विद्यालय में बालक के व्यक्तित्व विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
जब पहली कक्षा या नर्सरी में बालक प्रथम बार प्रवेश लेता है तो उसमें स्कूल से पूर्व की अभिवृत्तियाँ और से व्यवहार प्रतिमान होते हैं। स्कूल से पूर्व की अभिवृत्तियाँ और व्यवहार प्रतिमान पारिवारिक वातावरण में विकसित हुए होते हैं। परिवार में बालक को जितनी सुरक्षा मिलती है, उतनी सुरक्षा उसे विद्यालय में प्राप्त नहीं होती है। स्कूल बालक के लिए बिल्कुल एक नयी परिस्थिति होती है, जिसमें धीरे-धीरे वह अधिगम और उपलब्धियों को प्राप्त करना सीखता है। स्कूल के क्रियाकलाप घर की अपेक्षा पूर्णतः भिन्न होते हैं। स्कूल में बालक को न केवल स्कूल के वातावरण के साथ समायोजन करना सीखना पड़ता है, बल्कि उसे अपने सहपाठियों और गुरुजनों के साथ भी समायोजन करना सीखना पड़ता है। बालक के लिए स्कूल का पहला दिन सुखद घटना भी हो सकती है और गम्भीर संवेगात्मक संकट (Serious Emotional Crisis) भी हो सकता है।
स्कूल शिक्षा का महत्त्वपूर्ण श्रेष्ठ और सक्रिय साधन है। बालक के व्यक्तित्व विकास में स्कूल की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। एल० ई० लाँगस्ट्रे (L. E. Longstreth, 1974) ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह स्थिर किया है कि पाँच वर्ष की आयु तक बालक की समस्त सामाजिक अन्तःक्रियाएँ माता-पिता तथा अन्य पारिवारिकजनों के साथ सम्बन्धित होती हैं। पाँच-छ: वर्ष की अवस्था में जब बालक विद्यालय में प्रवेश लेता है तो उसकी अन्तःक्रियाओं का दायरा बढ़ जाता है। विद्यालय के मित्रों और अध्यापकों के साथ उसकी अन्तःक्रियाएँ प्रारम्भ हो जाती हैं। लगभग सात वर्ष की अवस्था में बालक की यह अन्तःक्रियाएँ अधिक बढ़ने लग जाती हैं। ग्यारह-बारह वर्ष की अवस्था तक उसकी विद्यालय से सम्बन्धित अन्तःक्रियाएँ परिवार की अपेक्षा अधिक हो जाती हैं। जब तक बालक विद्यालय से सम्बन्धित रहता है, तब तक उसमें यह अन्तःक्रियाएँ बनी रहती हैं।
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1. नर्सरी स्कूल और बाल विकास
नर्सरी स्कूल में जाने वाले बालकों की आयु में थोड़ा-बहुत अन्तर होता है। बहुधा आयु का यह अन्तर माता-पिता की अभिवृत्तियों के कारण होता है। कुछ माता-पिता यह सोचते हैं कि उनका बच्चा अभी बहुत छोटा है और जाने स्कूल लायक नहीं है, कुछ लोग यह सोचते हैं कि उनका बच्चा अपरिपक्व है और उसे अभी घर में ही रहना चाहिए।
नर्सरी स्कूल के बच्चों पर किये गये अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि नर्सरी स्कूल के वह बच्चे जिनके माता-पिता का समायोजन अच्छा होता है, स्कूल में ऐसे बच्चों का समायोजन भी अच्छा होता है। इन बच्चों के दोस्त जल्दी बन जाते के में हैं। यह बच्चे स्कूल के कार्यों भी अन्य असमायोजित बच्चों की अपेक्षा अधिक अच्छे होते हैं। एक अध्ययन (Baldwin, A.L., 1949) में यह देखा गया कि नर्सरी स्कूल के वह बच्चे, जिनके परिवार का वातावरण प्रजातान्त्रिक प्रकार का होता है, अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक क्रियाशील और बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले होते हैं। इन बच्चों में कुछ और विशेषताएँ भी देखी गयी हैं, जैसे—यह मित्र होते हैं, अन्य साथी बच्चों में लोकप्रिय होते हैं, मौलिकता और निर्माणशीलता के गुण अधिक मात्रा में होते हैं, इनमें बौद्धिक जिज्ञासा भी अन्य बच्चों की अपेक्षा कम मात्रा में होती है। इस अध्ययन में यह भी देखा गया कि जिन बच्चों में आश्रितता अधिक होती है तथा अपने माता-पिता के साथ स्नेहपूर्ण सम्बन्धों में अधिक बँधे होते हैं, उन बच्चों में उपर्युक्त बच्चों की अपेक्षा विपरीत विशेषताएँ पायी जाती हैं।
नर्सरी स्कूल के अनेक बच्चों में रोने-चिल्लाने सम्बन्धी व्यवहार भी देखे जाते हैं। इस प्रकार के व्यवहार बहुधा उन बच्चों में पाये जाते हैं, जिनकी पारिवारिक ट्रेनिंग सही ढंग से नहीं होती है। कई बार बच्चे दूसरे बच्चों को रोता देखकर सहानुभूति के कारण रोने लगते हैं। नर्सरी स्कूल के बच्चों के रोने के कारणों को स्पष्ट करते हुए एल० डी० क्रो और ए० को (L. D. Crow & A. Crow, 1962) ने लिखा है कि, “Boys seem to cry because of conflicts with adults and frustrations by objects in the environment, girls tend to cry because of a real or imagined injury to their person.”
उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि नर्सरी स्कूल के अध्यापक बालक के साथ-साथ उनके परिवारों के सम्बन्ध में यदि जानकारी रखते हैं तो उन्हें बालकों को समझने व उन्हें शिक्षा देने में अधिक सुविधा रहती है। अच्छे नर्सरी स्कूलों में अध्यापक बालकों की क्रियाओं को सुझावों के द्वारा नियन्त्रित और निर्देशित करते हैं।
2. प्राइमरी विद्यालय के अनुभव और बाल विकास
जब बालक को प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश दिलाया जाता है तो उसे विद्यालय के वातावरण, अध्यापकों और सहपाठियों के साथ समायोजन करना सीखना पड़ता है। जो बच्चे प्राथमिक विद्यालयों में प्रवेश से पूर्व नर्सरी स्कूल में शिक्षा ग्रहण कर चुके होते हैं, उन्हें नये वातावरण में समायोजन करने में उतनी कठिनाई नहीं होती, जितनी कि उन बालकों को जिनका विद्यालय में पहली बार प्रवेश हुआ है। इसी प्रकार से यह भी देखा गया है कि जिन बच्चों को अच्छा पारिवारिक वातावरण और प्रशिक्षण मिला है, उनका विद्यालय में समायोजन अन्य बच्चों की अपेक्षा जल्दी और अच्छा हो जाता है।
प्राथमिक विद्यालय के बालकों की सर्वांगीण शिक्षा के लिए आवश्यक है कि विद्यालय के अध्यापक बालक के अभिभावकों से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखें।
विद्यालय में कक्षा का वातावरण मुख्यतः तीन प्रकार का हो सकता है-
1. प्रजातन्त्रात्मक वातावरण (Democratic Environment)- इस प्रकार की कक्षाओं में अध्यापक और विद्यार्थी मिलकर यह निश्चय करते हैं कि उन्हें कक्षा में क्या कार्य करना है। इस प्रकार की कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में अनेक विशेषताएँ देखी जाती हैं, जैसे—यह विद्यार्थी कक्षा के अन्य विद्यार्थियों के साथ मित्रवत् व्यवहार करते हैं, अध्यापक की अनुपस्थिति में भी एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करते हैं, विद्यार्थियों में सहयोग की भावना अधिक होती है।
