समूह की विशेषतायें बताइये और अन्तःक्रियात्मक प्रक्रिया का वर्णन कीजिये ।
व्यक्ति समाज में उत्पन्न होता है, समाज में उसका विकास होता है, समाज की क्रिया प्रतिक्रिया के मध्य वह स्वयं को समायोजित करता है। समाज अधिक स्थायी है और उसमें अनेक समूह होते हैं। इनमें गुण की अपेक्षा आकार का अन्तर होता है। मानव का जन्म समाज के किसी समूह में होता है। समूह के नियम रीति-रिवाज, मान्यतायें तथा परम्परायें व्यक्ति एवं उसके व्यवहार को प्रभावित करती हैं। शिशु अपने व्यवहार का विकास सामूहिक परिस्थिति में करता है। अधिगम (Learning) की क्रिया को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिये अध्यापक को समूह मनोविज्ञान (Group Psychology) का ज्ञान होना आवश्यक है।
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समूह : परिभाषा
समूह, समाज का एक अंग है। समूह की परिभाषायें अनेक विद्वानों ने अपने ढंग से दी हैं। हम यहाँ पर कुछ परिभाषायें प्रस्तुत कर रहे हैं-
1. पी० जिसबर्ट- एक सामाजिक समूह व्यक्तियों का वह समूह है, जो मान्यता प्राप्त संरचना के अधीन क्रिया-प्रतिक्रिया करता है।
2. लीबोन- जब मानव, समूह में आता है तो वह समूह मन का अनुभव करता है। उसके अनुभव, चिन्तन तथा कार्य, उसके नितान्त व्यक्तिगत रूप से कार्य करने की स्थिति से भिन्न होते हैं।
3. कैटल- समूह, मनुष्यों का संगठन है, जिसमें आपसी सम्बन्धों के माध्यम से वे अपनी कतिपय आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करते हैं। इस पर भी व्यक्तियों का यह दल जो अपनी आवश्यकताओं को चेतन रूप में व्यक्त करता है, एवं यान्त्रिक रूप में अस्तित्व बनाये रखता है, समूह कहलाता है।
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि समूह में तीन बातों का होना आवश्यक है— (1) सामान्य उद्देश्य, (2) सदस्यता, (3) संगठन समूह किसी भी प्रकार का हो, उपर्युक्त तीनों बातें अनिवार्यतः पाई जायेंगी। शिक्षा को प्राचीन काल से ही सामाजिक, नियन्त्रण का माध्यम माना जाता रहा है। आज भी शिक्षा सामाजिक नियन्त्रण के माध्यम के रूप में कार्य कर रही है। समूह, शिक्षा से दिशा-बोध प्राप्त करते हैं। अतः समूह की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है।
समूह संरचना
प्रश्न उठता है— समूह का निर्माण किस प्रकार होता है ? वास्तविकता यह है कि समूह का निर्माण मानव की आवश्यकताओं के अनुसार होता है। ये आवश्यकतायें प्राथमिक (Primary) तथा द्वितीयक (Secondary) रूप में विद्यमान हैं। इन्हीं के आधार पर समूह भी दो प्रकार के होते हैं—(1) प्राथमिक तथा (2) द्वितीयक। प्राथमिक समूह के अन्तर्गत अनिवार्य सदस्यता वाले समूह आ जाते हैं। परिवार, राष्ट्र, राज्य, समाज, समुदाय इसी प्रकार के समूह होते हैं। द्वितीयक समूहों की सदस्यता ऐच्छिक होती है। सदस्य जब चाहे, सदस्यता त्याग सकता है। क्लब, विद्यालय, धार्मिक संस्थायें, मनोरंजन एवं राजनैतिक संघ आदि द्वितीयक समूह होते हैं।
समूह : विशेषतायें
प्रत्येक समूह की कुछ विशेषतायें होती हैं। ये विशेषतायें समूह की सफलता तथा प्रभाव की द्योतक होती हैं।
1. समान उद्देश्य – समाज में अस्तित्व बनाये रखने वाले प्रत्येक समूह का समान उद्देश्य होता है। इस समान उद्देश्य की पूर्ति पारस्परिक सद्भाव से की जाती है।
2. सदस्यता – समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिये जो व्यक्ति एक संघ में एकत्र होते हैं, वे सभी उस समूह की सदस्यता का निर्माण करते हैं।
