सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की भाषा शैली को स्पष्ट कीजिए।
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की भाषा शैली- निराला ने अपने काव्य कौशल से भाव पक्ष की भाँति ‘सरोज स्मृति’ के कलापक्ष को यथेष्ट समृद्ध, उदात्त, गरिमाय एवं प्रभावशाली बना दिया है। शिल्प की दृष्टि से ‘सरोज स्मृति’ कविता का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं पर किया जा सकता है-
भाषा- ‘सरोज स्मृति’ की भाषा विषमतापूर्ण है। इसके दो स्तर बिल्कुल स्पष्ट हैं, जिनमें कोई मेल नहीं दिखाई पड़ता। पहला स्तर कवित्तपूर्ण भाषा का है और दूसरा बिल्कुल गद्यात्मक बातचीत वाली भाषा का है। इस दूसरी भाषा को पढ़ने से ऐसा लगता ही नहीं कि हम कोई कविता पढ़ रहे हैं। छन्द और तुक में बंधी होने के कारण उसमें हल्का-सा तनाव जरूर है। इस प्रकार की भाषा का अंश निराला के दूसरे विवाह और फिर सरोज के विवाह से सम्बन्धित है, जिसमें निराला की सास पार्वती देवी उनसे दूसरा विवाह करने का निवेदन करती हैं। निराला स्वगत भाषण करते हैं और फिर शिवशेखर द्विवेदी को समझाते हैं। डॉ० रामविलास शर्मा ने लिखा है कि संवाद-रचना में निराला सर्वाधिक कमजोर हैं, फिर भी ‘सरोज स्मृति के संवादों में प्रयुक्त भाषा कविता को कहीं से कमज़ोर नहीं करती, बल्कि छायावादी कविता के भीतर निराला के तेवर को पूरे तौर पर सामने लाती हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि कवित्वपूर्ण भाषा और गद्यात्मक भाषा के मिश्रण से निराला ने एक नये ढंग की कविता लिखी है, जो अन्य किसी छायावादी कवि ने नहीं लिखी। ध्यान देने की बात यह है कि नीरस गद्यात्मक अंशों के बीच में कभी ऐसी पंक्तियाँ आ जाती हैं जो पाठक को आलोकित और झंकृत कर देती हैं। यहाँ सास के साथ पहली बातचीत के प्रसंग की पंक्तियाँ देखिये-
आई पुतली तू खिल-खिल खिल
हँसती, मैं हुआ पुनः चेतन
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कर स्नान-शेष, उन्मुक्त केश
सासु जी रहस्य- स्मित सुवेश।
छन्द विधान- श्री नन्दकिशोर नवल ने लिखा है कि ‘सरोज स्मृति’ का छन्द ‘वैरगिया नाला जुलुम जोर’ के सोलह मात्राओं वाले एक लोक छन्द से लिया गया बतलाया गया है, लेकिन वास्तव में यह पद्धरि या पद्धरिका नामक मात्रिक छन्द है, जो सोलह मात्राओं का होता है और नियमतः इसका अन्त जगण से होता है लेकिन निराला ने इस जगण वाले नियम को नहीं माना है और स्वतन्त्रतापूर्वक चरण के अन्त में जो गण रखना चाहा है, वही रक्खा है। ‘सरोज स्मृति’ में छन्द सम्बन्धी वैषम्य इस रूप में दिखाई पड़ता है कि छन्द छोटा है, लेकिन वाक्य उसमें निराला ने बड़े-बड़े रक्खे हैं। इसीलिए वे चरण के साथ समाप्त नहीं होते और अगले चरणों में भी प्रवाहित होते रहते हैं। यथा-
जीवित-कवित्ते, शत-शर जर्जर
छोड़कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार
जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?
प्रगीतात्मकता- निराला की ‘सरोज स्मृति’ कविता एक आत्माभिव्यक्तिमूलक प्रगीतात्मक रचना है। वस्तुतः प्रगीतात्मक कविता की भाषा से गद्यात्मक वाक्य नहीं मिलते, क्योंकि उसमें यथार्थ चित्रण के स्थान पर आत्माभिव्यक्ति की प्रधानता मिलती है। इसमें एक तरफ कविता का ध्यान कविता की बुनावट पर रहा है तो दूसरी तरफ उसकी भीतरी सजावट पर कविता छन्दोबद्ध है, लेकिन वाक्य विन्यास गद्यात्मक है। यहाँ चित्रात्मकता एवं संगीतात्मकता के कुछ उदाहरण देखिये-
(1) चढ़ मृत्यु- तरणि पर तूर्ण चरण,
कह पितः, पूर्ण-आलोक-चरण ।
(2) व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल,
क्रुद्ध का रुद्ध कण्ठ-फल।
(3) कर स्नान- शेष, उन्मुक्त केश,
सासुजी रहस्य-स्मित सुवेश।
(4) उमड़ता ऊर्ध्व को कल सलील,
जल टलमल करता नील नील।
अलंकरण- निराला की ‘सरोज स्मृति’ कविता छोटी-बड़ी पच्चीकारी के साथ इस तरह अलंकृत है कि अभिव्यक्ति में एक विलक्षण सौन्दर्य उत्पन्न हो गया है। वस्तुतः निराला ने समान ध्वनियों वाले, वर्णों की योजना पर विशेष ध्यान दिया है। उन्होंने अपनी इस योजना से जब जैसा प्रभाव उत्पन्न करना चाहा है, कर लिया है। जहाँ उनकी शब्द योजना सरल है, वहाँ भी वे एक तरह की सजावट करते हैं। यथा-
खाई भाई की मार विकल,
रोई उत्पल-दल-दृग छलछल ।
इन पंक्तियों में ध्यान देने लायक बात यह है कि यहाँ ‘उत्पल-दल-दृग-छलछल’ ही नहीं, ‘खाई’ और ‘भाई’ का अनुप्रास भी है। इसी तरह निम्नलिखित पंक्तियों को देखिये, जिनमें निराला ने अनुप्रास की सुन्दर छटा बिखेरी है-
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर,
व्यतीत करता था गुन-गुन कर।
सम्पादक के गुण, यथाभ्यास,
पास की नोचता हुआ घास।
उपर्युक्त पंक्तियों में निराला के शब्दों का अलंकरण देखने लायक है। यहाँ पहले चरण में ‘र’ वर्ण की अनेक बार आवृत्ति, दूसरे चरण में ‘गुन-गुन’ की और तीसरे चरण में ‘गुण’ की में आवृत्ति। फिर तीसरे चरण के ‘यथाभ्यास’ के साथ चौथे चरण के ‘पास’ और ‘घास’ की आवृत्ति दृष्टव्य है। अतः अलंकरण की दृष्टि से भी ‘सरोज स्मृति’ कविता की सफलता असंदिग्ध है।
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