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कबीरदास की भक्ति भावना
कबीर ज्ञानी होने के साथ ही साथ भक्त और विरक्त भी थे। वे निर्गुण निराकार ब्रह्म को मानने वाले थे, किन्तु वैष्णव स्वामी परमानन्द से उन्होंने भक्ति का जो वरदान प्राप्त किया वह अद्वितीय था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनकी भक्ति के सम्बन्ध में लिखा है कि-
“यह (भक्ति) योगियों के पास नहीं थी। सहजयानी सिद्धों के पास नहीं थी, कर्मकाण्डियों के पास नहीं थी, पण्डितों के पास नहीं थी, मुल्लों के पास नहीं थी, काजियों के पास नहीं थी। इस परम अद्भुत रत्न को पाकर कबीर कृतकृत्य हो गये । भक्ति भी किसकी है राम नाम की। ” कबीर व्यक्तिगत साधना के समर्थक और ज्ञानमार्गी थे। इसीलिये उन्होंने राम से अपने कई नाते-पिता, पति, पुत्र और सेवक आदि स्थापित किये। वे प्रदर्शन को भक्ति का अंग मानने के लिए तैयार नहीं थे। यद्यपि कबीर ने भक्ति को दुःसाध्य कहा है किन्तु उसे सुलभ और सहज मानते हुए उसकी उपयोगिता को स्वीकार किया है फिर भी वे उसे (अन्ध-भक्ति) के रूप में मानने को तैयार नहीं। उन्होंने ‘ज्ञान- भक्ति’ को श्रेयस्कर माना है।
कबीर की यह मान्यता है कि भक्ति नितान्त निष्काम होनी चाहिए। निष्काम भक्ति से ही स्वाभाविक सरल वृत्तियाँ जागृत होती हैं और प्रभु की अनुभूति का मार्ग सुलभ हो जाता है। भक्त केवल भक्ति चाहता है, स्वर्ग नहीं। ज्ञान लाभ के बाद मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है। इसीलिए कबीर दास मृत्यु के पश्चात् मोक्ष पाने के प्रश्न को श्रेयकर नहीं मानते।
सहज प्रेम भक्ति
कबीर ने सिद्धों, नाथ-पंथियों, सूफियों तथा वैष्णवों के भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों को अपनाकर भक्ति का एक ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जो सभी को सुलभ और ग्राह्य हो सके। ब्रह्म को निराकार कहते हुए भी उन्होंने उनका वर्णन साकार की भाँति ही किया है और ब्रह्म के अवतारी नामों को रघुनाथ, रघुराव, राम, मुरारि, हरि, नारायण, गोविन्द, राजाराम आदि रूपों में ही स्वीकार किया है। इन नामों के द्वारा पौराणिक आख्यानों में भक्तों की रक्षा के लिये उनके द्वारा किये गये कार्यों की ओर संकेत भी किया है। कबीर की इस भक्ति पद्धति में मायावाद और अद्वैतवाद का सम्मिश्रण हुआ है। कबीर की भक्ति का आधार अव्यक्त और निर्गुण है, किन्तु उसमें वैष्णवों की वह माधुर्य भावना समाहित है, जो हृदय में रस की सृष्टि करके प्रेमी को भगवान के प्रेम में तन्मय कर देती है। वैष्णवों में भक्ति के जो नौ रूप (नवधाभक्ति) माने गये हैं, यह कबीर साहित्य में सर्वथा उपलब्ध हैं श्रीमद्भागवत में नवधा भक्ति इस प्रकार बताई गई है-
श्रवण कीर्तन विष्णोः स्मरण पाद सेवनम् ।
अर्चने वन्दने दास्ये सख्यामात्मनिवेदनम् ॥
अर्थात् श्रवण, कीर्तन, स्मरण, चरण सेवन, अर्चन, चन्दन, दास्य संख्य तथा आत्मनिवेदन भक्ति के ये सभी रूप कबीर को साखियों में प्राप्त हो जाते हैं। कबीर की सहज भक्ति प्रेमपथ पर चलकर अपने अराध्य तक पहुंचते हैं। उन्होंने लिखा है कि-
अब हरि हूँ अपनी करि लीनों।
प्रेम भगति मेरी मन भीनों ।।
उनकी सहज प्रेमभक्ति कान्ताभाव से आत्म-समर्पण करके भी अपने आराध्य से किसी भी प्रकार का सांसारिक प्रतिदान नहीं चाहती। वह पूर्ण निष्काम है। वे कहते हैं-
‘का माँगू कुछ थिर न रहाई, देखत नैन चल्यो जग जाई ।’
नारदीय भक्ति-कबीर ने नारदीय भक्ति को श्रेष्ठ बताया है। उन्होंने कहा भी है कि-
‘भगति नारदी मगन सरीरा इह विधि भव तरि कहै कबीरा।
डॉ० त्रिगुणायत ने नारदीय भक्ति के आधार पर भक्ति के ग्यारह प्रकार माने हैं-गुणामाहात्म्यसाक्ति, रूपासक्ति, पूजा सक्ति, स्मरण सक्ति, दास्यासक्ति, संख्यासक्ति, कांतासक्ति, वात्सल्या सक्ति, तन्मयासक्ति, परमविरहासक्ति और आत्म निवेदन सक्ति ।
कबीर की भक्ति में प्रेम की उत्कृष्टता है।
विरह की तीव्रता को देखकर कतिपय विद्वानों ने इसे सूफी प्रभाव माना है किन्तु प्रियतम से तादात्म्य की ऐसी ही तड़प या बेचैनी नारदीय भक्ति सूत्र में भी बताई गई है। केवल यही है कि सूफियों की भाँति कबीर ने भी विरह को गुरु की देन माना है। कुसंग त्यागकर ईश्वर और साधु कृपा से जीव पूर्व जन्म के संस्कारों के वशीभूत होकर भक्ति की चेष्टा करता है। किन्तु सांसारिक मायाजाल में पड़े हुए लोग प्रेम की पवित्रता का विधिवत् निर्वाह नहीं करते। सच्चे भक्त प्रेम में विभोर होकर अपने शरीर की चिन्ता और आशा छोड़ देता है।
