अधिगम के उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त की व्याख्या करो।
उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त को संयोजनवाद (Connectionism) भी कहते हैं। साहचर्य (Associative) सिद्धान्तों के अन्तर्गत उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त का अध्ययन किया जाता है। थार्नडाइक को इस सिद्धान्त का प्रवर्तक माना जाता है। उसने अधिगम के सिद्धान्तों के निर्माण तथा उनके व्यवहार-निरूपण पर अत्यधिक कार्य किया है। थार्नडाइक के अनुसार- “अधिगम का अर्थ है संयोग। मन मनुष्य का संयोजन मात्र है। वह संयोजन कब और किस प्रकार होता है, इसका वर्णन उसने पहले तीन नियमों के रूप में किया है- (1) तैयारी का नियम, (2) अभ्यास का नियम, (3) प्रभाव का नियम।”
थार्नडाइक के अधिगम के सिद्धान्तों एवं तथ्यों का आधार यह था कि तंत्रिका तन्त्र में उद्दीपनों और अनुक्रियाओं में संयोग बन जाते हैं। ये संयोग S. R. (Stimulus-Response) संकेतों से स्पष्ट किए जाते हैं। थार्नडाइक ने इन संयोगों को बन्ध या संयोग (Bond) प्रतीक से भी व्यक्त किया है। इसलिये थार्नडाइक का यह मत “बौन्ड थ्योरी ऑफ लर्निंग” भी कहा जाता है। थार्नडाइक ने इसलिए कहा है-“सीखना सम्बन्ध स्थापित करना है और सम्बन्ध स्थापना का कार्य मस्तिष्क करता है।” थार्नडाइक ने विभिन्न मात्रा में शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं के सम्बन्ध पर बल दिया है।
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उद्दीपन अनुक्रिया की विशेषताएँ
उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त साहचर्य सिद्धान्तों का एक अंग है, यह पहले कह चुके हैं। साहचर्य सिद्धान्त का प्रतिपादन एलेक्जेन्डर बैन (Alexander Bain) ने किया था। थार्नडाइक तथा उसके समर्थकों ने अनेक प्रयोगों द्वारा उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्तों की कतिपय विशेषताओं का पता लगाया, जो उन्हें साहचर्य के सिद्धान्तों में विशेष स्थान देते हैं। ये विशेषताएँ इस प्रकार हैं-“
1. संयोजन सिद्धान्त (Connectionism) – थार्नडाइक के परिणाम यह संकेत देते हैं कि संयोजन सिद्धान्त मनोविज्ञान के क्षेत्र में नवीन विचारधारा तो है ही, साथ ही वह अधिगम का महत्वपूर्ण सिद्धान्त भी है।
2. अधिगम ही संयोजन है (Learning is connection) – उद्दीपन सिद्धान्त के अनुसार अधिगम की क्रिया में विभिन्न परिस्थितियों के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है। थार्नडाइक ने इस सत्य का परीक्षण करने के लिये मछली, चूहों तथा बिल्लियों पर प्रयोग किए और यह निष्कर्ष निकाला कि अधिगम की क्रिया का आधार स्नायुमण्डल है। स्नायुमण्डल में एक स्नायु का दूसरी स्नायु से सम्बन्ध हो जाता है ।
3. अंगों का महत्व (Importance of Bonds) – संयोजनवाद मानव को सम्पूर्ण इकाई नहीं मानता। वह तो मानव व्यवहार का विश्लेषण करता है। यह मत पवलव (Pavlov) के अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त से सम्बन्ध रखता है। यह मत संयोगों (Bonds) को महत्व देता है तथा बुद्धि को परिमाणात्मक मानता है। जो व्यक्ति अपने जीवन में जितने अधिक संयोग स्थापित कर लेता है, उसे उतना ही अधिक बुद्धिमान माना जाता है
