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दलों का महत्व (Importance of Parties)
उपयोगिता दलों की आवश्यकता का आधार है। उनका महत्व निम्नवत् है—
(1) लोकतन्त्र की सफलता- राजनीतिक दल लोकतन्त्र की सफलता की आवश्यक शर्त है। संसदीय और अध्यक्षात्मक शासन-प्रणालियों के लिये दल आवश्यक हैं। संसदीय लोकतन्त्र के लिये दो दलों का विशेष महत्व है। दलीय व्यवस्था के फलस्वरूप कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका में सरलता से सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं। संसदीय व्यवस्था में विधान-मण्डल में जिस दल का बहुमत होता है उसी दल में से कार्यपालिका के सदस्यों का चयन होता है, विरोधी दल वैकल्पिक शासन के रूप में पदारूढ़ होने के लिये सदैव तैयार है रहता है।
(2) जनमत के निर्माण में योग- समाज के विभिन्न एवं परस्पर विरोधी विचारों को दलों द्वारा व्यवस्थित किया जाता है। वे बिखरे एवं अस्पष्ट विचारों को स्पष्ट एवं व्यवस्थित करते हैं तथा जनमत के निर्माण में योग देते हैं। सामाजिक जीवन की विभिन्न उलझी हुई समस्याओं में से प्रमुख समस्याओं को वे जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
(3) विधि-निर्माण में सरलता- दलीय पद्धति के कारण विधि-निर्माण में सरलता होती है। विधि-निर्माण का दल नेतृत्व करते हैं एवं उनमें एकरूपता स्थापित करते हैं।
(4) राजनीतिक शिक्षा- दल जनता को राजनीतिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। विभिन्न राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध में प्रत्येक दल द्वारा पक्ष एवं विपक्ष में विचार प्रस्तुत किये जाते हैं। पत्र-पत्रिकाओं में सामयिक प्रश्नों पर लेख लिखे जाते हैं। अपने कार्यक्रमों को प्रस्तुत किया जाता है तथा निर्वाचनों में जनसभायें आयोजित की जाती हैं। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप जनता को वास्तविकता को समझने में सहायता होती है। लेविल के अनुसार दल “विचारों के दलाल हैं।” आशीर्वादम के शब्दों में दल, “लोकतन्त्र के आधार ‘सामान्य इच्छा’ के निर्माण एवं विलास को सम्भव बनाते हैं।” फलस्वरूप जनता सदैव सजग एवं जागरूक रहती है।
(5) निर्वाचनों में सहायता- दलों के कारण मतदाताओं को मतदान में बड़ी सुविधा रहती हैं। निर्वाचनों में दलों द्वारा अपने प्रत्याशी खड़े किये जाते हैं। मतदाताओं को प्रत्याशियों के व्यक्तिगत विचारों को जानने की आवश्यकता नहीं होती। जनता दल को मत देती है। दल सामान्य व्यक्ति की ओर से सार्वजनिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श करते हैं।
(6) दलीय अनुशासन- दल विधान-मण्डल के सदस्यों की स्वार्थी इच्छाओं और भ्रष्टाचार पर प्रतिबन्ध का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त दलीय सदस्यों में हीन भावना एवं सहयोगपूर्वक कार्य करने की प्रवृत्ति का सूत्रपात होता है।
(7) निरंकुशता पर प्रतिबन्ध- दलीय व्यवस्था लोकतान्त्रिक शासन की निरंकुशता पर प्रतिबन्ध है। इसके फलस्वरूप शासन में सभी क्षेत्रों एवं हितों का प्रतिनिधित्व सम्भव होता है। दल शासन को अनुत्तरदायी होने से रोकते हैं तथा उसकी जटिलता को कम करते हैं।
भारत में दलीय प्रणाली की विशेषताएँ (Features of the Political System in India)
भारतीय दलीय प्रणाली की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं-
(1) बहुदलीय पद्धति (Multi Party System)
