राजनीति विज्ञान / Political Science

वैदिक काल में भारतीय प्रशासन का विकास

वैदिक काल में भारतीय प्रशासन का विकास
वैदिक काल में भारतीय प्रशासन का विकास

वैदिक काल में भारतीय प्रशासन के विकास का वर्णन कीजिए।

वैदिक काल में भारतीय प्रशासन का विकास

इस काल के प्रशासन के विकास को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

1. ऋग्वैदिक कालीन भारतीय प्रशासन- आरंभ में ऋावेद कालीन आर्यो का राजनैतिक संगठन एवं प्रशासनिक व्यवस्था शिशु अवस्था में थी। रक्त संबंधों के आधार पर कुटुंब, या कुल परिवार संगठिन होते थे। इसका प्रधान कुलप या कुलपति कहलाता था। वह परिवार का मुखिया होता था। कुटुंब ही सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई थी। अनेक परिवारो को मिलाकर ग्राम बनता था, जिसका प्रधान ग्रामणी कहलाता था। अनके ग्रामों को मिलाकर विश बनता था, जिसका प्रधान विशपति होता था। अनके विशों का समूह जन या कबीला कहलाता था। इसका प्रधान राजा या गोप कहलाता था। जनपद, राष्ट्र या राज्य की अवधारणा भी वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में स्थापित हुई ।

ऋग्वैदिक काल में शासन का प्रधान राजन (गोप, गोपति, जनराजन, विशपति) हुआ करता था। राजतंत्र की आवश्यकता तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के चलते ही हुई । युद्ध में कबीले का नेतृत्व करने के लिए ही राजा की आवश्यकता पड़ी। उसका प्रमुख कार्य युद्ध में विजय दिलवाना था। इसके साथ-साथ वह कबीले में रहने वालों और उनकी संपत्ति की भी सुरक्षा करता था। राजा यद्यपि अपने कबीले का प्रधान हुआ करता था, तथापि उसका पद वंशानुगत नहीं था। कबीले में रहने वाले व्यक्ति सबसे योग्य व्यक्ति को अपना राजा चुनते थे। राजा के अधिकार अत्यंत सीमित थे। उसका अधिकार अपने कबीले तक सीमित था। इस समय के राजा को भगवान का अवतार नहीं समझा जाता था, बल्कि वह कबीले का सबसे योग्य व्यक्तिमात्र माना जाता था। राजा की न तो अपनी निजी सेना थी और न ही उसकी आमदनी को कोई निश्चित जरिया। फलस्वरूप, नौकरशाही का भी विकास नहीं हो सका; तथापि राजा को प्रशासन में पुरोहित, सेनानी एवं ग्रामणी में सहयता मिलती थी। ये व्यक्ति राजा के नौकर नहीं होकर उसके सहयोगी के समान थे। इनका चुनाव भी संभवतः कबीले वालों द्वारा ही होता था । न्यायिक व्यवस्था भी पूर्णतः विकसित नहीं थीः राजा ही न्याय भी करता था।

वैदिक काल में अनेक जनतांत्रिक संस्थाओं का भी विकास हुआ। ऐसी संस्थाओं में सभा, समिति और विद्ध प्रमुख है। यद्यपि इन संस्थाओं के स्वरूप और कार्यों के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि समिति समस्त समुदाय की जनसभा थी और सभा का स्वरूप बहुत-कुछ होमरकालीन गुरुजन-सभा से मिलता-जुलता था। इसमें स्त्रियाँ भी भाग लिया करती थीं। सभा का कार्य न्याय करना था। समिति का मुख्य कार्य राजा का निर्वाचन था। राजनीति महत्त्व के अतिरिक्त सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक प्रश्नों पर भी इन संस्थाओं में चर्चा होती थी। इनका प्रमुख काम राजा का निर्वाचन करना, उस पर अंकुश रखना एवं प्रशासन में उसकी सहायत करना था। विदथ मुख्यतः धार्मिक एवं सैनिक महत्त्व का कार्य करता था। इन संस्थाओं का संगठन और कार्य कबीलाई संगठन के ही अनुरूप था। राजा के लिए इन संस्थाओं से मधुर संबंध बनाए आवश्यक था।

