शिक्षा में धर्म का योगदान एवं शिक्षा धर्म के सम्बन्धों को स्पष्ट कीजिए?
शिक्षा में धर्म का योगदान धर्म और शिक्षा का संबंध अत्यंत घनिष्ठ – और प्राचीन है। प्राचीन भारत में शिक्षा धर्म धारित थी। यूरोप में भी यही स्थिति रही है। धर्म व शिक्षा परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। शिक्षा धर्म द्वारा नैतिक और आध्यात्मिक आदर्श प्राप्त करती है।
डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में –“यदि हम केवल औद्योगिक तथा व्यावसायिक शिक्षा पर बल देकर आध्यात्मिक शिक्षा की उपेक्षा करेंगे, तो सामाजिक बर्बरता तथ राक्षस राज के आने में कोई कसर नहीं रह जायेगी।”
भारतीय मान्यता के अनुसार शिक्षा केवल जीविका कमाने का साधन नहीं है और न ही यह विचारों की पाठशाला तथा नागरिकता का विद्यालय है। यह मानवीय आत्माओं को सत्य की खोज तथा गुणों का विकसित करने का प्रशिक्षण है। यह दूसरा जन्म है, द्वितीय जन्म है। “
शिक्षा बालक का चहुंमुखी विकास करती है। धर्म मानव में नैतिक, चारित्रिक एवं आध्यात्मिक विकास लाती हैं। अतः धर्म और शिक्षा दोनों ही बालक के विकास में संलग्न है। भारतीय दर्शन में धर्म के दस लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं-
“घृतिः क्षमा दमोहस्तवे शोच निमिन्द्रिय निग्रहः ।
घी विद्या सत्यक्रोधो दशक कर्म लक्षणम् ॥ “
शिक्षा धर्म के उपर्युक्त लक्षणों पर बल देकर बालक को शिक्षित करती है। अतः धर्म और शिक्षा परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का एक ही उद्देश्य है- मानव का सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास।
भारत में अनेक धर्मों के लोग रहते हैं, अतः हमारे संविधान में तथा शिक्षा व्यवस्था में ‘धर्म निरपेक्षता’ को स्वीकार किया गया है। संविधान की धारा 19 के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता है, धारा-22 के किसी धर्म पर कर नहीं लगाया जाये, धारा-22 के अनुसार राजकीय शिक्षा संस्थाओं में धर्म की शिक्षा नहीं दी जा सकती है। यह प्रावधान शिक्षा में धार्मिक कट्टरता के प्रवेश पर रोक लगाने हेतु किया गया है। प्रत्येक विद्यालय में बिना धार्मिक भेदभाव के विद्यालय में प्रवेश दिया जाता है। इससे राष्ट्रीय भावनात्मक एकता की भावना विकसित होती है।
धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध
धर्म तथा शिक्षा का सम्बन्ध घनिष्ठ है। शिक्षा द्वारा हम व्यक्ति में जिन गुणों का विकास करना चाहते हैं। धर्म ने भी उन्हीं गुणों के विकास को अपना लक्ष्य बनाया है। दोनों में बालक के शारीरिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास पर बल दिया जाता है। दोनों में व्यक्ति को वातावरण से ऊपर उठाने का आग्रह किया जाता है। दोनों ही व्यक्ति की आकांक्षा को बढ़ाते हैं और दोनों के द्वारा व्यक्ति भावों एवं विचारों के क्षेत्र में ऊँचा उठता है।
शिक्षा व्यक्ति में स्वतंत्र एंव निष्पक्ष दृष्टिकोण का विकास करना चाहती है। अब धर्म भी यही करने का दावा करता है। धर्म द्वार हम क्षमा, स्वतंत्रता, समानता और मानवता का पाठ पढ़ते हैं। ये गुण जनतंत्र के लिए आवश्यक हैं और शिक्षा के लिए भी ये ध्येय स्वरूप हैं। धर्म जनतंत्रीय आदर्शों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने का एक साधन है। शिक्षा द्वारा बालक को सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया जाता है। इस कार्य में धर्म बड़ा सहायक सिद्ध होता है। ‘धर्म-विहीन शिक्षा का समर्थन नहीं किया जा सकता। हमारे देश के कर्णधारों ने भी धर्म और शिक्षा के सम्बन्ध को पहचानकर धार्मिक शिक्षा का समर्थन किया हैं। महात्मा गांधी, डा. राधाकृष्णन, महामना मालवीय, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द आदि मनीषियों ने शिक्षा में धर्म की व्यवस्था को आवश्यक माना है।
आज चारों ओर संघर्ष ही संघर्ष दिखायी पड़ रहा है। विद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले विषय बालक का केवल बौद्धिक विकास करते हैं। व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की चिंता केवल धर्म को है। धर्म ने सदा सद्गुणों का विकास किया है। धर्म से चारित्रिक बल आता है। वैज्ञानिक तर्क बुद्धि के साथ-साथ चारित्रिक बल आवश्यक है। भौतिक समृद्धि के साथ साथ आध्यात्मिक शांति आवश्यक है अतः शिक्षा को व्यापक धार्मिक भावना पर आधारित होना चाहिए।
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