केन्द्र राज्य विधायी संबंधों का वर्णन कीजिए।
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केन्द्र राज्य विधायी संबंध
विश्व का कोई भी संघीय शासन प्रणाली वाला देश आज यह दावा नहीं कर सकता कि वह केन्द्र-राज्य मतभेदों की समस्या से पूर्णतया उन्मुक्त यथार्थ में भारतीय संघ व्यवस्था, जिसका आधार परस्पर सामंजस्यपूर्ण हिस्सेदारी की भावना है, को तनावों को संस्थाकरण (Institutionalized tensions) करने वाली व्यवस्था भी कहा जा सकता है।
भारतीय संविधान ने संघ राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण की एक अधिक निश्चित सुस्पष्ट योजना अपनाई है। भारतीय संविधान ने संघ व राज्यों विधायी सम्बन्धों के संचालन के लिए तीन सूचियों का प्रावधान किया है, ये हैं-
1. संघ सूची (Union List) – इस सूची में राष्ट्रीय महत्व के विषयों को रखा है। इस सूची के सभी विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार संघीय संसद को प्राप्त है। इस सूची में कुल 97 विषय हैं जिनमें कुछ प्रमुख ये हैं- रक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध व सन्धि, देशीयकरण व नागरिकता, विदेशियों का आना-जाना, रेलें, बन्दरगाह, हवाई मार्ग, डाक, तार, टेलीफोन व बेतार, मुद्रा निर्माण, बैंक, बीमा, खानें व खनिज, आदि ।
2. राज्य सूची (State List) – इस सूची में साधारणतया वे विषय रखे गए हैं जो प्रादेशिक महत्व के हैं। इस सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार सामान्यतया राज्यों की व्यवस्थापिकाओं को ही प्राप्त है। मूल संविधान के अनुसार इस सूची में 66 विषय थे, लेकिन 42 वें संवैधानिक संशोधन (1976) से इस सूची के चार विषय शिक्षा, वन, जंगली जानवरों और पक्षियों की रक्षा तथा नाप-तौल, राज्य सूची से समवर्ती सूची में कर दिए गए गए हैं। राज्य सूची के कुछ प्रमुख विषय हैं- पुलिस, न्याय, जेल, स्थानीय, स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई और सड़के, आदि।
3. समवर्ती सूची (Concurrent List) – इस सूची में साधारणतया वे विषय रो गए हैं जिनका महत्व स्थानीय व संघीय दोनों ही दृष्टियों से है। इस सूची के विषयों पर संघ तथा राज्य दोनों को ही विधियों बनाने का अधिकार प्राप्त है। यदि इस सूची के विषय पर संघ तथा राज्य व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानून परस्पर विरोधी हो, तो सामान्यतः संघ का कानून मान्य होगा। इस सूची में कुल 47 विषय हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख ये हैं- फौजदारी विषय तथा प्रक्रिया, निवारक निरोध, विवाह और विवाह विच्छेद, दत्तक और उत्तराधिकारी कारखानों, श्रमिक संघ, औद्योगिक विवाद, आर्थिक और सामाजिक योजना, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, पुनर्वास और पुरातत्व, आदि।
4. अवशेष विषय (Residuary Subjects) – भारतीय संघ में कनाडा के संघ की तरह अवशेष विषयों के सम्बन्ध में कानून निर्माण की शक्ति संघीय संसद को प्रदान की गई है।
राज्य सूची के विषयों पर संसद की विधायी शक्ति (parliament can Legislate on the subjects of State List)
संसद को इस प्रकार की शक्ति प्रदान करने वाले संविधान के कुछ प्रमुख प्रवाधान निम्नलिखित हैं:
यदि राज्य सूची का विषय राष्ट्रीय महत्व का हो- संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार, यदि राज्य सभा अपने दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है कि राज्य सूची में निहित कोई विषय राष्ट्रीय महत्व का हो गया है, तो संसद को उस विषय पर विधि निर्माण का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इसकी मान्यता केवल एक वर्ष तक रहती है। राज्यसभा द्वारा प्रस्ताव पुनः स्वीकृत करने पर इसकी अवधि में एक वर्ष की वृद्धि और हो जाएगी। इसकी अवधि समाप्त हो जाने के उपरान्त यह 6 माह तक प्रयोग में आ सकता है।
‘राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा प्रस्ताव – अनुच्छेद 252 के अनुसार, यदि दो – या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल प्रस्ताव पास कर यह इच्छा व्यक्त करते हैं कि राज्य सूची के किन्हीं विषयों पर संसद द्वारा कानून निर्माण किया जाए, तो उन राज्यों के लिए उन ‘विषयों पर अधिनियम बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त हो जाता है। राज्यों के विधानमण्डलन तो उन्हें संशोधित कर सकते हैं और न ही इन्हें पूर्णरूप से समाप्त कर सकते हैं।
संकटकालीन घोषणा होने पर (अनुच्छेद 250) – संकटकालीन घोषणा की स्थिति में राज्य की समस्त विधायिनी शक्ति पर भारतीय संसद का अधिकार हो जाता है। इस घोषणा की समाप्ति के 6 माह बाद तक संसद द्वारा निर्मित कानून पूर्ववत् चलते रहेंगे।