कबीर ने निष्काम भक्ति का महत्व बताते हुए अनासक्त भाव का प्रतिपादन किया है। उनके विचार से प्रेम लक्षणा भक्ति का थोड़ा सा समय भी जीवन को श्रेष्ठ बना सकता है। भक्ति में सुख-दुःख की कल्पनाओं को कोई स्थान नहीं देना चाहिए और निष्ठापूर्वक भगवान में विश्वास रखते हुए मन को दृढ़ करना चाहिए। कबीर ने लिखा है कि-
दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै, दुख काहे को होय ॥
वस्तुतः कबीर की सहज प्रेमभक्ति का नाम ही नारदीय भक्ति है। इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। नारद का तात्पर्य यह है कि जिस रूप में ब्रज की गोपियों ने भगवान कृष्ण की भक्ति की वही परम प्रेम रूपा भक्तिश्रेष्ठ है। गोपियों और भगवान कृष्ण का जो अन्योन्याश्रित प्रेम-भाव श्रीमद्भगवत् के दशम स्कन्ध में निरूपित है, वही प्रेम रूपा भक्ति का साध्य है। वस्तुतः कबीर की भक्ति साधना का भी लक्ष्य यही था। कबीर ने भक्ति की प्रेरणा के तीन मूल स्रोत माने हैं-
(1) भगवत्कृपा- भगवान की कृपा से जिसे भक्ति का वरदान मिलता है, वही अविचल होकर भक्ति पथ पर चल सकता है। किसी प्रकार का प्रलोभन या भय उसे विचलित नहीं कर सकते हैं। कबीर ने कहा है-
“जिसहि चलावै पंथ तू, तिसहि भुलावै कौंण ।’
(2) गुरुकृपा- शिष्य के हृदय में प्रेम-भाव लगाकर गुरु ही भक्ति की प्रेरणा देता है। और भक्त भगवन्नाम को स्मरण करता हुआ भक्ति का मार्ग पकड़ लेता है। बिना गुरु की कृपा से यह कार्य सम्भव नहीं है।
संसार की असारता का ज्ञान- संसार की असारता का ज्ञान होने पर भक्ति जाग्रत होती है। ज्ञान वैराग्य पैदा होने पर ईश्वर के प्रति प्रेम और आकर्षण उत्पन्न होता है। यही प्रेम भावना दृढ़ होने पर आनन्द या मुक्ति का द्वार दिखाती है और जीव आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार कबीर ने भक्ति को वह साधन माना है जो भगवान के स्वरूप का ज्ञान कराती है। किन्तु साध्य रूप में वह भगवान या भक्त से अभिन्न होती है। कबीर की सहज भक्ति सदैव बीच का रास्ता अपनाती है। कबीर के सामने कछुए की भाँति गर्दन सिकोड़ने वाला हिन्दू धर्म तथा गर्दन पर तलवार चलाने वाला नृशंस इस्लाम धर्म विद्यमान था। दोनों एक-दूसरे को काट रहे थे। परिणामतः कबीर ने देश-काल के लिए हिन्दू और इस्लाम धर्म के बीच का रास्ता अपनाया। उन्होंने अपनी सहज प्रेम भक्ति में न तो जाति, व्रत, उपवास, संध्या, गायत्री आदि को स्थान दिया और न रोजा, नमाज को ही स्वीकारा। उन्होंने आत्मस्थ तीर्थ की महत्ता पर जोर देते हुए कहा-
“सबके घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि”
अतः तीर्थाटन, रोजा, नमाज़ आदि करते रहने पर भी यदि मन की शुद्धि न हुई तो सब कुछ बेकार है। अतः उन्होंने धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में वर्ण व्यवस्था, प्रतिमा पूजन एवं बाहरी कर्मकाण्ड के प्रदर्शन की तीव्र आलोचना की। इसके अतिरिक्त स्वामी रामानुजाचार्य एवं स्वामी रामानन्द के विचारों को व्यावहारिक रूप देकर जनता में फैलाया। उनकी भक्ति में भक्ति, ज्ञान एवं कर्म का समन्वित रूप मिलता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि- “धर्म का प्रवाह ज्ञान और भक्ति इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। कर्म के बिना वह लूला-लंगड़ा, ज्ञान के बिना अधा और भक्ति के बिना हृदय-विहीन तथा निष्माण रहता है। यही कारण है कि कबीर ने भक्ति, ज्ञान तथा कर्म का एक समन्वित रूप प्रस्तुत किया है।
अन्ततः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि कबीर ने सहज भक्ति को सर्वोपरि बताकर प्राप्ति अथवा आत्म निवेदन की महत्ता प्रतिपादित की है और भक्ति के अन्य उपकरणों को भी मान्य ठहराया है। इस सम्बन्ध में डॉ० गोविन्द त्रिगुणायत का कथन है-
“कबीर की भक्ति की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। यह भारतीय होकर भी सार्वलौकिक और सार्वभौमिक है। यह अत्यन्त सहज और सरल होकर भी ‘खड्ग की धार’ के समान कठिन और कष्टसाध्य है। इसका कारण यही है कि यह प्रधान है। बाह्य विधि-विधानों का उसमें कोई स्थान नहीं है। इसमें सर्वत्र सदाचरण, सहजोपासना आदि पर विशेष जोर दिया गया है।”
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