3. एकता की भावना – समूह के सदस्यों में आपस में एकता की भावना पाई जाती है। एकता की भावना का आधार समान स्वार्थों की पूर्ति के लिये एक साथ कार्य करना है तथा परिणाम के साथ सामान्यीकरण करना है।
4. विचारों का आदान-प्रदान – अच्छे समूहों में सदस्य आपस में विचार विनिमय करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।
5. सहयोग – समूह का प्रत्येक कार्य सदस्यों के सहयोग के अभाव में अपूर्ण होता है। अतः समूह के सदस्यों में सहयोग विकसित होता है।
मानक- समूह की स्थापना के पश्चात् सदस्यगण जाने जनजाने ऐसे नियमों तथा क्रियाओं का निर्धारण करते हैं, जिनको सदस्यों द्वारा पालन करना आवश्यक हो जाता है। ये मानक, नियमों में निर्धारण अथवा परम्पराओं का कारण निर्धारित होते हैं।
समूह प्रक्रिया : विश्लेषण
शिक्षा स्वयं में सामूहिक प्रवृत्ति के लिये है। समूह की प्रक्रिया का विश्लेषण करने में निम्नलिखित तथ्य पर्याप्त सहयोग देते हैं—
1. सार्थकता- समूह की प्रक्रिया का विश्लेषण करते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिये कि जिन कक्षाओं अथवा विद्यालयों में व्यवहार का अध्ययन किया जा रहा हो, वे सार्थक हों।
2. द्विइकाई (Dyadic unit) – विश्लेषण के लिये कम से कम दो व्यक्ति अवश्य हों, जो आपस में विचार-विमर्श कर सकें। यह विचार-विमर्श विश्लेषण का आवश्यक अंग है।
3. कालक्रम (Temporal sequence) – समयानुसार समूह की प्रक्रिया में परिवर्तन की प्रकृति कैसी रहती है, इसका भी ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिये।
4. दिशा बोध- समूह की प्रक्रिया लक्ष्य की ओर किस प्रकार तथा किस गति से अग्रसर होती रहती है, इसकी भी जानकारी होती रहनी चाहिये।
कक्षा : सामूहिक प्रक्रिया (Class Group Process )
कक्षा एक छोटा समूह है। इस समूह में सदस्य संख्या 30-50 के लगभग होती है। विशेष परिस्थितियों में यह संख्या 150 तक देखी गई है। कक्षा-समूह में स्थिरता होती है तथा उसकी अपनी विशिष्ट रचना होती है। कक्षा की रचना पर विद्यालय द्वारा निर्धारित नियमों तथा परम्पराओं का प्रभाव पड़ता है। कक्षानायक (Monitor) कक्षा का अधिकारी होता है। कक्षा में सामान्य आयु समूह के बालक होते हैं। इस छोटे समूह में क्रिया संचालन एक क्रिया के तुरन्त पश्चात् होने लगता है। ये क्रियायें आपस में सम्बन्धित होती हैं और इनमें क्षैतिज (Horizontal) तथा लम्बरूप (Vertical) सम्बन्ध होते हैं।
छोटे समूहों में यदि सदस्य किसी प्रकार का उत्तर देता है या अनुक्रिया व्यक्त करता है तो उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है। वह स्थानापन्न क्रिया द्वारा उस उत्तर की पूर्ति कर लेता है। छोटे समूह में क्रिया का उद्देश्य निश्चित है और आपसी वाद-विवाद तथा परस्पर विचार-विमर्श के द्वारा लक्ष्य की ओर अग्रसर होने की सम्भावना रहती है।
कक्षा को एक समूह मान लेने के पश्चात् यह आवश्यक हो जाता है कि हम यह देखें कि कक्षा रूपी समूह की क्या विशेषतायें होती हैं।
1. पूर्व निश्चित उद्देश्य- प्रत्येक कक्षा समूह का निश्चित उद्देश्य होता है। इस उद्देश्य को प्राप्त करना प्रत्येक सदस्य का कर्त्तव्य हो जाता है। कक्षा समूह का उद्देश्य बाह्य शक्तियों, यथा शिक्षा विभाग, विद्यालय, समुदाय तथा समाज द्वारा निर्धारित होता है।
2. पाठन प्रक्रिया – प्रत्येक कक्षा-समूह अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिये पठन प्रक्रिया में होकर गुजरता है। पठन प्रक्रिया के अन्तर्गत पाठ्यक्रम शिक्षण विधि, समय-विभाग चक्र, विद्यालय का वातावरण आदि आते हैं, जिनकी सहायता से उद्देश्य प्राप्त किया जाता है।