भारत में फ्रांस के समान बहुदलीय पद्धति है। संसद में लगभग एक दर्जन तथा विधान-मण्डलों में एक दर्जन से भी अधिक राजनीतिक दल हैं। बहुदलीय पद्धति संसदात्मक सरकार के लिये हानिकारक है। संसदात्मक शासन में ब्रिटेन की भाँति एक शक्तिशाली विरोधी दल की परम आवश्यकता होती है परन्तु भारत में इसका पूर्णतया अभाव रहा क्योंकि देश में अनेक राजनीतिक दल थे और उनके थोड़े-थोड़े सदस्य ही संसद तथा विधान-मण्डलों में निर्वाचित होते थे। इसी कारण हमारे विरोधी दल स्वस्थ परम्परा स्थापित करने में पूर्णतया असफल रहे। सत्तारूढ़ दल की त्रुटियों की विधिपूर्वक आलोचना करने के स्थान पर वे स्वयं ही आपस में झगड़ते रहे। लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष मावलंकर ने भी कहा था, “जब तक राजनीतिक दलों की संख्या घटकर ऐसे दो सन्तुलित महान् दलों तक नहीं होती कि उसमें एक सत्तारूढ़ हो और दूसरा विरोधी दल, तब तक प्रजातन्त्र का ठीक दिशा में विकास न होगा।”
छठी लोकसभा के चुनाव से भारत की बहुदलीय पद्धति में बहुत परिवर्तन आया और सौभाग्य से दलों की संख्या कम हुई। इस चुनाव के अवसर पर चार दलों-संगठन काँग्रेस, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी तथा भारतीय लोकदल का एक संयुक्त दल बना, जिसे ‘जनता पार्टी’ नाम दिया गया। इस दल को लोकसभा के चुनावों में भारी बहुमत प्राप्त हुआ तथा केन्द्र में जनता पार्टी सत्तारूढ़ हुई और काँग्रेस ने विरोधी दल का स्थान ग्रहण किया। अतः अब भारत में एक सुदृढ़ विरोधी दल की स्थापना हुई और देश द्वि-दलीय प्रणाली की ओर अग्रसर हुआ । परन्तु सन् 1996 में केन्द्र में बनी सरकार में 13 पार्टियाँ शामिल हुईं क्योंकि बहुदल पद्धति के कारण किसी भी दल को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ। यह सरकार अत्यन्त अस्थिर रही। इसी कारण तीन बार प्रधानमन्त्री बदले गये और अन्ततः दिसम्बर 1997 में 11वीं लोकसभा भी भंग हो गयीं। 12वीं तथा 13वीं लोकसभा में भी यही स्थिति रही। 13वीं लोकसभा में तो 24 दलों की सरकार थी। अभाव
(2) संगठित विरोधी दल का अस्तित्व (Existance of Organised Opposition Party)
प्रजातन्त्र को सफल बनाने तथा सरकार की निरंकुशता पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये सत्तारूढ़ दल के समान ही संगठित विरोधी दल होना चाहिये। ऐसा होने पर ही सत्तारूढ़ दल अपने कर्तव्यों का पालन ठीक प्रकार से करता है, क्योंकि उसे भय बना रहता है कि ऐसा न है होने पर विरोधी दल उसका स्थान ग्रहण कर लेगा। छठी लोकसभा के चुनावों से पूर्व भारत में संगठित विरोधी दल का नितान्त अभाव था किन्तु इस चुनाव ने इस अभाव की पूर्ति कर दी और संगठित विरोधी दल को जन्म दिया।
(3) एक दल की प्रधानता (The Dominance of a Single Party)
चतुर्थ आम चुनाव के पूर्व भारतीय दलीय पद्धति की महत्वपूर्ण विशेषता थी— देश में एक दल की प्रधानता । केन्द्र तथा समस्त राज्यों में काँग्रेस दल का शासन था। केवल केरल तथा उड़ीसा में अन्य दलों ने मन्त्रिमण्डल बनाया था; लेकिन वे मन्त्रिमण्डल अधिक दिनों तक टिक नहीं सके। काँग्रेस की प्रधानता का कारण यह था कि इसने प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व किया तथा स्वतन्त्रता हासिल की। यही एकमात्र संगठन था जिसका पूर्ण प्रभाव जनता पर था तथा जिसने देश की आजादी के लिए त्याग और बलिदान किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद यही दल सत्तारूढ़ हुआ। प्रारम्भ में तीन चुनावों में इसकी विजय हुई। केवल चतुर्थ आम चुनाव में इसे कुछ राज्यों में हार खानी पड़ी। पण्डित नेहरू के व्यक्तित्व ने दल का प्रभाव और भी अधिक बढ़ा दिया। दल ने समाजवादी तथा प्रगतिशील नीतियों को अपनाकर विरोधियों का मुँह बन्द कर दिया। दूसरी और विरोधी दल संगठन, नेतृत्व तथा स्पष्ट नीति और कार्यक्रम के ” अभाव में पनप नहीं सके। जनता में वे लोकप्रिय न हो सके। परिणामतः स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी देश में काँग्रेस दल की ही प्रधानता रही।