2. निरंकुशवादी वातावरण (Authoritarian Environment)- इस प्रकार का वातावरण उन कक्षाओं में देखने को मिलता है, जिनमें कक्षा-अध्यापक ही सर्वेसर्वा होता है। कक्षा अध्यापक ही कक्षा के क्रिया-कलापों का निर्णय लेता है। इस प्रकार के वातावरण में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में विद्रोह की प्रवृत्ति, निष्क्रियता की प्रवृत्ति अधिक मात्रा में पायी जाती है। ऐसी कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थी अध्यापक की अनुपस्थिति में कोई रचनात्मक कार्य नहीं कर पाते हैं। ऐसे वातावरण में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में साथ ही सहपाठियों के प्रति सहयोग के स्थान पर विरोध का भाव पाया जाता है
3. स्वतन्त्रता का वातावरण (Independent Environment) – इस प्रकार का वातावरण उन कक्षाओं में होता है, जहाँ अध्यापक विद्यार्थियों को पूरी छूट देता है और कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के सुझावों को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है। ऐसे वातावरण वाली कक्षाएँ बहुत कम मात्रा में देखी जाती हैं। इस प्रकार की कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में परस्पर द्वेष का भाव पाया जाता है। इन विद्यार्थियों में रचनात्मकता का अभाव और इनमें कोई व्यवस्था भी नहीं पायी जाती है।
3. अध्यापक-विद्यार्थी सम्बन्ध
विद्यालय में एक छात्र का अधिगम और उपलब्धि किस प्रकार की होगी, यह बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि अध्यापक और विद्यार्थियों में सम्बन्ध किस प्रकार के हैं। एक छोटे बच्चे के लिए अध्यापक माँ का प्रतिस्थापित (Mother Substitute) रूप है। दूसरी ओर कुछ बड़े बालकों के लिए शिक्षक वह वयस्क व्यक्ति है, जो आदरणीय और प्रशंसा पाने वाला है, जिसके व्यवहार का अनुकरण करना चाहिए। अतः आवश्यक है कि अध्यापकों में प्रभावशाली आदर्श और अनुकरणीय गुण और विशेषताएँ होनी चाहिए। इस दिशा में अध्ययनों में देखा गया कि अध्यापक की अभिवृत्तियों के प्रति विद्यार्थी अत्यधिक संवेदनशील होते हैं।
बहुधा यह देखा गया है कि अधिकांश अध्यापक मध्यम सामाजिक-आर्थिक स्तर के होते हैं। विद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकांश छात्र भी मध्यम सामाजिक-आर्थिक वर्ग के होते हैं, क्योंकि ऐसे अध्यापकों को अपने विद्यार्थियों को समझने में अधिक कठिनाई नहीं होती है।
बहुधा कक्षा का वातावरण अध्यापक की अभिवृत्तियों को अभिव्यक्त करता है। एक अध्यापक यदि कक्षा में डरा-धमका कर या मार-पीटकर शिक्षा देता है तो कक्षा के विद्यार्थी भी कठोर स्वभाव वाले हो जाते हैं। उनके व्यवहार में लचीलापन समाप्त हो जाता है (H. H. Anderson & G. L. Anderson, 1946)।