थार्नडाइक द्वारा किए गए प्रयोग
थार्नडाइक ने संयोजनवाद की पुष्टि के लिए अनेक प्रयोग किए हैं। थार्नडाइक ने अपने मत की पुष्टि के लिए एक प्रयोग किया। उसने एक भूखी बिल्ली को एक सन्दूक में बन्द कर दिया। यह सन्दूक इस ढंग से बनाया गया था कि अन्दर की चिटकनी पर पैर पड़ते ही वह स्वयं खुल जाए। सन्दूक के बाहर मछली का टुकड़ा रखा गया। सन्दूक ऐसा था कि उसके अन्दर बन्द बिल्ली बाहर देख सके। मछली का टुकड़ा बाहर देखकर बिल्ली को बहुत परेशानी अनुभव हुई और वह यह प्रयत्न करने लगी कि किस प्रकार सन्दूक खोल कर वह बाहर आए और मछली के टुकड़े को खाकर भूख मिटाए। उसने सन्दूक से बाहर निकलने के लिए उछल-कूद मचानी आरम्भ की उछल कूद तथा विभिन्न बटनों को दबाने की प्रक्रिया में संयोग से उसका पैर सही चिटकनी पर पड़ गया। सन्दूक खुल गया और बिल्ली बाहर आ गई। मछली का टुकड़ा खाकर उसने अपनी भूख मिटाई।
यह प्रयोग बिल्ली पर कई बार दोहराया गया। इस प्रयोग में व्यर्थ के प्रयत्नों की संख्या अधिक रही, जो धीरे-धीरे कम होती गई। एक स्थिति ऐसी भी आई, जब बिल्ली ने बिना भूल किए पहली बार में चिटकनी दबाकर सन्दूक खोल दिया।
इस प्रयोग को मानव जीवन पर इस प्रकार घटित किया जा सकता है। बालक को साईकिल चलाना सीखना है। वह बार-बार प्रयत्न करता है। साईकिल से गिरता है। कई बार उससे हैंडिल पकड़ने तथा पैडिल मारने में भूल होती है। चोटें खाता है। अन्त में, एक परिस्थिति ऐसी भी आती है जब वह बिना किसी विशेष प्रयत्न के साईकिल पर चढ़ जाता है। इन प्रयोगों में बार-बार गलतियाँ हुई। बार-बार उन्हें सुधारने का प्रयत्न किया गया। इस मत को इसीलिए ‘अन्वीक्षा एवं विप्रम’ (Trial and error) द्वारा अधिगम करना भी कहा गया है।
उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त आलोचना
1. व्यर्थ के प्रयत्नों पर बल देना- जैसा कि उपर्युक्त प्रयोगों से स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त में किसी क्रिया का अधिगम करने के लिये व्यर्थ के प्रयत्नों पर अधिक बल दिया जाता है। परिणामतः ऐसी क्रियायें, जिन्हें एक बार में अधिगम किया जा सकता है, समय नष्ट करने में योग देती हैं।
2. विवरणात्मक- यह मत किसी क्रिया के अधिगम का विवरण प्रस्तुत करता है। यह बताता है कि किसी क्रिया को किस प्रकार सीखते हैं, परन्तु क्यों सीखते हैं, इसके विषय में मौन है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह मत समस्या का समाधान प्रस्तुत नहीं करता।
3. यांत्रिक- जैसा पहले कहा जा चुका है कि इस मत का आधार स्नायुमण्डल है एवं मानव को एक यन्त्र मानता है। अतः यह आरोप भी उसी प्रक्रिया की पुष्टि करता है। मानव मशीन होता तो उसमें चिन्तन तथा विवेक न होते, केवल कार्य तथा कारण; क्रिया एवं प्रतिक्रिया ही होते।
