बाल मनोविज्ञान / CHILD PSYCHOLOGY

बाल-अपराध से आप क्या समझते हो ? इसके कारण एंव प्रकार

बाल-अपराध से आप क्या समझते हो ? इसके कारण एंव प्रकार
बाल-अपराध से आप क्या समझते हो ? इसके कारण एंव प्रकार

बाल-अपराध से आप क्या समझते हो? बाल-अपराध के क्या कारण हैं ? बाल-अपराध की रोकथाम आप किस प्रकार करेंगे ?

बाल-अपराध

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार कोई भी जन्म से अपराधी नहीं होता वरन् जन्म के पश्चात् ही अपराधी प्रवृत्ति का हो जाता है। जो व्यक्ति प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर चुके होते हैं और वह सामाजिक नियमों या कानूनों के विरुद्ध कार्य करते हैं। उसे अपराध माना जाता है और यदि इस कार्य को अपरिपक्व बालक के द्वारा किया जाता है तो उसे बाल-अपराध (Juvenile Delinquency) की संज्ञा दी जाती है।

1. बर्ट-“उस बालक को अपराधी कहते हैं, जिसकी समाज विरोधी प्रवृत्तियाँ इतनी गम्भीर हो जाती हैं कि उसके प्रति सरकारी कार्यवाही आवश्यक हो जाती है।”

2. हीली- “वह बालक जो समाज द्वारा स्वीकृत आचरण का पालन नहीं करता, अपराधी कहलाता है।” जो कार्य जानबूझकर नहीं किया गया है उसे अपराधी नहीं कहते। केवल वही कार्य जो कानून द्वारा निषेध माने गए हैं, यदि वे किए जाते हैं तो अपराध माने जाते हैं

2. न्यूमेयर के अनुसार- “बाल अपराध का अर्थ समाज विरोधी व्यवहार का कोई प्रकार है, जो कि व्यक्तिगत तथा सामाजिक विघटन उत्पन्न करता है। “

बाल अपराध के प्रकार

  1. माता-पिता के नियन्त्रण को न मानना।
  2. धूम्रपान करना।
  3. लड़ना-झगड़ना।
  4. चोरी करना।
  5. झूठ बोलना।
  6. गन्दी तथा भद्दी भाषा का प्रयोग करना।
  7. बुरी संगति में रहना।
  8. उद्देश्यविहीन घूमना।
  9. ऐसे कार्य करना जिससे दूसरों को पीड़ा पहुँचने का भय हो ।
  10. यौन अपराध
  11. कानून को भंग करना।
  12. बिना पूछे किसी के घर या उसकी गाड़ी में प्रवेश करना ।
  13. पलायनशीलता।
  14. स्कूल की वस्तुओं को बर्बाद करना।
  15. हमेशा झूठ बोलना ।
  16. दीवारों पर गन्दे शब्दों का प्रयोग करना।

बाल अपराध के कारण

बाल अपराध को पाँच भागों में बाँटा जा सकता है-

  • वंशानुक्रम कारण
  • शारीरिक कारण
  • सामाजिक कारण
  • आर्थिक कारण
  • मनोवैज्ञानिक कारण
I. वंशानुक्रम कारण

सीजर लोम्बोसो (Cesare Lomberoso) गैलोफैलो फैरी इत्यादि मनोवैज्ञानिक का मत है कि अपराध का कारण वंशानुक्रम है, क्योंकि जो बच्चे अपराधी होते हैं, उनके कुछ विशेष प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक लक्षण होते हैं।

II. शारीरिक कारण

शारीरिक कारणों में शारीरिक दोष तथा हीन स्वास्थ्य अपराधी प्रवृत्ति को प्रभावित करते हैं। ऐसे बच्चों के साथ समाज के अन्य व्यक्ति का व्यवहार ठीक नहीं होता। ऐसे बच्चों को चिढ़ाना, हीन निगाहों से देखना जिससे उसे समाज के प्रति घृणा हो जाती है और वह बदले की भावना से समाज लोगों के प्रति अपराध करना आरम्भ कर देते हैं।

