अभिप्रेरणा की परिभाषा दीजिए। अधिगम में अभिप्रेरणा का क्या स्थान और महत्व होता है ?
विद्यालय में जो भी ज्ञान दिया जाता है या क्रिया सिखाई जाती है, उसके विकास का पूरा दायित्व अभिप्रेरणा पर है। इसीलिए अभिप्रेरणा का महत्व अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है। मैककोनेल ने कहा है— “जीव को अधिगम के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।” मेल्टन के अनुसार- “यदि अभिप्रेरण दिया जाए तो अधिगम सर्वोत्तम होगा।” हैरिस ने कहा है- “अभिप्रेरणा की समस्या शिक्षा मनोविज्ञान और कक्षा-शिक्षण की प्रक्रिया, दोनों के लिए केन्द्रीय महत्व की है।” गेट्स ने इसे स्वतन्त्र समाज में एक अच्छे कार्यक्रम की केन्द्रवर्ती समस्या के रूप में स्वीकार किया है। अधिगम के लिए अभिप्रेरणा अनिवार्य है। यह मूल व्यवहार और उसके विभिन्न स्वरूपों की पूर्ववर्ती सक्रिय पृष्ठभूमि का प्रतिनिधित्व करता है। केली ने इसे अधिगम-प्रक्रिया की कुशल और सुचारु व्यवस्था में केन्द्रीय कारक के रूप में स्वीकार किया है। सभी अधिगमों में किसी न किसी प्रकार का अभिप्रेरण आवश्यक है।
अभिप्रेरणा अधिगम का आवश्यक नहीं, सहायक अंग है। इसके द्वारा किसी क्रिया को सीखने के लिए उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है। विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए परीक्षा समय रात-रात भर पढ़ते हैं। परीक्षा में उत्तीर्ण होने का मोह इतना अधिक होता है कि ये ‘येन केन प्रकारेण’ अनुचित साधनों का उपयोग भी करते हैं और बहुत अधिक जोखिम उठाते हैं। दर्शकों से प्रेरणा पाकर खिलाड़ी मैच में कुशलता का प्रदर्शन करते हैं।
अध्यापक का कार्य भी नवीन ज्ञान तथा क्रिया को छात्रों को बताना है। अध्यापक के समक्ष सदैव यह प्रश्न रहा है। कि किस प्रकार उस ज्ञान से परिचय कराए ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर अभिप्रेरणा से मिलता है। अध्यापक के समक्ष दो प्रश्न नवीन ज्ञान देते समय सदैव विद्यमान रहते हैं। पहला प्रश्न है—छात्र किसी कार्य को क्यों करते हैं ? दूसरा प्रश्न है—छात्रों को क्या सिखाया जाए ? अध्यापक यदि इन दो प्रश्नों का हल अपनी कार्य प्रणाली द्वारा प्रस्तुत नहीं कर सकता तो इसका अर्थ यह है कि वह शिक्षण में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। शिक्षण की सफलता के लिए आवश्यक है कि अध्यापक छात्रों को नवीन ज्ञान के प्रति प्रेरित करें और प्रेरित हो जाने के पश्चात् वह ज्ञान दे। इसलिए-‘ अभिप्रेरणा प्राणी की वह आन्तरिक स्थिति है, जो प्राणी में क्रियाशील उत्पन्न करती है और लक्ष्य प्राप्ति तक चलती रहती है।’
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अभिप्रेरणा: परिभाषाएँ
1. बर्नार्ड- अभिप्रेरणा द्वारा उन विधियों का विकास किया जाता है, जो व्यवहार के पहलुओं को प्रभावित करती हैं।
2. जॉनसन- अभिप्रेरणा-सामान्य क्रिया-कलापों का प्रभाव है, जो मानव के व्यवहार को उचित मार्ग पर ले जाती है।
3. मैगोच- अभिप्रेरणा शरीर की वह दशा है, जो दिए गए कार्य के अभ्यास की ओर संकेत करती है और उसके संतोषजनक समापन को परिभाषित करती है।
4. वुडवर्थ– अभिप्रेरणा व्यक्तियों की दशा का वह समूह है, जो किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए निश्चित व्यवहार को स्पष्ट करती है।