4. रटने पर बल- यह मत यांत्रिकता पर बल देता है। शिक्षा के क्षेत्र में रटने पर इसका प्रभाव परिलक्षित होता है। रटने का प्रभाव क्षणिक होता है और भावी जीवन पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित अधिगम नियम
थार्नडाइक ने अधिगम की क्रिया में प्रभाव को अत्यधिक महत्व दिया है। उद्दीपन (Stimulation) का प्रभाव प्राणी पर अवश्य पड़ता है। उद्दीपन के कारण ही वह किसी क्रिया को सीखता भी है। प्राणी को जिस कार्य में सन्तोष प्राप्त होता है, उपयोगिता का अनुभव होता है, उस कार्य को करता है तथा उस कार्य को सीखने में रुचि भी लेता है। अनेक प्रयोगों के प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर थार्नडाइक ने कुछ प्रमुख नियमों की रचना की है, ये नियम इस प्रकार हैं-
मुख्य नियम (Main Laws)
1. प्रस्तुतता का नियम (Law of readiness) – प्रस्तुतता के नियम के बारे में थार्नडाइक ने कहा है–“जब कोई संवहन एकक, संवहन के लिए तैयार होता है तो उसके लिए संवहन सन्तोषजनक होता है, परन्तु जब कोई संवहन के लिए प्रस्तुत नहीं होता, तब उसके लिए संवहन खिझाने वाला होता है। जब कोई संवहन एकक, संवहन के लिए तैयार हो तो उसके लिए संवहन करना भी खीझ उत्पन्न करने वाला होता है। “
प्रस्तुतता-नियम का सम्बन्ध प्रभाव तथा अभ्यास से सम्बन्धित है। जब व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक रूप से कार्य करने के लिए तैयार होता है, तभी वह किसी कार्य को सफलतापूर्वक कर सकता है।
नियम को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है। नर्सरी कक्षा के बच्चों को पुस्तक पढ़ाना या अक्षर ज्ञान देना इसलिए कठिन होता है कि शारीरिक तथा मानसिक रूप से इस योग्य नहीं होते कि वे पुस्तक पढ़ सकें। इसी प्रकार 6 मास के शिशु को चलना इसलिए नहीं सिखाया जा सकता कि वह भी शारीरिक रूप से चलने के लिए प्रस्तुत नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुतता के नियम का आधार परिपक्वता है।
प्रस्तुतता के नियम का उपयोग- प्रस्तुतता के नियम का उपयोग शिक्षक द्वारा इस प्रकार किया जा सकता है-
(i) इस नियम के अन्तर्गत नवीन ज्ञान देने से पूर्व मानसिक रूप से तैयार करें। इस तैयारी में उसे बालकों के व्यक्तिगत भेदों (Individual differences) पर भी ध्यान देना चाहिए। यह देखकर नवीन ज्ञान देना चाहिए कि बालक अपेक्षित क्रिया करने के लिए तैयार हो गए हैं अथवा नहीं।
(ii) बालकों को नवीन ज्ञान सीखने अथवा नई क्रिया करने के लिए उस समय तक बाध्य न करें, जब तक कि वे मानसिक तथा शारीरिक रूप से तैयार न हों। जबरन कराए गए कार्य से उसकी शक्ति का ह्रास होता है।
(iii) बालकों की रुचि, अभिरुचि, योग्यता, क्षमता, सम्प्राप्ति आदि का परीक्षण कर लें। ऐसा करने से बालकों में निहित योग्यताओं तथा क्षमताओं का पता चल जाएगा और वे ढंग से कार्य कर सकेंगे।
2. प्रभाव का नियम (Law of effect) – थार्नडाइक ने प्रभाव के नियम की व्याख्या इस प्रकार की है-“जब एक स्थिति और अनुक्रिया के मध्य एक परिवर्तनीय संयोग (Bond) बनता है और उसके साथ ही या उसके परिणामस्वरूप संतोषजनक अवस्था पैदा होती है तो उस संयोग की शक्ति बढ़ जाती है। जब इस संयोग के साथ या इसके बाद खिझाने वाली अवस्था पैदा होती है तो उसकी शक्ति घट जाती है।”
