विचारधारा से आप क्या समझते हैं? प्रमुख विचारधाराओं का संक्षिप्त उल्लेख कीजिए ।
विचारधारा- विचारधारा, सामाजिक राजनीतिक दर्शन में राजनीतिक, कानूनी, नैतिक, सौंदर्यात्मक, धार्मिक तथा दार्शनिक विचार चिंतन और सिद्धांत प्रतिपादन की व्यवस्थित प्राविधिक प्रक्रिया है। विचारधारा का सामान्य आशय राजनीतिक सिद्धांत रूप में किसी समाज या समूह में प्रचलित उन विचारों का समुच्चय है जिनके आधार पर वह किसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संगठन विशेष को उचित या अनुचित ठहराता है। (1) विचारधारा के आलोचक बहुधा इसे एक ऐसे विश्वास के विषय के रूप में व्यवहृत करते हैं जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। तर्क दिया जाता है कि किसी विचारधारा विशेष के अनुयायी उसे अपने आप मे सत्य मानकर उसका अनुसरण करते हैं, उसके सत्यापन की आवश्यकता नहीं समझी जाती है। वस्तुतः प्रत्येक विचारधारा के समर्थक उसकी पुष्टि के लिए किंचित सिद्धांत और तर्क अवश्य प्रस्तुत करते हैं और दूसरे के मन में उसके प्रति आस्था और विश्वास पैदा करने का प्रयत्न करते हैं।
साम्यवाद में विचारधारा- साम्यवाद में विचारधारा को अधिरचना का अंग माना जाता है, जहाँ वह आर्थिक संबंधों को प्रतिबिंबित करती है। साम्यवादी चिंतनधारा की मान्तया है कि अधिकतर विचार, विशेषकर समाज के संगठन से संबंधित विचार, वर्ग विचार होते हैं। वे वास्तव में उस वर्ग के विचार होते हैं जिसका उस काल में समाज पर प्रभुत्व होता है। इन विचारों को वह वर्ग बाकी समाज पर थोपे रखता है क्योंकि यह वर्ग प्रचार के सारे साधनों का स्वामी होता है। (3) विरोधी वर्गों वाले समाज में विचारधारात्मक संघर्ष वर्ग हितों के संघर्ष के अनुरूप होता है, क्योंकि विचारधारा यथार्थ का सच्चा या झूठा प्रतिबिंब भी हो सकता है और वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक भी हो सकता है। प्रतिक्रियावादी वर्गों के हित झूठी विचारधारा को पोषित करते हैं। प्रगतिशील, क्रांतिकारी वर्गों के हित विज्ञानसम्मत चिंतनधारा का निर्माण करने में सहायक होते हैं। (4) साम्यवादी मान्यतानुसार विचारधारा का विकास अंततोगत्वा अर्थव्यवस्था से निर्धारित होता है, परन्तु साथ ही उसमें कुछ सापेक्ष स्वतंत्रता भी होती है। इसकी अभिव्यक्ति विशेष रूप से विचारधारा की अंतर्वस्तु का सीधे आर्थिक स्पष्टीकरण करने की असम्भवनीयता में और साथ ही आर्थिक तथा विचारधारात्मक विकास की कुछ असमतलता में होती है। इन सबके अलावा विचारधारा के सापेक्ष स्वतंत्रता की अधिकतर अभिव्यक्ति विचारधारात्मक विकास के आंतरिक नियमों की संक्रिया में और साथ ही उन विचारधारात्मक क्षेत्रों में होती है, जो आर्थिक आधार से बहुत दूर स्थिर होते हैं। विचारधारा की सापेक्ष स्वतंत्रता का कारण यह है कि विचारधारात्मक विकासक्रम विभिन्न आर्थिकतर कारकों के प्रभावान्तर्गत रहता है। ये कारक हैं: (1) विचारधारा के विकास में आंतरिक अनुक्रमिक संबंध, (2) विचारधारा विशेष के निरूपकों की निजी भूमिका तथा (3) विचारधारा के विभिन्न रूपों का पारस्परिक प्रभाव, आदि।
बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा- बीसवीं शताब्दी के छठे और सातवें दशक में बुर्जुआ दार्शनिकों के बीच यथार्थ के प्रति विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण और विचारधारा के बेमेल होने संबंधी विचार व्यापक रूप से प्रचलित हुए। बुर्जुआ विचारधारा को आत्मिक प्रत्यय की भाँति मानते हैं जो केवल समूह या दल विशेष के हितों को व्यक्त करती है। इसी कारण वे विज्ञान और विचारधारा के अंतरों को निरपेक्ष बनाने, उन्हें एक-दूसरे के मुकाबले में रखने के इच्छुक होते हैं। बुर्जुआ दर्शन और विज्ञान का तथाकथित “निर्विचारधाराकरण” करने का प्रयत्न करते हैं। आठवें दशक में बुर्जुआ विचारधारा निरूपकों ने इस ध्येय की सिद्धि में साम्यवाद के मुकाबले अपनी नयी विचारधारा को प्रस्तुत करते हुए “पुनर्विचारधाराकरण की बात करना प्रारंभ कर दिया।