विदेशी राज्यों से हुई सन्धियों के अनुसमर्थन हेतु (अनुच्छेद 253) – यदि संघ सरकार ने विदेशी राज्यों से किसी प्रकार की सन्धि की है अथवा उनके सहयोग के आधार पर किसी नवीन योजना का निर्माण किया है तो सम्पूर्ण भारत के सीमा क्षेत्र के अन्तर्गत पूर्णतया हस्तक्षेप और व्यवस्था करने का अधिकार होगा। इस प्रकार इस स्थिति में भी संसद को राज्य सूची के विषय पर कानून का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
राज्य में संवैधानिक में संकट भंग होने पर (अनुच्छेद 256) – यदि किसी राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाए या संवैधानिक तन्त्र विफल हो जाये तो राष्ट्रपति राज्य विधानमण्डल के समस्त अधिकार भारतीय संसद को प्रदान कर सकता है।
कुछ विधेयकों को प्रस्तावित करने और कुछ की अन्तिम स्वीकृति के लिए केन्द्र का अनुमोदन आवश्यक- उपर्युक्त परिस्थितियों में तो संसद द्वारा राज्य सूची के विषयों पर कानूनों का निर्माण किया जा सकता है, इसके अतिरिक्त भी राज्य व्यवस्थापिकाओं की राज्य सूची के विषयों पर कानून निर्माण की शक्ति सीमित है। अनुच्छेद 304 (ख) के अनुसार कुछ विधेयक ऐसे होते हैं, जिनके राज्य विधानमण्डल में प्रस्तावित किए जाने से पूर्व राष्ट्रपति की पूर्व-स्वीकृति की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, वे विधेयक, जिनके द्वारा सार्वजनिक हित की दृष्टि से उस राज्य के अन्दर या उसके बाहर, वाणिज्य या मेल-जोल पर कोई प्रतिबन्ध लगाए जाने हों।
अनुच्छेद 31 (ग) के अनुसार- राज्य सूची के ही कुछ विषयों पर राज्यों की व्यवस्थापिकाओं द्वारा पारित विधेयक उस दशा में अमान्य होंगे, यदि उन्हें राष्ट्रपति ने विचारार्थ रोक रखा हो और उन पर राष्ट्रपति की स्वीकृति न प्राप्त कर ली गई हो। उदाहरण के लिए, किसी राज्य द्वारा सम्पत्ति के अधिग्रहण के लिए बनाए गए कानूनों का समवर्ती सूची के विषयों के बारे में ऐसे कानूनों, जो संसद के उसके पहले बना बनाए गए कानूनों के प्रतिकूल पर जिनके द्वारा ऐसी वस्तुओं की खरीद और बिक्री पर लगाया जाने वाला कर हो, जिन्हें संसद ने समाज के जीवन के लिए आवश्यक घोषित कर दिया है, राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक हैं
अनुच्छेद 200 के अन्तर्गत- राज्यपाल किसी भी विधेयक के बारे में अपनी सहमति देने से इन्कार कर सकता है और उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रख सकता है। राष्ट्रपति बिना कोई कारण बताए विधेयकों को अस्वीकृत कर सकता है। सन् 1959 में केरल के राज्यपाल ने केरल कृषि भूमि सम्बन्धी विधेयकों राष्ट्रपति के लिए भेजा। इसी बीच अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत आपातकाल की घोषण द्वारा राज्य विधानसभा को भंग कर दिया गया। नए चुनावों बाद बनी विधानसभा ने राष्ट्रपति द्वारा दिए गए सुझावों को शामिल कर कानून को सन् 1961 में पास कर दिया।
केन्द्र सरकार इन संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर व्यवहार में भी अपने आपको शक्तिशाली बनाने का कार्य किया गया है। उदाहरण के लिए, 1954 में तृतीय संशोधन के आधार पर समवर्ती सूची के विषयों में वृद्धि की गई, जिससे कि खाद्यान्न के अभाव में उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए केन्द्रीय सरकार आवश्यक कदम उठा सके।
राज्य सूची के विषयों पर केन्द्रीय हस्तक्षेप- राज्यों द्वारा यह भी शिकायत की गई कि केन्द्र उद्योग, व्यापार एवं वाणिज्य जैसे विषयों पर कानून बनाने लग गया है, जगकि ये विषय राज्य सूची में उल्लिखित है। सन् 1951 में संसद ने ‘उद्योग विकास एवं नियन्त्रण अधिनियम’ पारित किया, जसमें उन उद्योगों का उल्लेख किया गया जिनको जनहित में केन्द्र द्वारा नियन्त्रित करना आवश्यक था। धीरे-धीरे अनेक उद्योगों को इस अधिनियम के अन्तर्गत ले लिया गया।
इस प्रकार राज्य सूची में वर्णित 24, 26 तथा 27 संख्या वाले विषयों पर केन्द्र का अधिकार स्थापित हो गया। यही नहीं, रेजर पत्ती, कागज, गोंद, जूते, माचिस, और साबुन, प्रकार के अत्यधिक केन्द्रकरण से राज्यों का आर्थिक विकास अवरुद्ध हो गया है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारत में साधारणतया संघीय संसद तथा राज्यों की व्यवस्थापिकाओं के कार्यक्षेत्र संविधान द्वारा विभाजित हैं, लेकिन विशेष परिस्थितियों में संघ सरकार द्वारा राज्य सररकार के कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण किया जा सकता है। “पायली के अनुसार, “विधायी सत्ता के वितरण की सूची योजना से निःसन्देह केन्द्रीकरण की एक प्रबल प्रवृत्ति प्रकट होती है।”
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