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भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of Indian Act 1935)
सन् 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने भारत के संवैधानिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत में उत्तरदायी शासन की दिशा में यह अधिनियम अपना विशेष महत्व रखता है। प्रो. कूपलैण्ड के शब्दों में, “1935 ई. का अधिनियम रचनात्मक राजनीतिक विचार की एक महान् सफलता थी।”
पारित होने के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ (Responsible Conditions for the Passing of the Act)
ब्रिटिश सरकार द्वारा 1919 ई. में माण्टेग्यू चेम्सफोर्ड अधिनियम पारित किया गया था । ब्रिटिश सरकार का ऐसा मानना था कि इस अधिनियम के द्वारा भारतीयों को इतनी सुविधाएँ प्रदान कर दी गयी हैं कि भारतीय निकट भविष्य में किसी सुधार की माँग नहीं करेंगे। अंग्रेजी सरकार का ऐसा सोचना गलत साबित हुआ, क्योंकि 1919 ई. के अधिनियम से भारतीय सन्तुष्ट नहीं हुए तथा काँग्रेस ने इसके द्वारा किये गये सुधारों को ‘अपर्याप्त, असन्तोषजनक व निराशापूर्ण’ (Inadequate, unsatisfactory and disappointing) बताया। 1919 ई. के अधिनियम के द्वारा प्रान्तों मे द्वैध शासन प्रणाली स्थापित कर दी गयी थी। इस व्यवस्था का भी आगे चलकर तीव्र विरोध किया गया तथा भारत की स्थिति पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार को समय से पूर्व ही साइमन आयोग (Simon Commission) भारत भेजना पड़ा। साइमन आयोग भी जनता में बढ़ते हुए आक्रोश को शान्त करने में पूर्णतः असफल रहा। इस आयोग की रिपोर्ट का विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा विरोध किया गया क्योंकि इसके द्वारा भारतीयों की माँगों को अनदेखा कर दिया था। इस सन्दर्भ में सर एण्डूज का यह कथन सही है कि, “इससे असहयोग आन्दोलन से सम्पूर्ण देश में पैदा हुए परिवर्तन और जनता की अभिलाषाओं तथा आकांक्षाओं की पूर्ण उपेक्षा की।”
भारतवासियों द्वारा साइमन कमीशन का विरोध करने पर भारत सचिव लॉर्ड ब्रेकनहेड ने भारतीयों को ऐसा संविधान निर्मित करने की चुनौती दी जो सर्वमान्य हो । भारतीयों ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए इस कार्य के लिए 8 सदस्यों की एक समिति का गठन किया। इस समिति के अध्यक्ष पं. मोतीलाल नेहरू थे। इस समिति ने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की उसे ‘नेहरू रिपोर्ट’ (Nehru Report) कहा जाता है। इस रिपोर्ट का अधिकांश भारतीय नेताओं द्वारा स्वागत किया गया, किन्तु जिन्ना ने इससे असहमति व्यक्त की, परिणामतः इस रिपोर्ट की संस्तुतियों को कार्यान्वित नहीं किया जा सका। भारतीय संवैधानिक समस्या के समाधान के लिए तीन गोलमेज सम्मेलन (Round Table Conference) लन्दन में हुए, किन्तु भारतीय समस्या का निराकरण न हो सका। 1932 ई. में इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री मैक्डानल्ड ने ‘साम्प्रदायिक समझौता’ (Communal Award) की घोषणा की। इस समझौते के द्वारा केवल हिन्दुओं व मुसलमानों में ही मतभेद उत्पन्न करने का प्रयास ही नहीं किया गया वरन् विभिन्न सम्प्रदायों की एकता को भी समाप्त करने का प्रयास किया गया। गाँधीजी ने इसका घोर विरोध करते हुए इसके विरुद्ध आमरण अनशन किया। अन्ततः पूना समझौते (Poona Pact ) के द्वारा साम्प्रदायिक समझौते को निरस्त कर दिया गया।