3. उद्देश्य- कक्षा समूह के दो उद्देश्य होते हैं- (1) व्यक्तिगत- इसके अन्तर्गत बालक की सफलता आती है। (2) सामूहिक- इसके अन्तर्गत कक्षा की सामूहिक लक्ष्य प्राप्ति निहित होती है। इस प्रकार व्यक्तिगत तथा सामूहिक उद्देश्यों के माध्यम से बालक का व्यक्तिगत तथा सामाजिक विकास होता है।
4. मूल्यांकन – कक्षा की उपलब्धियों का मूल्यांकन समय-समय पर परीक्षाओं द्वारा किया जाता है। मूल्यांकन के द्वारा कक्षा समूह को प्रेरित करके निर्धारित लक्ष्य तक ले जाता है।
5. सदस्यता – कक्षा समूह के सदस्यों का निर्वाचन उनकी प्रगति, आयु, उपलब्धि तथा विकास-क्रम के आधार पर किया जाता है। कक्षा में सदस्य संख्या पूर्व निर्धारित होती है।
6. नेतृत्व – कक्षा समूह का एक नेता भी होता है। इस नेता को निर्वाचित भी किया जाता है तथा नियुक्त भी किया जाता है। नेता की नियुक्ति अध्यापक द्वारा होती है। वह कक्षा में अध्यापक की अनुपस्थिति में अनुशासन बनाये रखने के लिये उत्तरदायी होता है।
7. ज्ञान प्राप्ति- अध्यापक के मार्ग प्रदर्शन के अन्तर्गत कक्षा-समूह नवीन ज्ञान प्राप्त करता है और अपने व्यवहार का संशोधन करता है।
8. निर्धारित कार्य- कक्षा समूह में अध्यापक तथा छात्रों के कार्यों की भूमिका पूर्व निर्धारित होती है। अध्यापकों को क्या पढ़ाना है और छात्रों को क्या पढ़ना है, इसका निश्चय भी बाह्य शक्तियाँ करती हैं।
आजकल वातावरण तथा सम्पर्क पर बल दिया जाता है। समाज में सामूहिक अधिगम को प्रभावित करने वाले आधार इस प्रकार हैं-
- बालकों के व्यवहार में परिमार्जन सामूहिक परिस्थितियों से होता है। ये परिस्थितियाँ अधिकाधिक सम्पर्क पर बल देती हैं। जितना अधिक सम्पर्क होगा, उतना ही अधिक अधिगम होगा।
- सामाजिक तथा संवेगात्मक परिस्थितियाँ अधिगम पर प्रभाव डालती हैं।
- अधिगम की प्रक्रिया पर कक्षा के वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है।
- अधिगम की प्रक्रिया की और भी अधिक सफल बनाने के लिये कक्षा को उपसमूहों में विभक्त किया जा सकता है।
- कक्षा को समूह के रूप में कार्य करने के लिये प्रशिक्षण आवश्यक है।
- अध्यापक सामूहिक क्रियाओं के द्वारा छात्रों से प्रत्ययों, विचारों, अभिवृत्तियों को परिष्कृत कर सकते हैं।
- समूह की समस्या के समाधान को अध्यापक समूह पद्धति से ही हल कर सकता है।
कक्षा : समस्या समाधान
समूह के रूप में कक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। वह एक तो सामाजिक दायित्व की पूर्ति करती है तो दूसरी ओर व्यक्तिगत विकास के लिये अवसर प्रदान करती है। कक्षा की समस्याओं के समाधान के लिये पर्दों का अनुसरण किया जा सकता है—
1. अभिप्रेरणा – जब कक्षा के समक्ष कोई समस्या प्रस्तुत की जाती है तो सम्पूर्ण कक्षा को उसके समाधान खोजने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये। यदि समस्या, समूह के लिये महत्वपूर्ण है तो समूह का प्रत्येक सदस्य उसके समाधान के लिये तत्पर होगा।
2. विश्लेषण – कक्षा के अभिप्रेरित हो जाने के पश्चात् समस्या के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है। समस्या के विभिन्न आधारों का विश्लेषण करके विस्तृत कार्य योजना का निर्माण किया जाता है।
3. परिकल्पना (Hypothesis)- समस्या का विश्लेषण करने के पश्चात् परिकल्पना का निर्माण किया जाता है। परिकल्पना हमारे अनुमान को विश्वसनीय अथवा अविश्वसनीय बनाती है।
4. क्रियाशील- परिकल्पना के निर्माण के पश्चात् उसकी सत्यता की जाँच करने के लिये अनेक कार्य करने पड़ते हैं।
