिकतम शिक्षा प्रणाली में योग को स्थान देना प्रारम्भ कर दिया है। वह दिन भी दूर नहीं है, जब सम्पूर्ण विश्व योग के शैक्षिक महत्व से अवगत हो जायेगा तथा इसे अपनी सम्पूर्ण शिक्षा में एक अहम् जगह देने लगेगा। योग के शैक्षिक महत्व को यथा शारीरिक विकास में महत्व, मानसिक विकास में महत्व, नैतिक विकास में महत्व, महत्व, आध्यात्मिक विकास में महत्व, भावनात्मक विकास में महत्व, स्वाध्याय में चरित्र निर्माण में महत्व, ध्यान एकाग्रता में महत्व एवं विभिन्न रोगों के उपचार एवं रोकथाम में महत्व दिया गया है।
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