शिक्षा के सिद्धान्त / PRINCIPLES OF EDUCATION

शिक्षा के कौन-कौन से कार्य हैं ? शिक्षा के सामान्य कार्य

शिक्षा के कौन-कौन से कार्य हैं ? शिक्षा के सामान्य कार्य
शिक्षा के कौन-कौन से कार्य हैं ? शिक्षा के सामान्य कार्य

शिक्षा के कौन-कौन से कार्य हैं ? शिक्षा के सामान्य कार्यों का वर्णन कीजिए।

‘शिक्षा’ शब्द संस्कृत की शिक्ष धातु से बना है। इसका अर्थ है- सीखना। संस्कृत में शिक्षा दो अर्थ में प्रयुक्त की जाती है-सीखना सिखाना। शिक्षा तथा विद्या, दोनों को शिक्षा के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। शिक्षा का क्या काम है ? क्या वह बालक की लिखने, पढ़ने तथा गिनने तक की योग्यता तथा क्षमता को विकसित करने तक सोमित है ? सामान्य व्यक्ति शिक्षा का अर्थ इतना ही समझता है। समाज तथा राष्ट्र के सन्दर्भ में शिक्षा की भूमिका व्यापक हो जाती है। एल० एल० जेक्स के अनुसार- “शिक्षा का कार्य बालक को इस योग्य बनाना है कि वह स्वयं के लिये चिन्तन कर सके, अच्छा मित्र बन सके एवं जीवन का आनन्द उठा सके।”डेनियल वैबस्टर की धारणा है—‘शिक्षा का कार्य भावनाओं को अनुशासित, आवेगों को नियन्त्रित, प्रेरणाओं को उत्तेजित तथा आध्यात्मिकता को विकसित करना है।” जॉन डीवी के अनुसार— “शिक्षा असहाय प्राणी के विकास में सहायता पहुँचाती है, जिससे वह सुखी, नैतिक तथा कुशल मानव बन सके।”

शिक्षा सम्पूर्ण मानव जीवन की रचनात्मक प्रक्रिया का नाम है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में— “शिक्षा से यह आशा की जाती है कि यह सन्तुलित मानव का विकास करे, बालकों को समाज के लिये लाभप्रद कार्यों को करने और सामूहिक जीवन में भाग लेने के लिये तैयार करे।”

इस विश्लेषण से शिक्षा के दो प्रकार के कार्यों का पता चलता है-

  1. शिक्षा के सामान्य कार्य ।
  2. शिक्षा के मानव जीवन में कार्य ।

अतः हम शिक्षा के दोनों प्रकार कार्यों का वर्णन करते हैं।

शिक्षा के सामान्य कार्य (General Functions of Education)

शिक्षा के सामान्य कार्य निम्नलिखित हैं-

1. जन्मजात शक्तियों का विकास पेस्टॉलॉजी के अनुसार- “शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, सामंजस्यपूर्ण और प्रगतिशील विकास है। शिक्षा, प्रेम, विशासा, तर्क, कल्पना, आत्मसम्मान आदि के गुणों के द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियों का विकास करती है।

2. सन्तुलित व्यक्तियों का निर्माण करना- शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कार्य सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण करना है। सन्तुलित व्यक्तित्व से तात्पर्य व्यक्ति के शारीरिक एवं बौद्धिक विकास से है। शिक्षा द्वारा यह कार्य हो सकता है।

3. मूल प्रवृत्तियों का प्रशिक्षण- बालक का शारीरिक विकास मूल प्रवृत्तियों के गतिशील होने पर होता है। इन मूल प्रवृत्तियों से जिज्ञासा, आत्म-प्रदर्शन और सामूहिक जीवन जैसी सहजरूप क्रियाओं के स्तर का विकस होता है। शिक्षा के द्वारा ही मूल प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण होता है और उसका पुनर्निर्देशन एवं शोधन भी होता है।

4. भावी जीवन की तैयारी करना- शिक्षा बालक को भविष्य के जीवन को व्यतीत करने के लिए तैयार करती है। मिल्टन के अनुसार, “मैं उसी को सम्पूर्ण शिक्षा कहता हूँ, जो मनुष्य को युद्ध एवं शान्ति के समय दोनों प्रकार के व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक कार्यों के लिये योग्य बनाए। “

“I call a complete education that which fits a man to perform justly all the offices, both private and public of peace and war.” -Milton

5. सांस्कृतिक वंश क्रम का निर्वाह- शिक्षा हमारी सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritages) को आगे बढ़ाती है। शताब्दियों पुराना साहित्य आज भी केवल शिक्षा के कारण ही सुरक्षित है। रीति-रिवाज, लोक साहित्य एवं संगीत, समाज परम्परायें आदि सभी शिक्षा के कारण ही समाज की गतिशीलता में बहते हुये भी सुरक्षित रहती हैं।

6. राष्ट्रीय सुरक्षा की भावना का विकास- शिक्षा के बिना राष्ट्रीय भावना व सुरक्षा के दृष्टिकोण का विकास नहीं हो सकता। शिक्षा के अभाव में ही हमारा देश शताब्दियों तक परतन्त्र रहा। आज जो हम स्वतन्त्र हैं, केवल इसलिये कि शिक्षा ने हमारी वैचारिकता को झकझोंरा है और आज राष्ट्र पर आने वाले प्रत्येक संकट का सामना हर नागरिक करने के लिये तत्पर रहता है।

7. समाज सुधार व समाज का विकास- शिक्षा के कारण सामाजिक चेतना का विकास होता है। डीवी के अनुसार, “सामाजिक चेतना से व्यक्ति शिक्षा में अति निश्चित एवं अल्पमत साधनों द्वारा सामाजिक और संस्थागत उद्देश्य के साथ-साथ समाज के कल्याण, प्रगति और सुधार में रुचि का पुष्पित होना पाया जाता है।”

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Anjali Yadav

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