बी० कुप्पूस्वामी (B. Kuppuswamy, 1976) का विचार है कि, “जब बालक निम्न वर्ग से सम्बन्धित होते हैं तो बालकों और अध्यापकों के मूल्य में खाई होती है। ऐसा बालक या तो शिक्षकों की आज्ञा का पालन नहीं करता, या आक्रामक रवैया अपनाता है या उदासीन हो जाता है, अथवा कक्षा में अनुपस्थित रहता है। ऐसे विद्यार्थी धीमी गति से सीखते हैं, इससे अध्यापक उनसे ऊब जाते हैं या उनसे निराश हो जाते हैं। इस प्रकार अध्यापक और विद्यार्थी दोनों ही एक-दूसरे को स्वीकार नहीं करते। “
अनुशासन बालक मुख्यतः अपने संरक्षकों व अध्यापकों से सीखता है। अनुशासन के द्वारा समाज द्वारा मान्य नैतिक व्यवहार को सिखाया भी जाता है। विद्यालय का अनुशासन बालक के व्यवहार और अभिवृत्तियों को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। जब विद्यालय में अनुशासन प्रभुत्वात्मक (Authoritarian) होता है तो ऐसे वातावरण के कारण विद्यार्थी में अनेक प्रकार की व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जैसे-अधिक संवेदनशीलता, अन्तर्मुखी व्यक्तित्व, सन्देह करना, शर्मीलापन, अलग-अलग और अकेला रहने की प्रवृत्ति आदि। जब विद्यालय में अनुशासन प्रजातान्त्रिक प्रकार का होता है तो बालकों में अनेक व्यक्तित्व विशेषताएं उत्पन्न हो जाती हैं, जैसे प्रसन्नता, सहयोग, आत्म-महत्व और विश्वास की योग्यता आदि।
जब कक्षा का वातावरण संवेगात्मक (Healthy Emotional) प्रकार का होता है तो बालक में प्रसन्नता, सहयोग की भावना ही उत्पन्न नहीं होती है, बल्कि वह कक्षा के नियमों को मानने वाला होता है और पढ़ने के लिए अधिक प्रेरित होता है। दूसरी ओर अस्वस्थ संवेगात्मक वातावरण विद्यार्थियों को तनावपूर्ण, चिड़चिड़ा, झगड़ालू बनाता है। ऐसे बच्चे पढ़ने के प्रति प्रेरित नहीं होते हैं। इस दिशा में हुए अध्ययनों में यह देखा गया है कि कक्षा का संवेगात्मक वातावरण बहुत कुछ कक्षा-अध्यापक की अभिवृत्तियों से प्रभावित होता है तथा इस बात से भी प्रभावित होता है कि कक्षा-अध्यापक कक्षा में अनुशासन की कौन-सी विधि अपनाता है।
4. विद्यालय और शैक्षिक उपलब्धि
इस दिशा में हुए अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ विद्यार्थी ऐसे होते हैं, जिनकी कक्षा में उपलब्धि उनकी योग्यताओं को देखते हुए अपेक्षाकृत कुछ कम होती है। कई बार विद्यार्थियों की यह शैक्षिक उपलब्धि परिस्थितिजन्य (Situational) होती है। बहुधा यह देखा गया है कि जब किसी विद्यार्थी के परिवारीजन की मृत्यु हो जाती है, विद्यार्थी को एक स्कूल से दूसरे में प्रवेश कराया जाता है या विद्यार्थी को कोई तीव्र संवेग उत्पन्न करने वाला अनुभव होता है तो विद्यार्थियों को शैक्षिक उपलब्धि सामान्य की अपेक्षा कम रह जाती है। विद्यार्थी की कम शैक्षिक उपलब्धि का कारण परिवार, स्कूल और विद्यार्थी स्वयं से सम्बन्धित हो सकता है। जब विद्यार्थियों की पढ़ने में रुचि नहीं होती है और पढ़ने के प्रति उनमें विद्रोही भावना पायी जाती है तो उनकी शैक्षिक उपलब्धि कम रह जाती है।
कुछ विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि उनकी योग्यताओं की अपेक्षा अधिक अच्छी होती है। बहुधा ऐसे विद्यार्थियों को पढ़ने की अधिक सुविधाएँ प्राप्त होती हैं तथा अच्छे शिक्षकों से सीखने की सुविधा प्राप्त होती है।
5. स्कूल तथा व्यक्तित्व