5. शेफर तथा अन्य- अभिप्रेरणा क्रिया की एक ऐसी प्रवृत्ति है, जो कि प्रणोदन (Drives) द्वारा उत्पन्न होती है एवं समायोजन (Adjustment) द्वारा समाप्त होती है।
6. मैक्डूगल- अभिप्रेरणा वे शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक दशाएँ हैं, जो कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।
7. एम० के० थामसन- अभिप्रेरणा आरम्भ से लेकर अन्त तक मानव व्यवहार के प्रत्येक प्रतिकारक को प्रभावित करती है, जैसे- अभिवृत्ति, आधार, इच्छा रुचि, प्रणोदन, तीव्र इच्छा, आदि जो उद्देश्यों से सम्बन्धित होती हैं।
8. गिलफोर्ड- अभिप्रेरणा एक कोई भी विशेष आन्तरिक कारक अथवा दशा है, जो क्रिया आरम्भ करने अथवा बनाए रखने को प्रवृत्त होती है।
इन परिभाषाओं का यदि हम विश्लेषण करें तो ये आधार प्रकट होंगे-
- अभिप्रेरणा साध्य नहीं साधन है। वह साध्य तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करती है।
- अभिप्रेरणा अधिगम का मुख्य नहीं, सहायक अंग है।
- अभिप्रेरणा व्यक्ति के व्यवहार को स्पष्ट करती है।
- अभिप्रेरणा से क्रियाशीलता प्रगट होती है।
- अभिप्रेरणा पर शारीरिक तथा मानसिक, बाह्य एवं आन्तरिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है।
अभिप्रेरणा : विभिन्न मत
अभिप्रेरणा के विषय में अनेक मत तथा धारणाएँ समाज में प्रचलित रही हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
1. भाग्यवादी (Pawn of fate) मत- मनुष्य किसी भी कार्य को इसलिए करता है कि वह उसके भाग्य में है। यह मत दैवी शक्तियों और उसके प्रभाव पर आधारित है। यह मत इस बात पर बल देता है—’मानव’ दैवी शक्तियों के हाथ की कठपुतली है और अभिप्रेरणा व्यक्ति की बाह्य शक्ति है। (Man is the puppet in hands of gods and motivation is outside the person.) यह मत भाग्य में लिखे पर ही बल देता है।
2. मानव तर्क युक्त ( Rational) है- मानव में समय के विकास के साथ-साथ यह विचार विकसित हुआ कि मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। वह किसी भी कार्य के औचित्य को तर्क द्वारा भी निर्मित कर सकता है। इस मत का आधार मानव मस्तिष्क है। मनुष्य का व्यवहार उसके मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर निर्भर करता है।
3. मानव एक यन्त्र (Machine) है – वैज्ञानिकों ने मनुष्य को एक यन्त्र माना है। इस यन्त्र का संचालन उद्दीपनों (Stimuli) द्वारा होता है। व्यवहारवादियों के अनुसार-मनुष्य, वातावरण के विभिन्न उद्दीपनों से क्रियाशील होता है।
4. मानव पशु (Animal) है – इस मत का प्रतिपादन डार्विन ने किया था। उसके अनुसार पशुओं और मनुष्यों की क्रियाओं में कोई भेद नहीं है। मानव का विकास पशुओं से ही हुआ है। डार्विन शक्तिशाली की विजय (Survival of the fittest) में विश्वास करता था। डार्विन के सिद्धान्त के अनुसार तीन बातें प्रमुख हैं—(1) शारीरिक प्रणोदन (Biological 2 Drives) जो व्यक्ति को क्रियाशील बनाते हैं। भूख, प्यास, भय आदि इसी प्रणोदन से दूर होते हैं। (2) अर्जित प्रणोदन (Acquired Drives) जो शारीरिक प्रणोदन से ही उत्पन्न होते हैं। (3) पशु और मनुष्य की मूलप्रवृत्तियाँ एक-सी हैं।
