शुद्ध ब्याज और कुल ब्याज को परिभाषित कीजिए। इनमें अन्तर स्पष्ट कीजिए ।
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शुद्ध ब्याज और कुल ब्याज (Net Interest and Gross Interest)
शुद्ध ब्याज (Net Interest) – शुद्ध ब्याज से आशय उस धनराशि से है जो ऋणी ऋणदाता को केवल पूँजी के प्रयोग के बदले में देता है। स्पष्ट है कि शुद्ध ब्याज के अन्तर्गत केवल पूँजी का पारितोषिक ही सम्मिलित होता है, अन्य प्रकार का कोई भुगतान नहीं।
मार्शल के अनुसार, “ब्याज जिसे हम केवल पूँजी की आय अथवा इन्तजार करने का पारितोषिक कहते हैं, वास्तविक ब्याज है।”
प्रो० चैपमैन के अनुसार, “शुद्ध ब्याज वह कीमत है जो कि ऋण लेने वाला ऋणदाता की पूँजी की सेवाओं के लिए देता है, जबकि पूँजी उधार देने में न तो उसके मारे जाने का जोखिम है और न उधार देने वालों को किसी प्रकार की असुविधा ही हो और न उसकी वसूली पर किसी प्रकार का झंझट हुआ हो।”
उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि शुद्ध ब्याज पूँजी के प्रयोग के बदले में दिये जाने वाले उस भुगतान को कहते हैं जबकि ऋण देने के सम्बन्ध में ऋणदाता को पूँजी उधार देने में किसी प्रकार की असुविधा नहीं होती और ऋण की वसूली आसानी से होती है। शुद्ध ब्याज को वास्तविक व आर्थिक ब्याज भी कहते हैं।
कुल ब्याज (Gross Interest)— कुल ब्याज से आशय उस धनराशि से होता है जो ऋणी ऋणदाता को साधारणतया देता है। इसमें शुद्ध ब्याज के अतिरिक्त जोखिम का प्रतिफल, असुविधा व कष्ट के लिए भुगतान तथा ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले कार्य का भुगतान आदि भी सम्मिलित होता है।
प्रो० चैपमैन, “कुल ब्याज में पूँजी उधार देने का पुरस्कार, व्यक्तिगत हानि का जोखिम अथवा व्यावसायिक जोखिम, विनियोग की असुविधाओं का पुरस्कार और विनियोग की देखभाल सम्बन्धी कार्य और चिन्ता के लिए पुरस्कार सम्मिलित होते हैं।’
कुल ब्याज के अंग (Constituents of Gross Interest)
कुल ब्याज के निम्नलिखित अंग हैं-
(1) शुद्ध ब्याज- केवल पूँजी के प्रयोग के लिए किए गए भुगतान को शुद्ध ब्याज कहते हैं जो कुल व्याज का एक महत्वपूर्ण अंग है।
(2) जोखिम के लिए भुगतान — एक ऋणदाता को ऋण देने पर कुछ जोखिम उठानी पड़ती है जिसके लिए उसे कुछ प्रतिफल मिलता है। वास्तव में जोखिम के बदले में मिलने वाले प्रतिफल को ही कुल व्याज का एक अंग माना जाता है। मार्शल ने इस जोखिम को दो भागों में बाँटा है-
(i) व्यावसायिक जोखिम — जब ऋणदाता किसी व्यापारी को ऋण देता है तो इस बात की जोखिम रहती है। कि ऋणदाता को मूलधन तथा ब्याज वापस प्राप्त होगा कि नहीं, क्योंकि व्यापारिक हानि होने पर ऋणदाता केवल ब्याज ही नहीं बल्कि अपने मूलधन को भी खो सकता है। अतः इस जोखिम को उठाने के बदले में ऋणदाता को कुछ न कुछ पुरस्कार मिलना स्वाभाविक है जो वह ब्याज में पहले से ही सम्मिलित कर लेता है।
(ii) व्यक्तिगत जोखिम – व्यक्तिगत जोखिम ऋणदाता के व्यक्तिगत चरित्र व योग्यता में परिवर्तन के कारण होता है। यदि ऋणदाता को ऋणी के ऊपर ईमानदारी की दृष्टि से विश्वास है तो उसे ऋणी को रुपया उधार देने में जोखिम उठानी होती है और यही कारण है कि नीची ब्याज की दर पर उधार देता है। इसके विपरीत, यदि ऋणी का चरित्र अविश्वसनीय है तो उसे अधिक ब्याज की दर पर उधार मिल सकेगा। इस प्रकार ऋण प्रदान करने में जोखिम जितनी अधिक होती है, ब्याज की दर भी उतनी ही अधिक होती है।
(3) प्रबन्ध के लिए भुगतान — ऋणदाता को ऋणों को लेन-देने के सम्बन्ध में प्रबन्ध पर कुछ व्यय करना पड़ता है; जैसे प्रत्येक ऋणी का हिसाब-किताब रखना, ऋण वसूली के लिए तकादा करना, ऋण समय पर न मिलने पर कानूनी कार्यवाही करना इत्यादि। इन सब प्रबन्ध कार्यों के लिए ऋणदाता को कुछ भुगतान करना पड़ता है जिसकी पूर्ति वह ऋणी से ब्याज के रूप में कर लेता है।
(4) असुविधाओं के लिए भुगतान- ऋणदाता को ऋण देने में कुछ असुविधाओं को भी उठाना पड़ता है। यह सम्भव है कि आवश्यकता के समय ऋणदाता को अपना ऋण वापस न हो या रुपया थोड़ा-थोड़ा करके तकादों के बाद प्राप्त हो, इससे ऋणदाता को स्वाभाविक रूप से असुविधा होगी। अतः इन असुविधाओं का पुरस्कार भी ऋणदाता को ब्याज के रूप में ही मिलता है।
शुद्ध ब्याज और कुल ब्याज में अन्तर (Difference between Net Interest and Gross Interest)
प्रो० मार्शल के शब्दों में, “जिस ब्याज का उल्लेख हम अर्थशास्त्र में करते हैं उसका अभिप्राय केवल पूँजी के परितोषण या प्रतीक्षा के प्रतिफल से होता है, किन्तु साधारण बोलचाल की भाषा में जिसे ब्याज कहा जाता है उसमें शुद्ध ब्याज के अतिरिक्त अन्य तत्व भी शामिल होते हैं। वह सकल अथवा कुल ब्याज है।”
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