5. स्वीकृति-अस्वीकृति – क्रियाशीलता द्वारा जो अनुभव प्राप्त होते हैं, उनके आधार पर समूह की समस्या की परिकल्पना की सत्यता, असत्यता की जाँच की जाती है। यदि समस्या का समाधान, परिकल्पना के अनुसार हो जाता है तो उसे स्वीकार कर लिया जाता है।
कक्षा समूह की भूमिका
कक्षा समूह स्वयं में एक बहुत बड़े कार्यक्रम को लेकर आगे बढ़ता है। यह कार्यक्रम छात्र की शक्ति, सदस्यों की योग्यता आदि पर निर्भर करता है। कक्षा एक समूह के रूप में इन भूमिकाओं का निर्वाह करती है।
1. शक्ति प्रदान करना- समूह के सदस्य अपनी उपलब्धियों से दूसरे सदस्यों में अधिक तथा स्तर का कार्य करने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। ये सदस्य अन्य सदस्यों को समस्या समाधान के लिये प्रेरित करते रहते हैं।
2. सूचना प्रदान करना- कक्षा समूह में कुछ सदस्य अन्य सदस्यों को नवीन सूचनायें प्रदान करते रहते हैं। नवीन सूचनाओं के चयन तथा उनकी अभिव्यक्ति में अध्यापक का योग निहित रहता है।
3. सूचना प्राप्त करना- कुछ सदस्य, अन्य सदस्यों से सूचनायें प्राप्त करते हैं। इन सदस्यों का कार्य समस्या समाधान की अधिकाधिक सूचनायें ग्रहण करना है।
4. अभिप्रेरक– जो सदस्य समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है, वह अभिप्रेरक कहलाता है। समूह में ऐसे अनेक सदस्य हो सकते हैं।
5. विस्तार देना- समस्या के समाधान में विभिन्न पदों को अनेक पहलुओं से विस्तार दिया जाता है। इस प्रकार तर्क शक्ति का विकास होता है।
6. अभिमत प्रकट करना- समूह में समस्या का समाधान करने हेतु अनेक सदस्य अपनी-अपनी राय प्रकट करते हैं। इसीलिये समूह में विवेचित बात और उससे प्राप्त निष्कर्ष को अन्तिम रूप से माना जाता है।
7. मूल्यांकन – सदस्यों का अभिमत प्राप्त होने पर उसका मूल्यांकन किया जाता है। मूल्यांकन के द्वारा कक्षा समूह सदस्य की परिकल्पना की जाँच करता है।
समूह : अध्ययन पद्धति
समूह की क्रिया प्रतिक्रिया के अध्ययन के लिये इन विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-
1. निरीक्षण विधियाँ (Observation methods) – निरीक्षण विधियाँ समूह के अध्ययन की प्राचीनतम विधियाँ हैं। समूह की क्रियाओं एवं उपलब्धियों का नियोजित एवं क्रमबद्ध रूप में अध्ययन किया जा सकता है। निरीक्षण वैज्ञानिक एवं वस्तुनिष्ठ होना चाहिये। वह विश्वसनीय हो तथा समस्या पर केन्द्रित दृष्टि रखता हो। निरीक्षण विधि को प्रमापीकृत (Standardised) करने के लिये रिकॉर्ड्स एवं विश्लेषण विधि अपनाई जाती है। इस पद्धति को अपनाये जाने के लिये इन बातों का ध्यान रखना पड़ता है-
1. जिस क्रिया का अध्ययन करना हो, उसके सभी पहलुओं पर विचार करके क्षेत्र निर्धारित कर लेना चाहिये। अध्यापक को चाहिये कि वह परिस्थिति पर सोचे तथा उनके लिये उद्दीपन प्रस्तुत करे। अध्यापक वाद-विवाद, परिचर्चा आदि का आयोजन कर सकता है। अध्यापक को अध्ययन की सामग्री (Tools) आदि को स्वयं तय करना चाहिये।
2. समूह के सदस्यों से प्राप्त अभिलेखों का विश्लेषण भी किया जाना चाहिये। यह विश्लेषण डायरी, नोटबुक, जीवनी सम्बन्धी टिप्पणियाँ, घटनाओं का संकलन करके किया जाये। प्रश्नावली विधि को भी अपनाकर अध्ययन सामग्री प्राप्त की जा सकती है। अन्य सामग्री को स्टैनो की सहायता से प्राप्त किया जा सकता है। जैसे पार्टी को सहायता से कार्यवाही का ब्यौरा आदि। छात्रों की भाव- मुद्रा, संवेगात्मक स्थिति का अध्ययन किया जाना चाहिये।