III. सामाजिक कारण

बाल-अपराध के सामाजिक कारणों को भी दो भागों में विभाजित किया गया है-

 (1) पारिवारिक कारण

1. टूटा परिवार- बालकों को अपराधी बनाने में टूटे परिवार का भी मुख्य हाथ होता है। जिस परिवार में पति-पत्नी के बीच आपस में अलगाव होता है, तलाक, मतभेद इत्यादि रहता है ऐसे परिवारों का संतुलन बिगड़ जाता है, जिसे एक साथ लेकर चलना कठिन होता है। इसे टूटा परिवार की संज्ञा दी गई है। ऐसे परिवारों के बच्चे तरह-तरह के अपराध करने लगते हैं।

हीली एवं बोनर-हीली एवं बोनर ने एक अध्ययन किया जिसमें कुल 4000 अपराधी बालक थे। सर्वेक्षण के दौरान यह पाया गया कि लगभग 2000 बालक टूटे परिवार के थे।

2. अपराधी भाई-बहनों का प्रभाव-यदि किसी परिवार में उसके भाई-बहन पहले से ही अपराधी प्रवृत्ति के होते हैं, गलत कार्य करते हैं तो उसका असर आगे के भाई-बहनों पर भी पड़ता है, उसी तरह से वह भी अपराधी प्रवृत्ति के होकर गलत कार्य करना शुरू कर देते हैं।

3. अशिक्षित माता-पिता-जिनके माता-पिता अशिक्षित होते हैं, वे अपने बालकों को ठीक तरह से निर्देशन नहीं कर पाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बच्चे गलत व्यवहार करना शुरू कर देते हैं।

4. अनैतिक परिवार किसी भी परिवार में यदि माता-पिता या उस परिवार के कोई भी सदस्य अनैतिक कार्य करते हैं तो उसके घर को अनैतिक परिवार कहा जाता है। इस परिवार के बच्चे धीरे-धीरे अनैतिक कार्य करना प्रारम्भ करते हैं। किशोर लड़के तथा किशोरी लड़कियाँ दोनों ही अपराधी प्रवृत्ति के हो जाते हैं।

5. माता-पिता द्वारा तिरस्कार बालकों पर माता-पिता के व्यवहार का अधिक प्रभाव पड़ता है। जब बालक को अपने माता-पिता द्वारा प्यार नहीं मिलता, बल्कि उसे उसके कार्य पर दण्ड दिया जाता है तो ऐसे समय उनमें विद्रोह की भावना जागृत हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप वह अपराधी प्रवृत्ति के हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त सौतेले माँ-बाप के प्यार से वंचित रह जाना, माता-पिता की मृत्यु हो जाना इत्यादि से भी बालक अपराधी बन जाता है।

6. दूषित नियन्त्रण – जिन घरों में बालकों पर अधिक कड़ा नियन्त्रण होता है या नियन्त्रण में कमी होती है, उन घरों के बालक बहुत जल्दी ही गलत कार्य करने लग जाते हैं अर्थात् अपराधी प्रवृत्ति की ओर उनका अधिक झुकाव हो जाता है।

(2) परिवार के कुछ बाहरी कारण के

1. बुरा पड़ोस-यदि शराबी, धोखेबाज, गुण्डे प्रवृत्ति वाले, चोर, बदमाश बालक के पड़ोस में रहते हैं तो उसका असर बालकों पर पड़ सकता है।

2. उचित मनोरंजन सम्बन्धी साधनों की कमी-जहाँ उचित मनोरंजन सम्बन्धी साधनों का अभाव रहता है उन स्थानों पर रहने वाले बालकों में बुरी आदतों जैसे जुआ खेलना, ताश खेलना, मारने-पीटने की आदत यौन अपराध की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।

3. होटल तथा क्लब – होटल तथा क्लब का वातावरण ठीक न होने से कभी-कभी बालक अधिक अपराधी प्रवृत्ति के हो जाते हैं, क्योंकि इन होटलों एवं क्लबों के मालिक भी इसमें जुड़ जाते हैं और बालकों से गन्दे कार्य कराने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जो समाज के विरुद्ध होता है।

4. विद्यालय की परिस्थितियाँ- यदि बालकों में विद्यालय के प्रति रुचि नहीं होती तो बौद्धिक कुशलता में कमी या पढ़ाई की पर्याप्त सुविधाएँ न होने पर उसमें अपराध की भावना जागृत होने लगती है। बालक विद्यालय से भागकर गलत संगति में पड़ जाता है। कभी-कभी विद्यालय के समीप शराब, सिनेमाघर, जुआ खेलने का अड्डा, नशीली दवाओं की दुकान इत्यादि होते हैं तो इससे बालक शीघ्र इसका सेवन करके अपराध करने लग जाते हैं।