लन्दन में हुए गोलमेज सम्मेलनों में भारत के भावी संविधान की रूपरेखा पर हुए विचार-विमर्श को इंग्लैण्ड की सरकार ने ‘श्वेत-पत्र’ के रूप में प्रकाशित किया। इस श्वेत पत्र को संसद के दोनों सदनों की एक सम्मिलित संयुक्त समिति के समक्ष प्रस्तुत किया गया। उस पर विचार-विमर्श के पश्चात् इस समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपोर्ट के आधार पर ही 1935 ई. का भारतीय अधिनियम पारित कराया गया।
सन् 1935 ई. के अधिनियम की विशेषताएँ (Salient Features of the Act of 1935)
सन् 1935 का भारतीय शासन अधिनियम सबसे विशाल, विस्तृत एवं जटिल दस्तावेज था। कुछ दृष्टिकोणों से यह अधिनियम अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इस अधिनियम से स्वतंत्र भारत के संविधान में अनेक बातों को ग्रहण किया गया है। उल्लेखनीय है कि इस अधिनियम को पूर्णरूप से कभी लागू नहीं किया जा सका।
1935 ई. के अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं—
(1) अखिल भारतीय संघ का प्रस्ताव – 1935 ई. के अधिनियम की सर्वप्रमुख विशेषता भारत में प्रथम बार संधात्मक शासन प्रणाली को लागू किया जाना था। सभी भारतीय प्रान्तों व राज्यों का एक संघ स्थापित करने का प्रस्ताव था। संघ के दोनों सदनों में राज्यों को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया था। संघीय शासन की बुनियादी आवश्यकताओं व संघीय न्यायालय की भी स्थापना की गयी थी, किन्तु संघ के निर्माण की प्रक्रिया को अत्यन्त जटिल बना दिया गया था। भारतीय संघ को बनाने के लिए दो प्रमुख शर्तें रखी गयीं थीं जिनका उद्देश्य भारतीय रियासतों को अधिक से अधिक संघ में शामिल करना था। ये शर्तें निम्नवत् थीं
(i) कम से कम इतने राज्य भारतीय संघ में सम्मिलित हों जिन्हें कौंसिल ऑफ स्टेट में कम से कम 52 प्रतिनिधि भेजने का अधिकार हो ।
(ii) इन रियासतों की जनसंख्या समस्त रियासतों की जनसंख्या की आधी से कम न हो।
इन शर्तों के कारण 1935 ई. के अधिनियम में वर्णित संघ की स्थापना कभी न हो सकी क्योंकि संघ बनाने के लिए आवश्यक संख्या में रियासतों ने इसके लिए स्वीकृति न दी।
(2) केन्द्र में द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना-1919 ई. के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन पद्धति की स्थापना की गयी थी जो कि पूर्णतया असफल रही थी। इसके बावजूद भी 1935 ई. के अधिनियम द्वारा केन्द्र में द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना की गयी जिससे अंग्रेजी सरकार की नीति स्पष्ट होती है कि वे भारतीयों को किसी भी प्रकार की शक्ति देना नहीं चाहते थे।
1935 ई. के अधिनियम द्वारा केन्द्र के विषय को दो भागों में बाँट दिया गया-संरक्षित (Reserved) तथा हस्तान्तरित (Transferred) विषय संरक्षित विषयों के अन्तर्गत प्रतिरक्षा, वैदेशिक सम्बन्ध, धार्मिक विषय तथा आदिवासी क्षेत्र थे। इन विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल कार्यपालिका (Executive) के सदस्यों की सहायता से करता था। कार्यपालिका के सदस्यों की संख्या 3 थी तथा इनको गवर्नर जनरल द्वारा ही मनोनीत किया जाता था। अतः गवर्नर जनरल जिस प्रकार से चाहता शासन कर सकता था।