साथ ही अन्य उपकरणों का यथा टेपरिकार्डर, फिल्म, मूक-फिल्म आदि के द्वारा समूह का अध्ययन किया जा सकता है।
2. समाजमिति (Sociometry) – समूह के अध्ययन करने की दूसरी विधि समाजमिति है। मौखिक प्रश्न या लिखित प्रश्नों के माध्यम से समूह के सदस्यों की प्रतिक्रिया जानी जाती है। समाजमिति वह तकनीक है, जो समूह के सदस्यों में अनेक प्रकार के सदस्यों को प्रकट करती है, इसका आधार व्यक्तिगत पसन्द है।
सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि इस विधि से समूह में किस सदस्य से सम्बन्ध रखे जायें, यह जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसमें प्रत्येक सदस्य से उसकी पसन्द ज्ञात की जाती है और फिर उसकी लोकप्रियता, अलोकप्रियता का पता लगाया जाता है।
समाजमिति से प्राप्त सूचनायें समाज के अवबोध में बहुत सहायक होती हैं। अधिक लोकप्रिय चुने हुए सदस्य (Stars) तथा कम लोकप्रिय चुने हुए सदस्य (Isolates) समूह की रचना पर भी प्रभाव डालते हैं। समाजमिति से प्राप्त आँकड़े अध्यापक को कक्षा की गतिशीलता का अवबोध करने में अत्यन्त सहायक होंगे।
विद्यालय : समूह प्रक्रिया
विद्यालय स्वयं में अनेक छोटे-छोटे समूहों से बना वृहद् समूह है। विद्यालय में भिन्न-भिन्न स्थानों, सामाजिक-आर्थिक स्तर तथा आयु के बालक होते हैं। यदि यों कहा जाये कि समूह में विषम प्रकृति के व्यक्ति समान उद्देश्य की प्राप्ति के लिये एकत्र होते हैं तो अत्युक्ति न होगी। अध्यापक तथा प्रधानाध्यापक विद्यालय के प्रति सामूहिक भावना का विकास इस प्रकार कर सकते हैं—
1. वातावरण – विद्यालय के वातावरण का बालक के मस्तिष्क पर बहुत प्रभाव पड़ता है। जिन विद्यालयों का भौतिक एवं सामाजिक वातावरण अच्छा होता है, वहाँ के बालकों का विकास उचित ढंग से होता है। बालक में विद्यालय के प्रति तनाव व आक्रोश नहीं होता है। विद्यालयों में धर्म, जाति, प्रजाति, रंग, लिंग, आर्थिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं किया जाना चाहिये। सभी बालकों के प्रति समान व्यवहार होना चाहिये ।
2. सामूहिक खेल- विद्यालयों में सामूहिक खेलों के माध्यम से समूह की भावना को विकसित किया जा सकता है। बॉलीबाल, कबड्डी, फुटबाल, खो-खो आदि खेल समूह की भावना को विकसित करने में सहायक होते हैं।
3. सांस्कृतिक कार्यक्रम- विद्यालयों में साहित्यिक तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से भी सामूहिक भावना का विकास किया जा सकता है। स्काउटिंग, व्याख्यान, वाद-विवाद अभिनय, पर्यटन आदि से सामूहिक भावना विकसित हो सकती है।
4. स्वाधीनता- विद्यालय में बालकों के विकास एवं सामूहिक भावना की अभिवृत्ति के लिये यह आवश्यक है कि बालकों को कार्य करने की पर्याप्त स्वाधीनता दी जाये। छात्र परिषद् का कार्य संचालन, छात्रावास के नियम आदि बनाने का कार्य छात्रों को ही सौंपना चाहिये। प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, प्रजातन्त्र के नियमों का पालन आदि से सामूहिक भावना को विकसित किया जा सकता है।
5. सामूहिक आयोजना- विद्यालयों में सामूहिक आयोजन किये जाने चाहियें। 26 जनवरी, 15 अगस्त, 2 अक्टूबर, 14 नवम्बर आदि आयोजनों को राष्ट्रीय महत्व के रूप में मनाया जाना चाहिये। इससे छात्रों को एक-दूसरे के सम्पर्क में आने का अवसर प्राप्त होगा।
6. अध्यापक की भूमिका- अध्यापक को बच्चों के समक्ष अच्छे आदर्श प्रस्तुत करने चाहियें। छात्रों से सम्पर्क बनाये रखना चाहिये। छात्रों की वैयक्तिक कठिनाइयों को हल करने में सहयोग देना चाहिये। अध्यापक तथा प्रधानाध्यापकों का. छात्रों से सीधा सम्पर्क सामूहिक भावना को विकसित करेगा।