5. बुरे प्रौढ़ व्यक्तियों का साथ- यदि प्रौढ़ व्यक्ति बुरे होते हैं तो कभी-कभी इनके सम्पर्क में आने के कारण बालक पर भी बुरा असर पड़ सकता है। इस अवस्था के व्यक्तियों के साथ रहने पर बच्चे आरामदायक व विलासिता की चीजों का प्रयोग करने के लिए तत्पर रहते हैं, इसकी पूर्ति न होने पर अपराध की ओर बढ़ जाते हैं।

6. विज्ञापन एवं प्रचार- आज के आधुनिक युग में अनेक प्रकार के फैशन सम्बन्धी वस्तुओं का विज्ञापन के जरिये प्रचार होता है, अर्द्धनग्न चित्र, अश्लील पोस्टर वाक्यों का प्रभाव पड़ता है, जिससे वह बुरे कार्य करना प्रारम्भ कर देते हैं।

7. संगी-साथी- बुरे साथी अर्थात् बुरी संगति मिलने से बालक अपराध की ओर बढ़ता है। बालकों के व्यवहार पर उसके साथियों का काफी प्रभाव पड़ता है। इसमें सामूहिक रूप से एकत्र होकर अनैतिक कार्य करने लगते हैं, जो समाज के विरुद्ध होता है।

8. सामाजिक प्रथाएँ– समाज में प्रचलित प्रथाएँ भी बाल-अपराध को जन्म देती हैं। विधवा, बाल-विवाह, पुनः विवाह निषेध, दहेज प्रथा, ऐसी प्रथाएँ प्रचलित हैं, जिससे अपराधी प्रवृत्तियाँ विकसित होती हैं।

IV.  बाल अपराध के आर्थिक कारण

1. निर्धनता- बाल अपराध को जन्म देने वाली अनेक परिस्थितियाँ हैं, जिससे बालक अपराध करने लग जाता है। उसमें प्रमुख कारण निर्धनता है। इससे वह अपनी आवश्यक आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाता। इसके फलस्वरूप चोरी करना, झूठ बोलना इत्यादि सीख लेता है।

2. बेकारी- बेकारी भी निर्धनता के समान ऐसा आर्थिक कारण है, जो बाल अपराध को जन्म देती है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है अर्थात् किशोरावस्था में प्रवेश करता है, वह चाहता है कि उसके पास स्वयं जीविकोपार्जन करने का साधन हो, लेकिन ऐसी स्थिति में वह बेकार रहता है तो वह अपनी भूख तथा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समाज विरोधी कार्य करना प्रारम्भ कर देता है; जैसे-जेब काटना, चोरी करना इत्यादि ।

इसके अतिरिक्त युवावस्था में पहुँचते-पहुँचते माँ-बाप बच्चे को ताने देने लगते हैं, कोसते हैं, जिससे परेशान होकर वह अपराधी प्रवृत्ति का हो जाता है।

3. अनुपयुक्त व्यवसाय – अनुपयुक्त व्यवसाय में होने से भी बालक अपराध की ओर अग्रसर हो जाता है, क्योंकि उसकी योग्यतानुसार व्यवसाय नहीं मिल पाता। अधिक परिश्रम करता है, जिससे वह चिड़चिड़ा स्वभाव का हो जाता है और समाज विरोधी कार्य करना शुरू कर देता है

V. बाल अपराध के मनोवैज्ञानिक कारण

1. मानसिक रोग- यदि बालक का मानसिक स्वास्थ्य ठीक न हो अथवा उनकी इच्छाओं का दमन किया जाय तो उनके मन में हीन भावना पनपने लगती है और वह जल्दी ही अपराधी हो जाते हैं। ऐसे बालक से घर में कोई प्रेम नहीं करता, सभी तिरस्कृत करते हैं तो वह हिंसात्मक कार्य प्रारम्भ कर देता है।

बाल अपराध की रोकथाम

बढ़ती हुई अपराधी प्रवृत्ति को रोकने के लिए मुख्य रूप से तीन साधनों का प्रयोग आवश्यक है-

  1. माता-पिता द्वारा उपचार,
  2. सरकार द्वारा उपचार,
  3. मानसिक चिकित्सकों द्वारा उपचार।
1. माता-पिता द्वारा उपचार