हस्तान्तरित विषयों के अन्तर्गत शेष सभी विषय थे। मन्त्रिपरिषद के परामर्श से गवर्नर जनरल इन विषयों की प्रशासनिक व्यवस्था करता था। मन्त्रिपरिषद के मन्त्री व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी होते थे। गवर्नर-जनरल मन्त्रिपरिषद के निर्णय व सुझावों को मानने के लिए बाध्य न था। गवर्नर जनरल को अपार शक्तियाँ प्रदान की गयी थीं, अतः वास्तविक शासन गर्वनर जनरल के हाथों में ही केन्द्रित था।
(3) शासन के विषयों की सूचना-1935 ई. के अधिनियम के द्वारा शासन की तीन सूचियों की प्रथा अपनायी गयी। केन्द्रीय सूची में सम्पूर्ण देश से सम्बन्ध रखने वाले विषय थे, जिनकी संख्या 59 थी। राज्यों के अधिकार क्षेत्र में 54 तथा समवर्ती सूची में 36 विषय थे। उक्त विषयों में मतभेद होने पर संघीय न्यायालय को न्याय करने का अधिकार नहीं दिया गया था। ऐसे मामलों का निर्णय भी गवर्नर जनरल के द्वारा ही किया जाना था।
(4) प्रान्तीय स्वायत्तता- 1935 ई. के अधिनियम की एक अन्य प्रमुख विशेषता प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान किया जाना था। इस अधिनियम के द्वारा 1919 ई. के अधिनियम द्वारा स्थापित प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त करके स्वायत्त शासन की स्थापना की गयी। तथा प्रान्तों को नवीन संवैधानिक अधिकार प्रदान किये गये। प्रशासन का कार्य गवर्नर मन्त्रिपरिषद् के परामर्श पर करता था। मन्त्रिपरिषद् विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी थी । गवर्नरों से यह अपेक्षा की गयी थी कि वे मन्त्रिपरिषद् के सुझावों के अनुसार ही कार्य करें। किन्तु प्रान्तीय स्वायत्तता के उपरान्त भी गवर्नरों को इतनी शक्तियाँ प्रदान कर दी गयीं कि स्वायत्तता नाममात्र की रह गयी। उदाहरणार्थ, इस नियम के अनुसार गवर्नरों को निम्नलिखित अधिकार भी दिये गये-
(i) गवर्नर मन्त्रियों को पदच्युत कर सकता था।
(ii) गवर्नर व्यक्तिगत निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र था तथा मन्त्रियों के परामर्श व इच्छा को नकार सकता था।
इसके अतिरिक्त, विशेष परिस्थितियों में गवर्नर-जनरल भी प्रान्तों के मामले में हस्तक्षेप कर सकता था। गवर्नर जनरल को निम्नलिखित, अधिकार थे
(i) गवर्नर-जनरल उत्तरदायी शासन का अन्त कर सकता था।
(ii) गवर्नर-जनरल प्रान्तों के गवर्नरों को आवश्यक निर्देश प्रदान कर सकता था व प्रदेशों पर शासन करने का सम्पूर्ण भार गवर्नर पर हो जाता था।
इस प्रकार इस अधिनियम के द्वारा प्रदत्त प्रान्तीय स्वायत्तता दिखावा मात्र ही थी।
(5) रक्षा कवचों की व्यवस्था- 1935 ई. के अधिनियम को पारित करने से पूर्व अंग्रेजी सरकार ने अपनी सुरक्षा हेतु अनेक रक्षा कवचों की व्यवस्था की। इसी कारण इस अधिनियम के अन्तर्गत इस प्रकार की व्यवस्था की घोषणा की गई जो कभी कार्यान्वित न हो सके। इतना ही नहीं इस बात का भी विशेष ध्यान रखा गया था कि यदि यह व्यवस्था लागू भी हो जाये तो भी गवर्नर-जनरल व गवर्नर को इतने अधिकार दिये गये थे कि अंग्रेजी सरकार का किसी प्रकार अहित न हो सके। भारतीय मन्त्री व ब्रिटिश संसद को भी इतने अधिकार दिये गये थे। कि भारतीय राष्ट्रीय भावनाओं का दमन किया जा सके।
