रूसों की निश्चयात्मक शिक्षा एवं अध्ययन पद्धति पर प्रकाश डालिए।
रूसो ने अपने ‘ग्रन्थ ‘एमील’ में निश्चयात्मक शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा है कि “निश्चयात्मक शिक्षा उसे कहते हैं जो समय से पहले मस्तिष्क को बनाना चाहती है और बालकों को प्रौढ़ पुरुष का वर्त्तव्य सिखलाती है।” निश्चयात्मक शिक्षा में मनुष्य की प्रकृति को बुरा समझा जाता है। इसीलिए वह कठोर दण्ड देकर उसका सुधार करने के पक्ष में है। रूसो इस विचार का विरोधी था। वह मानव की प्रकृति को साधु मानता था तथा निश्चयात्मक शिक्षा का विरोध करता था। वस्तुतः निश्चयात्मक शिक्षा से रूसो का तात्पर्य शिक्षक द्वारा पुस्तकीय एवं शाब्दिक ज्ञान देने, उन्हें कर्त्तव्यपरायणता, नैतिकता, नागरिकता तथा उत्तम गुणों एवं आदतों के निर्माण पर बल देने से था। रूसो के अनुसार ऐसी शिक्षा से बालक को प्राकृतिक मानव बनाना असम्भव है। इसीलिए उसने प्रारम्भिक शिक्षा का रूप निषेधात्मक ही निर्धारित किया। रूसो इस काल में तीन प्रकार की निश्चयात्मक शिक्षा देना चाहता है-
1. स्वतन्त्रता एवं शारीरिक व्यायाम- वह बालकों में सुनियमित स्वतन्त्रता की भावना का विकास करना चाहता है। स्वतन्त्रता का अर्थ मनमानी करना नहीं होता। रूसो के अनुसार जो स्वतन्त्रता इच्छाओं के वशीभूत है, तो वह स्वतन्त्रता का विकृत रूप है। अतः बालकों को प्रारम्भिक अवस्था से ही कार्य करने का अभ्यास होना चाहिए। यही उनके नैतिक जीवन का प्रथम सोपान है। शारीरिक व्यायाम के लिए वह स्पार्टा के जीवन दर्शन पर आधारित प्लेटो के जिम्नास्टिक (फुर्तीले व्यायाम) की शिक्षा के समान है।
2. जीवन सम्बन्धी अनुभवों का ज्ञान- वह वास्तविक एवं स्थायी ज्ञान उसी को मानता है जो अपने अनुभवों द्वारा प्राप्त हो । उसके अनुसार भौतिक अनुभव अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
3. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा – वह ज्ञानेन्द्रियों को ही शिक्षा का द्वार मानता है। अतः उन पर विशेष ध्यान देना आवश्यक समझता है। उसके मतानुसार यह ज्ञान यद्यपि परिमित होगा, किन्तु यथार्थ होगा और उसके विचार जिह्वा पर रटने की अपेक्षा मस्तिष्क में रहेंगे। ज्ञानेन्द्रियों के पृथक् प्रशिक्षण में भी रूसो का विश्वास है।
अध्ययन पद्धति
रूसो ने परम्परागत पुस्तक तथा व्याख्यान प्रणाली का विरोध किया। उनके कथनानुसार “अपने छात्र को शाब्दिक पाठ मत पढ़ाओ, उसे अपने अनुभव द्वारा सीखने दो।” रूसो छात्रों में सीखने की इच्छा पैदा कर उन्हें सीखने के लिए प्रवृत्त करना चाहता था। रूसो के अनुसार शिक्षण पद्धतियाँ निम्न प्रकार हैं-
1. स्वानुभव द्वारा सीखना ( Learning by Self-experience)- रूसो के अनुसार शिक्षण के अन्तर्गत शब्दों की अपेक्षा कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण है। रूसो के अनुसार शिक्षण एक आन्तरिक क्रिया है, वह बाहर से नहीं लादी जानी चाहिए। भूगोल तथा जीवशास्त्र आदि विषयों में शिक्षक पुस्तकों का सहारा न ले वरन् छात्रों को प्रकृति के अवलोकन का अवसर दे। इससे वे प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करेंगे। ऐसा ज्ञान स्थायी होता है।
2. प्रयोग पद्धति (Experimental Method )- इससे तात्पर्य यह है कि बालक को अन्वेषक के रूप में प्रयोग करने का अवसर दिया जाये। वस्तुतः विज्ञान के अध्ययन अध्यापन में प्रयोग पद्धति अत्यन्त उपयोगी है। वह आगमन तथा निगमन पद्धतियों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान देता है।
3. खेल पद्धति ( Play way Method) – रूसो चाहता है कि बालक हँसते-खेलते शिक्षा प्राप्त करे तथा उसके ऊपर किसी भी प्रकार का दबाव न डाला जाये। बालकों की प्रवृत्तियों को प्राकृतिक ढंग से विकसित होने का अवसर दिया जाये।
4. करके सीखना ( Learning by Doing)- रूसो अपनी शिक्षण पद्धति के अन्तर्गत ‘करके सीखना’ पर बल देता है। वालक किसी भी क्रिया को अपनी इच्छानुसार करता है और उसे पूरा करने में उसे सन्तोष एवं आनन्द प्राप्त होता है। इस पद्धति से अर्जित ज्ञान स्थायी होता है। पुस्तकीय शिक्षा का वह घोर विरोधी है। वह कहता है-“मैं पुस्तकों से घृणा करता हूँ क्योंकि ये जो हम नहीं जानते, उसी के बारे में सिखाती हैं।”
5. मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार शिक्षण ( Learning by Psychological Method) – रूसो ने बालकों के वैयक्तिक विकास पर बल दिया। उसके अनुसार शिक्षण मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए। इस सन्दर्भ में पेस्टालॉजी के अनुसार निम्नलिखित सूत्र महत्त्वपूर्ण हैं-
- सरल से कठिन की ओर।
- ज्ञात से अज्ञात की ओर।
- विशिष्ट से सामान्य की ओर।
- पूर्ण से अंश की ओर।
- मूर्त से अमूर्त की ओर।
- स्थूल से सूक्ष्म की ओर।
रूसो ने निरीक्षण पद्धति, खेल पद्धति, ह्यूरिस्टिक पद्धति, डाल्टन पद्धति तथा मॉण्टेसरी शिक्षण विधियों का सूत्रपात किया। ये शिक्षण पद्धतियाँ बालक के आत्म-प्रदर्शन और रचनात्मकता के लिए एक स्वतन्त्र वातावरण की रचना करती हैं।
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