साम्यवाद- साम्यवाद, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित तथा साम्यवादी घोषणापत्र में वर्णित समाजवाद की चरम परिणति है। साम्यवाद, सामाजिक राजनीतिक दर्शन के अंतर्गत एक ऐसी विचारधारा के रूप में वर्णित है, जिसमें संरचनात्मक स्तर पर एक समतामूलक वर्गविहीन समाज की स्थापना की जाएगी। ऐतिहासिक और आर्थिक वर्चस्व के प्रतिमान ध्वस्त कर उत्पादन के साधनों पर समूचे समाज का स्वामित्व होगा। अधिकार और कर्तव्य में आत्मार्पित सामुदायिक सामंजस्य स्थापित होगा। स्वतंत्रता और समानता के सामाजिक राजनीतिक आदर्श एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे। न्याय से कोई वंचित नहीं होगा और मानवता एक मात्र जाति होगी। श्रम की संस्कृति सर्वश्रेष्ठ और तकनीक का स्तर सर्वोच्च होगा। साम्यवाद सिद्धांततः अराजकता का पोषक है जहाँ राज्य की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। मूलतः यह विचार समाजवाद की उन्नत अवस्था को अभिव्यक्त करता है। जहाँ समाजवाद में कर्तव्य और अधिकार के वितरण को ‘हरके से अपनी क्षमतानुसार, हरेक को कार्यानुसार’ (अंग्रेजी: (From each according to her/ his ability, to each according to her/ his work) के सूत्र से नियमित किया जाता है, वहीं साम्यवाद में ‘हरेक से क्षमतानुसार, हरेक को आवश्यकतानुसार’ (अंग्रेजी : (From each according to her/ his ability, to each according to her/ his need) सिद्धांत का लागू किया जाता है। साम्यवाद निजी संपत्ति का पूर्ण प्रतिषेध करता है।
मार्क्सवाद – सामाजिक राजनीतिक दर्शन में मार्क्सवाद (Marxism) उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व द्वारा वर्गविहीन समाज की स्थापना के संकल्प की साम्यवादी विचारधारा है। (1) मूलतः मार्क्सवाद उन आर्थिक राजनीतिक और आर्थिक सिद्धांतो का समुच्चय है जिन्हें उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स और व्लादिमीर लेनिन तथा साथी विचारकों ने समाजवाद के वैज्ञानिक आधार के पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया। (2)
समाजवाद – समाजवाद (Socialism) एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक प्रत्यय के तौर पर समाजवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है। उसकी एक बुनियादी प्रतिज्ञा यह भी है कि सम्पदा का उत्पादन और वितरण समाज या राज्य के हाथों में होना चाहिए। राजनीति के आधुनिक अर्थों में समाजवाद को पूँजीवाद या मुक्त बाजार के सिद्धांत के विपरीत देखा जाता है। एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में समाजवाद युरोप में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में उभरे उद्योगीकरण की अन्योन्यक्रिया में विकसित हुआ है।
ब्रिटिश राजनीतिक विज्ञानी हैरॉल्ड लॉस्की ने कभी समाजवाद को एक ऐसी टोपी कहा था जिसे कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है। समाजवाद की विभिन्न किस्में लॉस्की के इस चित्रण को काफी सीमा तक रूपायित करती है। समाजवाद की एक किस्म विघटित हो चुके सोवियत संघ के सर्वसत्तावादी नियंत्रण में चरितार्थ होती है जिसमें मानवीय जीवन के हर सम्भव पहलू को राज्य के नियंत्रण में लाने का आग्रह किया गया था। उसकी दूसरी किस्म राज्य को अर्थव्यवस्था के नियमन द्वारा कल्याणकारी भूमिका निभाने का मंत्र देती है। भारत में समाजवाद की एक अलग किस्म के सूत्रीकरण की कोशिश की गयी है। राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश न नारायण और नरेन्द्र देव के राजनीतिक चिंतन और व्यवहार से निकलने वाले प्रत्यय को ‘गाँधीवादी समाजवाद’ की संज्ञा दी जाती है।