(6) संघीय न्यायालय की स्थापना-1935 ई. के अधिनियम के द्वारा एक संघीय न्यायालय की भी स्थापना का प्रावधान किया गया था। इस न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश व दो अन्य न्यायाधीश भी नियुक्त किये जाने थे। इस न्यायालय में 6 न्यायाधीश तक नियुक्त किये जा सकते थे। इस न्यायालय के लिए न्यायाधीश की नियुक्ति इंग्लैण्ड के सम्राट के द्वारा की जाती थी। इस न्यायालय के निर्णय के विरोध में इंग्लैण्ड की प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी।
(7) केन्द्रीय विधानमण्डल- 1935 ई. के अधिनियम के अनुसार संघीय विधान मण्डल का स्वरूप दो सदन वाला था। उच्च सदन को राज्य परिषद् (Council of States) और निचले सदन को संघीय विधान सभा (Federal Assembly) कहते थे । राज्य परिषद् के सदस्यों को चुनने का अधिकार सीमित लोगों को ही था। संघीय विधान सभा में 375 सदस्य होते थे जिसमें से 125 भारतीय नरेशों के प्रतिनिधि और मुसलमानों के 80 सदस्य होते थे। संघीय विधान सभा के अधिकार सीमित थे। गवर्नर जनरल की अनुमति के बिना कोई वित्तीय विधेयक प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था। वह किसी भी विधेयक को अस्वीकार कर सकता था।
(8) भारतीय कौंसिल की समाप्ति- भारत में भारतीय कौंसिल के विरोध को देखते हुए भारतीय कौंसिल को समाप्त कर दिया गया। उसका स्थान भारत सचिव के सलाहकारों ने ले लिया। भारत सचिव की सलाहकार समिति में अधिकतम 6 सदस्य हो सकते थे। इनमें से आधे ऐसे होते थे जो कम से कम 10 वर्ष तक भारत सरकार की सेवा में रहे हों तथा उन्हें भारत से वापस लौटकर दो वर्ष से अधिक समय न हुआ हो। इस प्रकार भारत सचिव का नियन्त्रण उन क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया जिनमें से गवर्नर जनरल संघीय मंत्रिमण्डल की सलाह नहीं मानता था अथवा अपने विशेष अधिकारों का प्रयास करता था।
ब्रिटिश सरकार की यह धारणा थी कि इस अधिनियम के पारित होने के उपरान्त भारतीय समस्या का समाधान हो जायेगा क्योंकि उनके अनुसार इसमें भारतीयों को अनेक सुविधाएँ प्रदान की गयी थीं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि यह अधिनियम 1919 ई. के अधिनियम की अपेक्षाकृत श्रेष्ठ था।
भारत सरकार अधिनियम 1935 के गुण (Merits of the Act)
इस अधिनियम के कुछ प्रमुख गुण निम्नलिखित थे-
(1) प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति- चुनावों में प्रत्यक्ष पद्धति लागू करने के लिए भारतीय लम्बे समय से संघर्ष कर रहे थे। इस अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति लागू की गयी।
(2) प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली समाप्त-1919 ई. के अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना की गयी थी। भारतीयों ने इसके दुष्परिणामों के कारण इसका घोर विरोध किया। 1935 ई. के अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में विद्यमान इस प्रणाली को समाप्त कर दिया गया।
(3) विधान सभाओं के सदस्यों में वृद्धि-1935 ई. के अधिनियम के द्वारा विधान सभाओं के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी जिससे भारतीयों को अत्यधिक लाभ हुआ। अब अधिक संख्या में भारतीय विधान सभाओं के सदस्य बन सकते थे। इस अधिनियम के परिणामस्वरूप ही प्रथम बार भारतीयों को संयुक्त उत्तरदायित्व के रूप में मंत्रिमण्डल बनाने का अवसर प्राप्त हुआ।