7. योग्यता – अध्यापकों को इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि छात्रों को जो भी समस्या दी जाये वह उनकी शारीरिक क्षमता तथा मानसिक योग्यता के अनुसार हो। इस प्रकार छात्र समस्या समाधान में रुचि लेंगे एवं कार्य के विकास में सहायता मिलेगी, जिससे वे विद्यालय के प्रति सद्भाव रखेंगे।
अध्यापक : समूह प्रक्रिया
छात्रों में सामूहिक भावना का विकास करने में अध्यापक चिकित्सक (Therapist), नियन्त्रक (Controller), निर्देशक, (Instructor) की भूमिका प्रस्तुत करता है। वह छात्रों की अभिवृत्ति, आचरण तथा अवस्थाओं को विकसित करता है। सत्य यह है- “सामान्य रूप से समूह का वातावरण या सामूहिक जीवन की पद्धति, जो अधिकांश रूप में अध्यापक के नियन्त्रण में होती है, वह सदस्यों के व्यक्तित्व पर प्रभाव डाल सकती है। सामूहिक जीवन की ऐसी ही प्रणाली छात्रों को बदमिजाज बना देती है, वे संशयात्मक स्थिति में रहते हैं, उद्देश्यहीनता उनमें व्याप्त रहती है। दूसरी ओर यह सोद्देश्य व्यक्तियों का निर्माण करती है। “
1. नये ज्ञान का अधिगम – अध्यापक की भूमिका समूह को नये ज्ञान को अधिगम देने के लिये आवश्यक है। अध्यापक यदि अधिगम की क्रिया को छात्रों के साथ मिलकर सम्पन्न करता है तो वह स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास करता है। अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ है कि मिलकर कार्य करना (Participation) निरीक्षण (Supervision) से अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है। अध्यापक को चाहिये कि वह कक्षा में केवल निरीक्षण मात्र ही न करे, अपितु उसे छात्रों के साथ मिलकर समस्या के समाधान के लिये प्रस्तुत रहना चाहिये। ऐसा करने से अधिगम की क्रिया रुचिकर हो जाती है। समूह के सदस्य को अपने किये गये कार्यों से अधिक सन्तोष प्राप्त होता है।
2. नेतृत्व प्रदान करना- अध्यापक स्वयं ही अनेक क्षेत्रों में नेतृत्व प्रदान करता है। अध्यापक को चाहिये कि वह छात्रों में ही नेतृत्व की भावना विकसित करने के लिये उत्तरदायित्व विकसित करे। छात्रों को अपना नेता चुनने का अवसर प्रदान करना चाहिये ।
3. समस्या समाधान – कठिनतम समस्याओं का समाधान समूह में समस्या समाधान का उद्दीपन प्रस्तुत कर सकता है। इस कार्य को करने के लिये अध्यापक को छात्रों के उद्देश्यों को ध्यान में रखना चाहिये। अध्यापक को चाहिये कि वह वैयक्तिक उद्देश्यों को सामाजिक उद्देश्यों में परिवर्तित करे एवं समूह में अधिक दृढ़ता उत्पन्न करनी चाहिये ।
समूह अधिगम सीमायें– समूह में अधिगम की भी कुछ परिसीमायें हैं। समूह में अधिगम करने की योग्यता भिन्न होती है। उच्च स्तर के छात्र सामूहिक क्रियाओं से लाभ नहीं उठा पाते है। इसी प्रकार निम्न स्तर के छात्र भी लाभ से वंचित रह जाते हैं। कुछ कार्य वैयक्तिक रूप से ही सीख लेते हैं। सामूहिक रूप से सीखने में उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि नहीं होती।
आज के युग में समूह के माध्यम से अधिगम करने का महत्व बढ़ता जा रहा है। सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य की शक्ति का विकास भी समाज के मूल्य प्रतिमान तथा आदर्शों की प्राप्ति हो सकती है।
सफल अध्यापक को कुशल नेता होना आवश्यक है। उनका नेतृत्व विधायक है। जीवन को निर्दिष्ट दिशा में ले जाने का श्रेय अध्यापक को ही है। इसलिये अध्यापक को कक्षा समूह में दृढ़ता उत्पन्न करनी चाहिये ।
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