उदारतावाद – उदारवाद (Liberalism) वह विचारधारा है जिसके अंतर्गत मनुष्य को विवेकशील प्राणी मानते हुए सामाजिक संस्थाओं को मनुष्यों की सूझबूझ और सामूहिक प्रयास का परिणाम समझा जाता है। जॉन लॉक को उदारवाद के जनक माना जाता है। आरंभिक उन्नायकों में एडम स्मिथ और जेरमी बेंथम के नाम विशेष रूप से उल्लेखीय हैं। (1)
उदारतावाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थन का राजनैतिक दर्शन है। वर्तमान विश्व में यह अत्यन्त प्रतिष्ठित धारणा है। पूरे इतिहास में अनेकों दार्शनिकों ने इसे बहुत महत्व एवं मान दिया।
रूढ़िवाद – रूढ़िवाद सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत व्यवहृत एक ऐसी विचारधारा हैं जो पारंपरिक मान्यताओं का अनुरण तार्किकता या वैज्ञानिकता के स्थान पर केवल आस्था तथा प्रागनुभवों के आधार पर करती है। यह सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक मान्यताओं को समुच्चय है जो चिरकाल से प्रचलित मान्यताओं और व्यवस्था के प्रति सम्मान को बढ़ावा देती है। यह विचारधारा नए और बिना आज़माए हुए विचारों और संस्थाओं को अपनाने के बिजाय पुराने और आज़माए हुए विचारों और संस्थाओं को क़ायम रखने का समर्थन करती है। डेविड ह्यूम और एडमंड बर्क रूढ़िवाद के प्रमुख उन्नायक माने जाते हैं। समकालीन विचारकों में माइकेल ओकशॉट को रूढ़िवाद का प्रमुख सिद्धांतकार माना जाता है।(1)
आदर्शवाद- विचारवाद या आदर्शवाद या प्रत्ययवाद (Idealism; Ideal = विचार या प्रत्यय) उन विचारों और मान्यताओं की समेकित विचारधारा है जिनके अनुसार इस जगत की समस्त वस्तुएं विचार (Idea) या चेतना (Consciousness) की अभिव्यक्ति है। सृष्टि का सारतत्त्व जड़ पदार्थ (Matter) नहीं अपितु मूल चेतना है। आदर्शवाद जड़ता या भौतिकवाद का विपरीत रूप प्रस्तुत करता है। (1) यह आत्मिक अभौतिक के प्राथमिक होने तथा भौतिक के द्वितीयक होने के सिद्धांत को अपना आधार बनाता है, जो उसे देश-काल में जगत की परिमितता और जगत की ईश्वर द्वारा रचना के विषय में धर्म के जड़सूत्रों के निकट पहुँचाता है। आदर्शवाद चेतना को प्रकृति से अलग करके देखता है, जिसके फलस्वरूप वह मानव चेतना और संज्ञान की प्रक्रिया को अनिवार्यतः रहस्यमय बनाता है और अक्सर संशयवाद तथा अज्ञेयवाद की तरफ बढ़ने लगता है।
(2) अराजकतावाद- अराजकतावाद (अंग्रेजी: Anarchism) एक राजनीतिक दर्शन है, जो स्वैच्छिक संस्थानों पर आधारित स्वाभिशासित समाजों वकालत करता है। इनका वर्णन अक्सर राज्यहीन समाजों के रूप में होता है, (1)(2)(3)(4) यद्यपि कई लेखकों ने इन्हें अधिक विशिष्टतापूर्वक अपदानुक्रमिक मुक्त संघों पर आधारित संस्थानों के रूप में परिभाषित किया है। (5) (6) (7) (8) अराजकतावाद के मतानुसार राज्य अवांछनीय, अनावश्यक और हानिकारक है(9X10) यह राजनीति विज्ञान की वह विचारधारा है जिसमें राज्य की उपस्थिति को अनावश्यक माना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी तरह की सरकार अवांछनीय है। इसमें साधारणतः यह तर्क दिया जाता है कि मनुष्य मूलतः विवेकशील, निष्कपट और न्यायपरायण प्राणी है। अतः यदि समाज सही ढंग से संगठित हो तो किसी प्रकार के बल प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। ऐसी स्थिति में राज्य की उपस्थिति स्वतः अप्रांसगिक हो जायेगी। (11)