(4) मतदाताओं की संख्या में वृद्धि – 1935 ई. के अधिनियम के द्वारा मतदाताओं के लिए आवश्यक अर्हताओं में कमी कर दी गयी। अतः चुनाव के समय मतदाताओं (voters) की संख्या में वृद्धि हुई।
1935 ई. के अधिनियम में गुणों की अपेक्षा दोष अधिक थे। भारतीयों को प्रत्यक्ष रूप से जो कुछ भी प्रदान किया गया था वह गवर्नर-जनरल व गवर्नरों को अत्यधिक शक्तियाँ प्रदान करके अप्रत्यक्ष रूप से छीन लिया गया। भारतीयों की पूर्ण स्वतंत्रता की माँग को स्वीकार करना तो दूर औपनिवेशिक स्वराज्य (Colonial Self Government) भी प्रदान नहीं किया गया था। संघीय विधान सभा में प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति भी लागू नहीं की गयी। इसी कारण इंग्लैण्ड मजदूर दल के नेता एटली (Atlee) ने कहा था कि इस अधिनियम से संघीय स्तर पर रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी तत्वों को इतनी अधिक प्रधानता दी गयी है कि किसी भी प्रकार का प्रजातान्त्रिक विकास सम्भव नहीं है।” भारतीय सिविल सेवा (I.C.S.) पर भी भारतीय सचिव का ही नियन्त्रण विद्यमान रहा।
भारत सरकार अधिनियम 1935 के दोष (Demerits of the Act)
1935 ई. के अधिनियम में प्रमुख रूप से निम्नलिखित दोष थे-
(1) भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान नहीं किया गया- इस अधिनियम के द्वारा भारत की स्थिति पर कोई प्रकाश नहीं डाला गया क्योंकि इस अधिनिमय की कोई प्रस्तावना (Preamble) नहीं थी। यदि प्रस्तावना होती तो सम्भवतः भारत की औपनिवेशिक स्थिति पर प्रकाश डाला जाता जिसके लिए भारतीय लम्बे समय से संघर्ष कर रहे थे। अतः स्वराज्य मिलना तो दूर औपनिवेशिक स्वराज्य भी भारतीयों को प्रदान नहीं किया गया तथा इंग्लैण्ड की संसद की सम्प्रभुता को कायम रखा गया।
(2) केन्द्र में द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना-1919 ई. के अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना की गयी थी जो कि पूर्णतया असफल रही तथा भारतीयों द्वारा उसका विरोध किया गया। इसके पश्चात् 1935 ई. के अधिनियम के द्वारा इस व्यवस्था को केन्द्र में लागू किया गया। अतः इससे स्पष्ट हो गया कि अँग्रेज भारतीयों को किसी प्रकार की सुविधा नहीं देना चाहते थे।
(3) साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व पद्धति का लागू किया जाना— 1919 ई. के अधिनियम के द्वारा साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति को लागू किया गया। भारतीय साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति को समाप्त किये जाने की माँग कर रहे थे क्योंकि इससे राष्ट्रवादी भावनाएँ आहत होती थीं। अंग्रेज अधिकारी ‘विभाजन करो व शासन करो’ (Divide and Rule) नीति का पालन कर रहे थे, अतः उन्होंने इसे समाप्त न किया। इसी कारण फजलुल हक ने इस अधिनियम की आलोचना करते हुए कहा, “यह (1935 ई. का अधिनियम) न हिन्दू राज था न मुसलमानी राज, यह केवल अंग्रेजी राज था।”
(4) देशी रियासतों को महत्व दिया गया- इस अधिनियम के द्वारा देशी राज्यों को विशेष महत्व दिया गया। उनको व्यवस्थापिका सभा में अधिक स्थान देकर उनके महत्व में वृद्धि की गई। रियासतों के प्रतिनिधि भी राजाओं के द्वारा मनोनीत किये जाते थे।