बेकर फाउन्डेशन वोस्टन ने माता-पिता द्वारा बालकों के सुधार को निम्न उद्देश्य दिए हैं-

  1.  अपने बच्चे के प्रति माता-पिता का व्यवहार कड़ा न हो।
  2.  बालकों की रुचि के अनुकूल सहानुभूति प्रदान करना ।
  3.  कोसना बन्द करना।
  4.  निर्दयता के व्यवहार में कमी करना।
  5.  बालकों के आचरण को अपने व्यवहार से अनुकूल में लाना ।
  6.  अच्छी तरह निरीक्षण करना।
  7.  आपसी गलतफहमियों को दूर करना।
  8.  उसके अनुकूल वातावरण बनाना।
  9.  बालक पर बुरा प्रभाव डालने वाले व्यक्तियों को अलग करना। 10. माता-पिता का पूर्ण उत्तरदायित्व निभाना इत्यादि।
2. सरकार द्वारा उपचार

1. किशोर न्यायालय- सर्वप्रथम 1899 ई० में किशोर न्यायालयों की स्थापना हुई। इसमें 13 वर्ष के अपराधियों का न्याय होता था, बाद में इसे बढ़ाकर 21 वर्ष की गई। इसके न्यायालय भारत में दिल्ली तथा मुम्बई में स्थापित हैं। इस न्यायालय में स्त्रियाँ एवं ऐसे न्यायाधीश होते हैं, जो मनोवैज्ञानिक ढंग से बच्चों को अपराध से रोकने का प्रयास करते हैं।

2. प्रोबेशन – 40 से 50 वर्ष पहले से इंग्लैण्ड तथा अमेरिका जैसे देशों में यह प्रभावी रूप से चली आ रही है। उत्तर प्रदेश में 1498 में फर्स्ट ऑफेन्डर्स प्रोवेशन एक्ट पास हुआ। 18 वर्ष से कम आयु के अपराधी को दण्ड न देकर प्रोबेशन ऑफिसर के पास भेजा जाता है, जो अपराधी को अपने संरक्षण में रखते हुए उनके माता-पिता के पास रखता है। इसमें वह अपराधी को पूर्ण रूप से सुधारने का प्रयास करता है।

3. सुधारगृह या सुधार विद्यालय- यह दो प्रकार के होते हैं-

  1. किशोर सुधारगृह,
  2. वयस्क सुधारगृह

इसमें तरह-तरह के उद्योग सिखाये जाते हैं। किशोर सुधारगृह में बालकों को तथा बड़ों को वयस्क सुधारगृह में रखकर कार्य सिखाया जाता है। यह गृह एक औद्योगिक स्कूल के नाम से जाना जाता है। इसमें नये-नये कार्य सिखाये जाते हैं। अपराध करना स्वयं छूट जाता है।

4. बोर्स्टल विद्यालय – 1902 में सर्वप्रथम रगेल्स ब्राइस ने इंग्लैण्ड में यह बोर्स्टल विद्यालय बोर्स्टल नामक स्थान में एक जेलखाना खोला, जो गैर-सरकारी था। इसका मुख्य उद्देश्य अपराधियों को सुधारना था। इसमें 16 से 21 वर्ष के अपराधी रखे जाते थे। इन विद्यालयों में अपराधी स्वयं अपराध करना छोड़ देता था। यदि फिर भी नहीं छूटता था तो ऐसे बालकों को बन्दीगृह भेजा जाता था।

इस समय बोर्स्टल विद्यालय चेन्नई, मैसूर, मुम्बई, मध्य प्रदेश में स्थापित हैं, जिसमें तेजी से अपराध को रोकने का प्रयास किया जा रहा है।

3. मानसिक चिकित्सकों द्वारा उपचार –

इसमें बालकों के मनो अभिनय, क्रीड़ा द्वारा शिक्षा देना, सामूहिक बालकों में एकत्र करके अपराध को रोकने का प्रयास करना, उनकी मनोवृत्ति की पूर्ण जाँच करना, व्यावसायिक चिकित्सा इत्यादि के आधार पर उपचार किया जाता है, जिससे खेल ड्रामा का अभिनय करके बच्चे अपने आपको समझने लगते हैं। धीरे-धीरे अपराध करना छूट जाता है। इस प्रकार उपरोक्त रुचिकर ढंग से शिक्षा देकर बाल-अपराध को रोकने का प्रयास किया जा सकता है।

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Anjali Yadav

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