परिवार के बाद बालक के व्यक्तित्व पर पड़ौस का प्रभाव पड़ता है। पड़ौस के जिन बच्चों के साथ बच्चा खेलता है अथवा जो बच्चे बालक के साथ उससे खेलने उसके घर आते हैं, बच्चा इन बच्चों से अनेक आदतें और तरह-तरह के कौशल ही नहीं सीखता है, बल्कि बच्चे का बौद्धिक और संवेगात्मक विकास भी इन बच्चों के व्यवहार से प्रभावित होता है। जब बच्चा कुछ और बड़ा हो जाता है, तब वह विद्यालय जाता है। विद्यालय में वह शैक्षिक सफलता और असफलता के अनुभव प्राप्त करता है। विद्यालय में बच्चे के समायोजन सम्बन्धी अनुभव उसके विकसित होते व्यक्तित्व के लिए लाभदायक भी हो सकते हैं और हानिकारक भी हो सकते हैं।
ग्लासर (Glasser, 1969) ने विद्यार्थियों के प्रति प्रकार्य की आलोचना करते हुए कहा है कि विद्यालय उन विद्यार्थियों की उपलब्धि को अवरुद्ध कर देते हैं, जो विद्यार्थी विद्यालय में असफल हो जाते हैं अथवा शैक्षिक उपलब्धि में अन्य विद्यार्थियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में पीछे रह जाते हैं। विद्यालय से केवल उन्हीं विद्यार्थियों को लाभ होता है, जिनका विद्यालय में कार्य निष्पादन अच्छा होता है। ग्लासर ने आगे कहा है कि विद्यालय में शैक्षिक उपलब्धि के ही आधार पर विद्यार्थी की सफलता को आँका जाता है। उसकी सफलता आँकते समय उसके सीखने के अन्य प्रकार के अनुभवों पर ध्यान नहीं दिया जाता है। विद्यालय में बच्चा अपने सहपाठियों तथा विद्यालय के शिक्षकों आदि के व्यवहार से ही प्रभावित नहीं होता है, बल्कि विद्यालय का सामान्य वातावरण भी बालक के व्यवहार को प्रभावित करता है। उसे विभिन्न सामाजिक-आर्थिक स्तर के बच्चों के साथ मिलने का अवसर मिलता है। वह इन तमाम प्रकार के बच्चों की आदतों, विचारों और चरित्र आदि से प्रभावित होता है।
एक अध्ययन (E. F. Hellersberg, 1957) में यह सिद्ध किया गया है कि संरक्षकों के बाद बालक के व्यक्तित्व विकास पर स्कूल का प्रभाव उसी प्रकार पड़ता है, जिस प्रकार से जैसे पहला प्रभाव घर या परिवार का पड़ता है और प्रभाव उस कक्षा का पड़ता है, जहाँ बालक पढ़ता है।
दूसरा एक अन्य अध्ययन (Davidson Larg, 1960) में यह देखा गया कि प्राथमिक स्कूल के अनुभवों और बच्चों के स्वयं के प्रति प्रत्यक्षीकरण में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस अध्ययन में यह देखा गया कि जो बच्चे यह समझते हैं कि शिक्षक की दृष्टि में वह अच्छे बच्चे हैं, ऐसे बच्चों का व्यवहार अधिक उपयुक्त होता है तथा ऐसे बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि भी में अपेक्षाकृत अधिक अच्छी होती है। बच्चों के सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास में स्कूल के साथी समूह का प्रभाव सर्वाधिक पड़ता है।
हरलॉक (1974) का विचार है कि स्कूल से सम्बन्धित अनेक कारकों का प्रभाव बालकों के व्यक्तित्व के विकास पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, कक्षा के वातावरण का प्रभाव, अध्यापक, अनुशासन, विद्यालय में पक्षपात, शैक्षिक उपलब्धि, सामाजिक उपलब्धि आदि कारक बालक के व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करते हैं।
