शिक्षाशास्त्र / Education

आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्य | Objectives of Idealistic Education in Hindi

आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्य | Objectives of Idealistic Education in Hindi
आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्य | Objectives of Idealistic Education in Hindi

आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए।

शिक्षा के उद्देश्य

आदर्शवादियों के अनुसार मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मा-परमात्मा के चरम स्वरूप को जानना है, इसी को आत्मानुभूति, आदर्श व्यक्तित्व की प्राप्ति, ईश्वर की प्राप्ति, आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति अथवा परम आनन्द की प्राप्ति कहा जाता है। अब प्रश्न उठता है कि आत्मा-परमात्मा के चरम स्वरूप को कैसे जाना जा सकता है ? आदर्शवादियों के अनुसार इसके लिए मनुष्य को चार सोपान पार करने होते हैं। प्रथम सोपान पर उसे अपने प्राकृतिक ‘स्व’ का विकास करना होता है। इसके अन्तर्गत मनुष्य का शारीरिक विकास आता है। दूसरे सोपान पर उसे अपने सामाजिक ‘स्व’ का विकास करना होता है। इसके अन्तर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, चारित्रिक एवं नागरिकता का विकास आता है। तीसरे सोपान पर उसे अपने मानसिक ‘स्व’ का विकास करना होता है। इसके अन्तर्गत मानसिक, बौद्धिक एवं विवेक शक्ति का विकास करना होता है। और चौथे तथा अन्तिम सोपान पर उसे अपने आध्यात्मिक ‘स्व’ का विकास करना होता है। इसके अन्तर्गत आध्यात्मिक चेतना का विकास आता है। आदर्शवादी इन्हीं सबको शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करते हैं। यहाँ इन पर थोड़ा विचार करना आवश्यक है।

1. शारीरिक एवं मानसिक विकास- आदर्शवादी यह मानते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति के लिए सबसे पहली आवश्यकता मनुष्य के प्राकृतिक ‘स्व’ के विकास की है इसलिए वे शिक्षा द्वारा सर्वप्रथम मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर बल देते हैं। कोई मनुष्य अपना शारीरिक एवं मानसिक विकास तभी कर सकता है जब वह ऐसा आहार ले एवं ऐसे विचार करे जो शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी हों और अन्यथा आहार एवं विचार पर नियन्त्रण रखे। परन्तु शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए शारीरिक एवं मानसिक विकास की बात उन्हें मान्य नहीं है। उनके लिए शरीर और मन आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति का साधन है, स्वयं में साध्य नहीं। प्लेटो ने स्वयं अपनी अकादमी में बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर बल दिया था पर वे इसे शिक्षा का एक सहायक उद्देश्य मानते थे, मुख्य उद्देश्य नहीं। आज के आदर्शवादी भी इसे शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य तो निश्चित करते हैं परन्तु उसे स्वीकार साधन के रूप में ही करते हैं।

2. सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास- आदर्शवादियों के अनुसार आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति के मार्ग का दूसरा सोपान सामाजिक ‘स्व’ है अतः शिक्षा को मनुष्य के सामाजिक ‘स्व’ का विकास करना चाहिए। सामाजिक ‘स्व’ के विकास का अर्थ है मनुष्य समाज द्वारा स्वीकृत नियमों का पालन करता है, उसकी पसन्द सामाजिक स्वीकृति-अस्वीकृति पर निर्भर करती है। इस स्तर पर मनुष्य अपने प्राकृतिक ‘स्व’ (मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार) पर नियन्त्रण करता है।

इसे ही आज समाजशास्त्रीय भाषा में सामाजिक विकास कहते हैं। आदर्शवादी यह बात मानते हैं कि मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता उसकी संस्कृति है; रहन-सहन एवं खान-पान की विधियाँ, रीति-रिवाज, भाषा, साहित्य, कला, संगीत और मूल्य हैं। ये ही उसे प्राकृतिक ‘स्व’ से सामाजिक ‘स्व’ की ओर अग्रसर करते हैं और सामाजिक ‘स्व’ से आध्यात्मिक ‘स्व’ की ओर अग्रसर करते हैं। इसलिए वे शिक्षा द्वारा मनुष्य की संस्कृति के संरक्षण और विकास पर बल देते हैं और इसे शिक्षा का एक उद्देश्य निश्चित करते हैं। इंग्लैण्ड के सर टी. पी. नन तो इसे शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मानते थे।

3. नैतिक एवं चारित्रिक विकास- आदर्शवादी मनुष्य के सामाजिक ‘स्व’ के उच्चतम विकास के लिए उसके नैतिक एवं चारित्रिक विकास पर बल देते हैं। उनका स्पष्टीकरण है कि जब मनुष्य सामाजिक नियमों में आस्था रखता है और उनका पालन स्वेच्छा से करता है तब हम कहते हैं कि उसका नैतिक विकास हो गया है और जब किसी भी परिस्थिति में वह सदमार्ग पर अडिग रहता है तो हम कहते हैं कि उसका चारित्रिक विकास हो गया है। प्लेटो व्यक्ति, समाज और राज्य सभी की दृष्टि से नैतिकता को परमावश्यक मानते थे। जर्मन शिक्षाशास्त्री हरबार्ट तो नैतिक विकास को ही शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य मानते थे।