5. मानव सामाजिक (Social) प्राणी है- मनुष्य का जन्म समाज में होता है और समाज में ही वह उसकी मान्यताओं के अनुसार ही अपना विकास करता है। सामाजिक नियमों के अनुसार स्वयं को समायोजित करता है। मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक प्रभावों से कार्य करने के लिए अभिप्रेरित होता है।
6. अचेतनता (Unconscious) का मत – फ्रायड (Frued) ने इस मत का प्रतिपादन किया था। मानव की क्रियाशीलता का एक मात्र कारक उसकी अचेतन अभिप्रेरणा है। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य कई कार्य ऐसे करता है, जिनके कारणों का उसे स्वयं पता नहीं होता। उसे व्यवहार की अचेतन शक्तियाँ नियन्त्रित करती हैं। इस मत के अनुसार अपनी अभिप्रेरणा, स्रोत व्यक्ति स्वयं ही है।
अभिप्रेरणा : सम्बन्धित शब्द
अभिप्रेरणा के विवेचन में कई शब्द बार-बार आते हैं। इन शब्दों की व्याख्या एवं जानकारी आवश्यक है। ये शब्द इस प्रकार हैं-
1. मानसिक स्थिति (Mental Set) – इस शब्द का अर्थ है व्यक्ति का मानसिक रूप से स्वस्थ होना। मनुष्य जब तक मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं होगा, तब तक वह किसी भी कार्य को करने के लिए अभिप्रेरित नहीं होगा।
2. प्रोत्साहन (Incentives) – प्रोत्साहन (Incentives) अभिप्रेरकों (Motives) को विकसित करने में बहुत सहयोग देते हैं। प्रोत्साहन का सम्बन्ध कार्य या वस्तुओं से होता है। व्यक्ति उनको प्राप्त करने में पूरी रुचि दिखाता है। प्रोत्साहन का सम्बन्ध बाह्य परिस्थितियों से होता है।
3. प्रणोदन (Drives) – प्राणी की आवश्यकताओं से प्रणोदन की उत्पत्ति होती है। पानी की आवश्यकता से प्यास, भोजन की आवश्यकता से भूख की उत्पत्ति होती है। इसलिए प्रणोदन के बारे में विद्वानों ने कहा है-
1. शैफर गिबनर एवं सेहोन के अनुसार- “प्रणोदन वह शक्तिशाली उद्दीपन है, जो माँग एवं उसकी अनुक्रिया उपस्थित करता है।”
2. बोरिंग, लैंगफील्ड एवं वील्ड के अनुसार- “प्रणोदन आन्तरिक शारीरिक क्रिया या दशा है, जो उद्दीपन के द्वारा विशेष प्रकार का व्यवहार उत्पन्न करती है।”
प्रणोदन, शारीरिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए प्रेरित करते हैं। यदि प्रणोदन न हो तो व्यक्ति सज्ञाहीन हो जाए। डैशिल के अनुसार- “मानव जीवन में प्रणोदन शक्ति का मूल स्रोत है, जो कि जीव किसी क्रिया को करने के. लिए प्रेरित करता है। “
1. साइमॉन्ड (Symonds) द्वारा किया गया वर्गीकरण- (1) सामूहिकता (Gregariousness), (2) अवधान केन्द्रियता (Attention getting), (3) सुरक्षा (Safety), (4) प्रेम (Love), (5) उत्सुकता (Curiosity) ।
2. कैरॉल (Caroll) द्वारा किया गया वर्गीकरण- (1) संवेगात्मक सुरक्षा (Emotional security), (2) ज्ञान प्राप्ति ( To gain Knowledge), (3) समाज में स्थान प्राप्त करना (Position in the society), (4) शारीरिक सन्तोष (Physical satisfaction) I
3. थोप (Throp) द्वारा किया गया वर्गीकरण– (1) शारीरिक क्रियाएँ (Physical activities), (2) जीवन के उद्देश्य एवं कार्य ( Aims and functions of life), (3) कार्य में स्वतन्त्रता (Freedom in activity) |
अभिप्रेरणा, सीखने का महत्वपूर्ण तत्व है। इसके लिए अनेक विधियाँ, शिक्षक, कक्षा में अपनाता है। कुप्पू स्वामी ने सही कहा है-“हमारे विद्यालयों में वास्तविक तथा स्थायी अभिप्रेरकों को देने के प्रयासों की जरूरत है।”
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