सर्वाधिकारवाद- सर्वाधिकारवाद वह राजनीतिक सिद्धांत है जो राज्य की शक्ति को ही एक जगह केंद्रित करने में विश्वास करता है। यह विचारधारा जनता के दैनिक जीवन के समस्त पक्षों पर पूर्ण या लगभग पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने का समर्थन करता है।
सत्तावाद- सत्तावाद वह दृष्टिकोण है जिसमें सत्तारूढ़ दल या विचारधारा को आप्त मानकर आस्थापूर्वक उसके निर्देशों का पालन किया जाता है, उन पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं। लगाया जाता। (1)
गांधीवाद – गांधीवाद मोहनदास करमचंद गांधी (जिन्हें ज्यादातर महात्मा गांधी के नाम से जाना जाता है) के आदर्शों, विश्वासों एवं दर्शन से उदभूत विचारों के संग्रह को कहा जाता है, जो स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेताओं में से थे। यह ऐसे उन • सभी विचारों का एक समेकित रूप है जो गांधीजी ने जीवन पर्यंत जिया एवं किया था। जब किसी व्यक्ति या संस्थान को गांधीवादी कहकर संबोधित करते हैं तो उसका तात्पर्य होता है गांधी द्वारा स्थापित मूल्यों एवं आदर्शों का अनुपालन करनेवाला होता है।
नक्सलवाद – नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्पयुनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहां भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरूप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में “नक्सलवादियों” ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसक अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया।
माओवाद – माओवाद (1960-70 के दशक के दौरान) चरमपंथी अतिवादी माने जा रहे बुद्धिजीवी वर्ग का या उत्तेजित जनसमूह की सहज प्रतिक्रियावादी सिद्धांत है। माओवादी राजनैतिक रूप से सचेत सक्रिय और योजनाबद्ध काम करने वाले दल में काम करते हैं। उनका तथा मुख्यधारा के राजनैतिक दलों में यह प्रमुख भेद है कि जहाँ मुख्य धारा के दल वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही काम करना चाहते हैं वही माओवादी समूचे तंत्र को हिंसक तरीके से उखाड़ के अपनी विचारधारा के अनुरूप नयी व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं।
लेनिनवाद – लेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का मार्क्सवाद है। विचारधारा के स्तर पर यह सर्वहारा क्रांति की और विशेषकर सर्वहारा की तानाशाही का सिद्धांत और कार्यनीति है। (1) लेनिन ने उत्पादन की पूँजीवादी विधि के उस विश्लेषण को जारी रखा जिसे मार्क्स ने पूंजी में किया था और साम्राज्यवाद की परिस्थितियों में आर्थिक तथा राजनीतिक विकास के नियमों को उजागर किया। लेनिनवाद की सृजनशील आत्मा समाजवादी कांति के उनके सिद्धांत में व्यक्त हुई है। लेनिन ने प्रतिपादित किया कि नयी अवस्थाओं में समाजवाद पहले एक या कुछ देशों में विजयी हो सकता है। उन्होंने नेतृत्वकारी तथा संगठनकारी शक्ति के रूप में सर्वहारा वर्ग की दल विषयक मत को प्रतिपादन किया जिसके बिना सर्वहारा अधिनायकत्व की उपलब्धि तथा साम्यवादी समाज का निर्माण असम्भव है।
कुलीनतावाद – कुलीनतावाद राजनीति विज्ञान की वह विचारधारा है जिसमें कुलीन तंत्र की श्रेष्ठता को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की जाती है। प्लेटो एवं अरस्तू को कुलीनतावाद का उन्नायक विचारक माना जाता है। इस सिद्धांत के अंतर्गत वंश, कुल तथा प्रजाति को आभिजात्य का प्रतिमान माना जाता है। सामान्यतः एक अल्पसंख्यक विशेषाधिकृत वर्ग को ही शासन सत्ता के परिचालन के योगय माना जाता है।
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