स्कूल और चरित्र- परिवार के बाद विद्यालय का भी बालक के नैतिक और चारित्रिक विकास पर महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभाव पड़ता है। विद्यालय के शिक्षक, सहपाठी और शतावरण आदि सभी कुछ बालक के नैतिक विकास में कुछ योगदान में अवश्य देते हैं। विद्यालय में बालक का पाठ्यक्रम और अनुशासन का भी उसके नैतिक मूल्यों के विकास पर महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभाव पड़ता है। एक विद्यालय का सामान्य अनुशासन और व्यवस्था जहाँ ठीक होती है, वहाँ पढ़ने वाले बालकों को चारित्रिक विकास के लिए सुन्दर वातावरण मिलता है। विद्यालयों में बालकों के नैतिक विकास पर उसके साथी समूह का भी महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, बालक के साथी यदि दुराचारी हैं तो निश्चय ही बालक में भी इसी प्रकार के व्यवहार प्रतिमान विकसित होंगे।
स्कूल और आत्म-प्रत्यय (Self-Concept)- लगभग तीन-चार वर्ष की अवस्था तक बालक सेक्स सम्बन्धी अन्तर समझने ही नहीं लगता है, बल्कि वह बालों और कपड़ों के रख-रखाव के आधार पर लड़के-लड़कियों और स्त्री-पुरुषों को अलग-अलग पहचानने भी लग जाता है। जब वह स्कूल जाना प्रारम्भ करता है, तो उसके यह अन्तर अधिक और अधिक स्पष्ट हो जाते हैं, परन्तु वयःसन्धि अवस्था में वह दो सेक्स के अन्तर को पूर्णतः पहचान जाता है। जब बालक स्कूल जाना प्रारम्भ करता है, उस समय तक मेल और फीमेल कार्यों को भी जानने लग जाता है। लगभग चार साल का बालक अपने जातीय और प्रजातीय अन्तरों को भी इसलिए पहचानने लग जाता है कि खेल के साथी और दूसरे लोग उससे उसकी जाति और प्रजाति के अनुसार व्यवहार करने लग जाते हैं। जब वह स्कूल जाने लग जाता है, तब वह अपने परिवार की प्रतिष्ठा और अपने परिवार के सामाजिक और आर्थिक स्तर का भी ज्ञान प्राप्त कर लेता है। स्कूल जाने तक वह यह समझने लगता है कि परिवार की और उसकी प्रतिष्ठा तथा सामाजिक-आर्थिक स्तर माता-पिता के व्यवसाय से निर्धारित होता है। वह इन अर्थों को अपने आत्म-प्रत्ययं से जोड़ लेता है।
स्कूल और सामाजिक विकास- बालक का सामाजिक विकास किस प्रकार का होगा, यह उसके पड़ौस और स्कूल भी निर्धारित होता है। बालक के पड़ौस में रहने वाले बच्चों और वयस्कों के सामाजिक व्यवहार का भी प्रभाव बालक पर पड़ता है। पड़ौस में किस प्रकार के सामाजिक कार्यक्रम होते हैं, कैसा सामाजिक वातावरण है, आदि कारक भी बालक के से सामाजिक विकास को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। विद्यालय में शिक्षकों और बालक के मित्र भी बालक के सामाजिक विकास में योगदान देते हैं। विद्यालय में बालक को अपनी आयु के अनेक बालकों के साथ बैठने और सीखने का अवसर ही नहीं मिलता है, बल्कि उसे बड़े बच्चों के सामाजिक अनुभव सुनने और सामाजिक व्यवहार को देखने का अवसर मिलता है। इन अवसरों से उसकी सामाजिक सूझ तथा उसका सामाजिक प्रत्यक्षीकरण बढ़ता है। फलस्वरूप वह समाज के विभिन्न मूल्यों से सम्बन्धित व्यवहार का अधिगम करता है। विद्यालय के अनेक कार्यक्रमों में भाग लेकर भी वह अनेक सामाजिक व्यवहार प्रतिमानों को सीखता है। विद्यालय से वह सहयोग, मित्रता, उत्तरदायित्व औरआत्मनिर्भरता आदि सीखता है।