2. उत्तर वैदिक काल में प्रशासन का विकास- उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक परिवर्तनों ने प्रशासनिक व्यवस्था में भी महत्वपूर्ण अंतर ला दिया। राजा की स्थिति, उसकी शक्ति और अधिकारों में वृद्धि हुई। इसका एक कारण यह था कि राजा का पद अब वंशानुगत हो गया। राजा के पद के महत्त्व में वृद्धि का अंदाज उत्तरवैदिक साहित्य में मिलता उदाहरण के लिए अथर्ववेद में कहा गया है कि राष्ट राजा के हाथों में हो तथा वह और देवता इसे सुदृढ़ बनाएँ। राजत्व के दैवी उत्पत्ति के सिद्धांत का उल्लेख भी साहित्य में मिलता है। राजतंत्र का स्वरूप भी कबीलाई से बदलकर क्षेत्रीय हो गया। उत्तर वैदिक साहित्य में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। प्राची में सम्राट, दक्षिण में भौज्य, प्रतीची में स्वराज, उदीची में वैराज्य प्रकार का राजतंत्र था। राजा अब अधिराज, राजाधिराज, सम्राट, विराद्, एकराट् सार्वभौम जैसी उपाधियाँ धारण करने लगे, जो साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का आभास देता है। विभिन्न प्राकर के राजत्व की प्राप्ति के लिए वाजपेय, राजसूय, अश्वमेध तथा इंद्रमहाभिषेक इत्यादि यज्ञों का अनुष्ठान आवश्यक हो गया । गोपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा को राजसूय, सम्राट को वाजपेय, स्वराट को अश्वमेधू, विराट को पुरुषमेध और सर्वराट को सर्वमेध यज्ञ करना चाहिए। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के अनुसार अश्वमेध यज्ञ केवल सार्वभौम राजा ही कर सकता है। इनके कारण राजा में देवत्व का अंश भी आने लगा और उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई।

क्षेत्रीय तत्त्वों के बढ़ते प्रभाव ने प्रशासन के कबीलाई तत्त्वों को महत्त्वहीन बना दिया। पहले जो, कबीलाई संस्थाएँ (सभा, समिति और विदथ आदि) प्रशासन का मुख्य अंग थीं, उनका महत्त्व गौण हो गया। इसका मुख्य कारण था क्षेत्रीय राज्यों का उदय और राजपद का वंशानुगत होना। राजा को गद्दी पर बैठने के समय राजसूय (अभिषेक) यज्ञ करना आवश्यक हो गया। अभिषेक के प्रकार के होते थे – पुनर्भिषेक और ऐंद्रमहाभिषेक। अतः वैदिक कबीलाई संस्थाओं का स्थान धीरे-धीरे रत्रिनों या राजकृतियों (सेनानी, पुरोहित, ग्रामणी, राजन्य इत्यादि) ने ले लिया। अब राजा इन्हीं की मदद से प्रशासन चलाने लगा। सभा समिति का स्वरूप परिवर्तित हो गया। सभी राज संस्था जैसी बन गई तथा समिति ने दार्शनिक और धार्मिक वाद-विवाद अधिक होने लगे । यद्यपि अब भी राज्य को आमदनी का कोई निश्चित जरिया नहीं था, यथापि बलि, शुल्क और भाग के रूप में राजा को आमदनी होती थी। संग्रहीता इन्हें कर के रूप में वसूलता था, परंतु यह कर उतना अधिक नहीं था, जिसके आधार पर राजा स्थायी सेना या राज्य के प्रशासनिक अधिकारियों की बहाली कर से। न्याय-व्यवस्था एवं ग्राम्य-व्यवस्था में अब भी स्थानीय तत्त्व ही प्रधान थे, यद्यपि सिद्धांततः राजा समग्र प्रशासन का प्रधान था ।

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Anjali Yadav

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