थार्नडाइक का ऐसा विश्वास था कि जिन कार्यों को करने से व्यक्ति को संतोष मिलता है, उसे वह बार-बार करता है। जिन कार्यों से असंतोष मिलता है, उन्हें वह नहीं करना चाहता। थार्नडाइक ने चूहों पर परीक्षण किये। उसने एक ‘भूल-भूलैया’ (Puzzle box) तैयार कराई। उसमें भोजन रख दिया और चूहों को उस भूल-भूलैया में छोड़ दिया। भोजन प्राप्त करने के लिए वे चूहे प्रयत्न करते थे। जब उन्हें भूल-भूलैया में भोजन मिला, चूहों ने प्रयत्न किए। जब-जब भोजन नहीं मिला, उन्होंने असंतोष अनुभव किया और क्रिया में शिथिलता बरती।
प्रभाव के नियम का व्यावहारिक पक्ष-थार्नडाइक द्वारा प्रस्तुत प्रभाव के नियम के अधिगम का आधार प्रभाव माना है। सामान्यतः विद्यालयों एवं घरों में प्रभाव के नियम का उपयोग इस प्रकार किया जा सकता है-
(i) प्रोत्साहन- थार्नडाइक ने प्रभाव का नियम जिस ढंग से प्रस्तुत किया है, उसका आधार है, प्रोत्साहन अथवा प्रेरणा। अध्यापक किसी कार्य को सीखने के लिए जब तक बालकों को प्रेरणा नहीं देंगे, सीखी जाने वाली क्रिया के लिए वह प्रभावित नहीं होगा। क्रिया की सम्पन्नता के पश्चात् उनको चाहिए कि प्रभाव को स्थायी बनाने के लिए पुरस्कार तथा दण्ड की व्यवस्था करें। पुरस्कार तथा दण्ड से प्रभाव स्थायी हो जाते हैं।
(ii) मानसिक स्तर- अभिभावकों को चाहिए कि जो भी क्रियाएँ कराएँ, वे बालकों के मानसिक स्तर के अनुकूल होनी चाहिएँ। प्रायः देखा जाता है कि विद्यालयों एवं घरों में वैयक्तिक भेदों का ध्यान नहीं रखा जाता। यह ध्यान न रखा जाना अधिगम को सफल नहीं बनाता। अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जो क्रियाएँ बालकों के मानसिक स्तर के अनुकूल होती हैं, उनमें छात्रों को सफलता मिलती है।
(iii) शिक्षण विधि- नवीन ज्ञान देने के लिए उचित शिक्षण विधि अपनानी चाहिए। नवीनता, रोचकता आदि उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षण विधि की अनुकूलता पर विचार किया जाए।
(iv) संतोषप्रद अनुभव – ऐसी विधियाँ अपनानी चाहिएँ, जिनसे बालकों में संतोषप्रद अनुभव प्राप्त हो सकें। उनको भला-बुरा नहीं कहना चाहिए। ऐसा करने पर उनमें बड़ों के प्रति प्रन्थियाँ बन जाती हैं, जिन्हें खोलना कठिन हो जाता है। उनका सदैव यही प्रयत्न होना चाहिए कि वह बालक को संतोषप्रद अनुभव प्रदान करें।
3. अभ्यास का नियम (Law of exercise) – अभ्यास के नियम की व्याख्या थार्नडाइक ने इस प्रकार की है- (1) ‘जब एक परिवर्तनीय संयोग एक स्थिति और अनुक्रिया के बीच बनता है तो अन्य सब बातें समान होने पर उस संयोग की शक्ति बढ़ जाती है। (2) जब कुछ समय तक स्थिति और अनुक्रिया के बीच एक परिवर्तनीय संयोग नहीं बनता तो उस संयोग की शक्ति घट जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस कार्य को हम बार-बार करते हैं, उसके चिन्ह मस्तिष्क में दृढ़ हो जाते हैं। इस नियम के अन्तर्गत दो उपनियम हैं-
- उपयोग का नियम (Law of use) इस बात पर बल देता है कि मनुष्य उसी कार्य को बार-बार करता है, जिसकी वह उपयोगिता समझता है।