(5) अंग्रेजी सरकार का नियन्त्रण स्थापित होना- इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल व गवर्नरों के अधिकारों में वृद्धि की गयी थी। इस प्रकार भारतीय प्रशासन पर इंग्लैण्ड का पूर्ण नियन्त्रण था। सरकार के समस्त उच्च पदों पर भी अंग्रेजी अधिकारी ही नियुक्त थे। थे ये अधिकारी भारतीय सचिव के प्रति उत्तरदायी थे, अतः मनमाने तरीके से कार्य करते थे।
(6) जनतांत्रिक शासन पद्धति की उपेक्षा की गई— 1935 ई. के अधिनियम के द्वारा जनतान्त्रिक शक्तियों की पूर्णरूपेण उपेक्षा की गयी। विश्व के प्रत्येक संघ में निचले सदन में सदस्य जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं, किन्तु इस अधिनियम द्वारा निचले सदन में अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति अपनायी गयी थी। मताधिकार भी सीमित था तथा मत देने के लिए योग्यता का आधार सम्पत्ति को रखा गया था। इसके अतिरिक्त, उच्च सदन को निचले सदन की अपेक्षा कहीं अधिक अधिकार दिये गये थे, जो सर्वथा जनतान्त्रिक सिद्धान्तों के विरोधी थे।
(7) संघीय न्यायालय को अल्प अधिकार दिये गये- इस अधिनियम के द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गयी थी, किन्तु इसके अधिकार सीमित थे। प्रत्येक संघीय शासन व्यवस्था में संघीय न्यायालय न्याय करने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। इस अधिनियम द्वारा स्थापित व्यवस्था में न्याय की सर्वोच्च संस्था संघीय न्यायालय न होकर इंग्लैण्ड की संसद थी। संघीय न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध इंग्लैण्ड की प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी।
(8) प्रान्तीय प्रशासन में दोष-1935 ई. के अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में स्वायत्त शासन की व्यवस्था की गयी थी किन्तु गवर्नरों को अत्यधिक अधिकार दिये जाने के कारण यह महत्वहीन थी। इसी कारण राजगोपालाचारी ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है, “क्या संविधान द्वैध शासन प्रणाली की अपेक्षा अधिक खराब है। “
इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि 1935 ई. के अधिनियम में गुण कम दोष अधिक थे। इसी कारण जिन्ना ने इस अधिनियम की कटु आलोचना की तथा कहा, “1935 ई. का अधिनियम पूर्णतया सड़ा हुआ, मौलिक रूप से खराब तथा पूर्णतया अस्वीकारणीय था।”
इंग्लैण्ड के मजदूर दल (Labour Party) के नेता एटली तक ने इस अधिनियम की आलोचना की तथा कहा कि इसके द्वारा जिन रक्षा कवचों की हत्या की गयी है यह कानून को लोचपूर्णता प्रदान नहीं करती और न ही यह कानून भारत के किसी वर्ग को सन्तोष प्रदान कर सका। इस अधिनियम का विरोध करते हुए उसने कहा कि भारतीयों को भावी सरकार का दायित्व प्रदान करना चाहिए। इस विधेयक में न तो ऐसा किया गया है और न ऐसा करने का उद्देश्य प्रस्तुत किया गया है। एटली के शब्दों में, “इस अधिनियम का आधारभूत सिद्धान्त अविश्वास है।” प्रो. लॉस्की ने भी इस अधिनियम की आलोचना करत हुए लिखा है, “यह संविधान आधुनिक युग के निकृष्ट संविधानों की निकृष्टतम विशेषताओं से युक्त था।” उपरोक्त दोषों के कारण ही इस अधिनियम का भारतीयों द्वारा विरोध किया गया तथा इसे पूर्णतया लागू न किया जा सका।
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