4. राज्य के लिए विशेषज्ञों का निर्माण- हम जानते हैं कि मनुष्य ने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में एक उच्च सामाजिक जीवन का विकास किया है और उसकी समुचित व्यवस्था के लिए राज्य का विकास किया है। इस संश्लिष्ट समाज अथवा राज्य के अस्तित्व की रक्षा और उसके संचालन के लिए प्रत्येक समाज अथवा राज्य को विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। प्लेटो के अनुसार राज्य को, सैनिक, व्यापारी, शासक और सेवक आदि सभी चाहिए। अतः शिक्षा का एक उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों के लिए विशेषज्ञों का निर्माण करना होना चाहिए। इसके लिए उन्होंने निम्न बौद्धिक स्तर परन्तु शरीर से हृष्ट-पुष्ट व्यक्तियों के लिए सैनिक शिक्षा, उससे ऊँचे बौद्धिक स्तर के व्यक्तियों के लिए उत्पादन एवं उद्योग की शिक्षा और उससे ऊँचे बौद्धिक स्तर के व्यक्तियों के लिए प्रशासनिक शिक्षा का विधान किया था।

5. श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण- प्लेटो, हीगल और फिश्टे आदि अनेक आदर्शवादी दार्शनिकों ने राज्य को सर्वोच्च सत्ता माना है। उनकी दृष्टि से शिक्षा का एक उद्देश्य राज्य के लिए श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण करना होना चाहिए। श्रेष्ठ नागरिकों से उनका तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों से था जो राज्य के प्रति समर्पित होते हैं, राज्य के उत्थान के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। और राज्य हित के आगे अपने हित का त्याग करते हैं। यह वह स्थिति है जब व्यक्ति अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ की ओर बढ़ता है। साफ जाहिर है कि ऐसे व्यक्तियों का सामाजिक ‘स्व’ विकसित होता है।

6. बुद्धि एवं विवेक शक्ति का विकास- आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति का तीसरा सोपान है-बौद्धिक ‘स्व’ का विकास। (यह वह स्थिति है जब मनुष्य का व्यवहार सामाजिक स्वीकृति-अस्वीकृति अथवा राज्य के नियमों से नियन्त्रित न होकर उसकी बुद्धि एवं विवेक से नियन्त्रित होता है। प्लेटो का तर्क है कि मनुष्य की बुद्धि एवं विवेक उसके समस्त आदर्शों, कृत्यों और आध्यात्मिक चेष्टाओं का आधार होते हैं। उनका तर्क है कि बिना बुद्धि के ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के विवेक नहीं हो सकता और बिना विवेक के सत्य-असत्य, शिव-अशिव और सुन्दर-असुन्दर में भेद नहीं किया जा सकता और सत्यम् शिवम्, सुन्दरम् की प्राप्ति नहीं की जा सकती, अतः शिक्षा के द्वारा मनुष्य की बुद्धि एवं विवेक शक्ति का विकास किया जाना चाहिए। जर्मन दार्शनिक कान्ट तो सबसे अधिक बल मनुष्य के बौद्धिक विकास पर ही देते थे।

7. आध्यात्मिक चेतना का विकास- आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति के मार्ग का चौथा और अन्तिम सोपान है- आध्यात्मिक ‘स्व’ का विकास आदर्शवादियों का विश्वास है कि जब मनुष्य अपने प्राकृतिक ‘स्व’ एवं सामाजिक ‘स्व’ से ऊपर उठकर अपने बौद्धिक ‘स्व’ से नियन्त्रित होने लगता है तो उसके बाद वह धीरे-धीरे स्वतः आध्यात्मिक ‘स्व’ के क्षेत्र में प्रवेश करने लगता है। प्लेटो ने स्पष्ट किया कि मनुष्य की प्रवृत्ति सत्यं शिवं और सुन्दरम् की ओर झुकी होती है, वह सदैव सत्य की खोज के लिए प्रयत्नशील रहता है और जो कल्याणकारी एवं सुन्दर है, उसको स्वीकार करता है और जो कल्याणकारी एवं सुन्दर नहीं है, उसका त्याग करता है। आदर्शवादी, मनुष्य को इस प्रक्रिया में प्रशिक्षित करने पर बल देते हैं। ऐसा मनुष्य ही चिर सत्य, चिर शिव और चिर सौन्दर्य की खोज कर सकता है अर्थात् आत्मा परमात्मा को जान सकता है क्योंकि अपने निरपेक्ष रूप में सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् आत्मा-परमात्मा को ही प्राप्त हैं।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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