- अनुपयोग के नियम (Law of disuse) के अन्तर्गत अन्य बातें समान रहने पर भी यदि क्रिया अनुपयोगी होती है तो संयोगों के निर्धारण में वह क्षीण हो जाती है।’
अभ्यास के नियम का व्यावहारिक पक्ष
अन्य नियमों की भाँति अभ्यास का नियम भी इस बात पर बल देता है. कि बच्चों को सिखाई जाने वाली क्रिया को दृढ़ करने के लिए उन्हें पर्याप्त अभ्यास कराया जाए। इसके लिए आवश्यक है कि इन कार्यों पर बल दिया जाए।
(i) मौखिक अभ्यास – जो कुछ भी सिखाया जाए, उसका मौखिक अभ्यास अवश्य कराएँ। मौखिक अभ्यास से पढ़ी गई सामग्री की पुनरावृत्ति होती है और अधिगम को बल मिलता है।
(ii) पुनर्निरीक्षण – पढ़ाए गए पाठों अथवा बताए गए कार्यों का समय-समय पर पुनर्निरीक्षण अवश्य होते रहना चाहिए। इससे बालकों का मस्तिष्क, ज्ञान के प्रति सचेष्ट बना रहता है। क्रिया को दोहराने का भी अवसर मिलता है।
(III) वाद-विवाद – बालक में विषयानुकूल वाद-विवाद कराएँ। वाद-विवाद से अभ्यास तो होता ही है, तर्क, समर्थन, विमर्थन आदि से विषय को समग्र रूप से प्रस्तुत करने से वह और भी अच्छी तरह सीख जाता है।
अधिगम के गौण नियम (Subsidiary Laws of Learning)
थार्नडाइक ने तीन प्रमुख नियमों के साथ-साथ अधिगम के उपनियमों का निर्माण किया। ये उपनियम किसी रूप में मुख्य नियमों की सहायता करते हैं। ये नियम इस प्रकार हैं-
1. मानसिक स्थिति (Mental set) – इस नियम का सम्बन्ध अधिगम (Learning) की मानसिक स्थिति से है। यह नियम प्रस्तुतता के नियम का अंग है। यदि बालक मानसिक रूप से किसी क्रिया को सीखने के लिए तैयार नहीं हैं, तो वे नवीन कार्य तथा तत्सम्बन्धी क्रिया को नहीं सीख सकेंगे ।
2. बहुविधि अनुक्रिया (Multi response) – इस नियम का आधार है, बालकों से अनेक प्रकार की अनुक्रियाएँ प्राप्त करना। इस नियम का मूल है अभ्यास का नियम किसी विषय को आरम्भ करने से पूर्व बालकों से समस्या से सम्बन्धित प्रश्न किए जाते हैं। वे उनके उत्तर देते जाते हैं। ये उत्तर अनेक होते हैं और इनमें व्यर्थ के उत्तर कम होते जाते हैं और वे सही उत्तर देने लगते हैं। इस नियम में अध्यापक तथा शिक्षित माता-पिता द्वारा मार्ग-प्रदर्शन ( Guidance) को अधिक महत्व दिया जाता है।
3. आंशिक क्रिया (Partial activity) – इस नियम के अन्तर्गत क्रिया को छोटी-छोटी अनेक उपक्रियाओं में विभक्त कर लिया जाता है। बालकों को छोटे-छोटे खण्डों में सामग्री को विभक्त करके सिखाना चाहिए। इससे समय की बचत होती है।
4. सात्मीकरण (Assimilation) – इस नियम के अन्तर्गत क्रिया को जीवन से सम्बन्धित किया जाता है। इस नियम का आधार पूर्व-ज्ञान तथा पूर्वानुभव है। पढ़ाते समय विषय की समानता तथा असमानता का जीवन से सम्बन्ध बताना आवश्यक है।
5. साहचर्य परिवर्तन (Shifting of association) – इस नियम के अन्तर्गत प्राप्त ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थितियों में किया जाता है। ऐसा तभी होगा जब बालकों के समक्ष वैसी परिस्थिति रखी जाएगी।
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