किन्तु सन् 1977 में जब केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो एक-दलीय वर्चस्व को झटका लगा। तब से अब तक निरन्तर परिवर्तन आता रहा है। आज काँग्रेस की स्थिति पूर्व जैसी नहीं रही है, अब अनेक दल केन्द्र की सत्ता संभालने की होड़ में हैं।
(4) निर्दलीय सदस्य (Independent Members)
स्वतन्त्र या निर्दलीय सदस्य किसी दल के सदस्य नहीं होते तथा स्वतन्त्र रूप से चुनाव लड़ते हैं। ऐसे सदस्यों का अस्तित्व लोकतन्त्रीय पद्धति के लिए घातक है। स्वतन्त्र सदस्यों की कोई निश्चित नीति नहीं रहती है। वे कभी किसी दल में सम्मिलित हो जाते हैं तो कभी किसी दल में। राजनीतिक नैतिकता की भी इनमें कमी रहती है। कई स्वतन्त्र सदस्यों ने अवसरवादिता का पूर्ण परिचय दिया है। कई राज्यों में मन्त्रि-मण्डल को बनाने तथा बिगाड़ने में इनका हाथ रहा है। थोड़े शब्दों में, स्वतन्त्र सदस्य व्यवस्थापिका को अनुत्तरदायी बनाने में सहयोग देते हैं तथा लोकतन्त्र के सुगम संचालन में बाधक सिद्ध होते हैं। निर्दलीय सदस्यों की विजय का कारण उनका व्यक्तिगत प्रभाव, दलों के प्रति असन्तुष्टि तथा राजनीतिक चेतना का अभाव है।
(5) नीतियों तथा कार्यक्रमों की अस्पष्टता तथा अनिश्चितता (Vague and Indefinite Policies and Progrmmes )
प्रायः सभी भारतीय राजनीतिक दलों की नीतियाँ तथा कार्यक्रम अस्पष्ट एवं अनिश्चित हैं। कांग्रेस दल की नीति सदा परिवर्तनशील रही है। प्रायः प्रत्येक वर्ष अपने अधिवेशनों में इसके बारे में परिवर्तन देखा गया है। अन्त में इसने समाजवाद को अपना लक्ष्य बनाया है लेकिन समाजवाद का क्या ढाँचा होगा तथा उसे किस प्रकार प्राप्त किया जायेगा, इस सम्बन्ध में उसके कार्यक्रम स्पष्ट नहीं हैं तथा सदा परिवर्तनशील रहे हैं। अन्य दलों की नीतियाँ तथा कार्यक्रम तो और अधिक अस्पष्ट हैं। अधिकांश दल काँग्रेस विरोधी नीति पर टिके हुए हैं। यहाँ तक कि काँग्रेस के विरुद्ध सम्प्रदायवादी तत्वों से गठबन्धन करने में भी नहीं हिचकते। वामपंथी दलों (Leftist Parties) के पास रचनात्मक कार्यक्रम (Constructive Programmes) नहीं के बराबर हैं। वे विध्वंसकारी तथा काँग्रेस-विरोध कार्यक्रमों का सहारा लेकर जनता की भावना को उभारना तथा उनका समर्थन प्राप्त करना चाहते हैं। निष्कर्षतः ब्रिटिश, अमेरिका तथा रूसी दलों के सदृश भारतीय दलों के संगठन का आधार स्पष्ट, रचनात्मक नीतियाँ तथा कार्यक्रम नहीं हैं।
आज सरकार बनाने के लिए कुर्सियों की दौड़ में लगातार सिद्धान्तहीन गठबन्धनों या समझौतों की होड़ लगी हुई है। चुनाव एक-दूसरे के खिलाफ लड़ा जाता है किन्तु अवसर मिलने पर साथ सरकार कायम कर ली जाती है। सामान्यतया आज राजनीतिक दलों की किसी भी नीति या कार्यप्रणाली में स्थिरता का अभाव है।
(6) संयुक्त मन्त्रिमण्डल (Coalition Ministry)
चौथे आम चुनाव (1967) ने भारत में अनेक राजनीतिक वृत्तियों को जन्म दिया जिनमें संयुक्त मन्त्रिमण्डलों की स्थापना प्रमुख है। कई राज्यों में से किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो सका। अतः पश्चिमी बंगाल, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा केरल में कई दलों ने मिली-जुली सरकार बनायी लेकिन ये मन्त्रिमण्डल सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सके। कई राज्यों में मध्यावधि आम चुनाव हुआ फिर भी किसी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हुआ पुनः संयुक्त मन्त्रिमण्डल ही बनाये गये।
सन् 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसमें अनेक दलों का विलीनीकरण हुआ था। पुनः 1989, 1994, 1996, 1999 में इसी प्रकार के संयुक्त मंत्रिमण्डल गठित होते रहे हैं व भविष्य में भी इसी की सम्भावना बनी हुई है।
भारत में राजनीतिक दलों की समस्याएँ (Problems of the Political Parties in India)
भारत में राजनीतिक दलों के सामने बहुत-सी समस्याएँ हैं। उनमें से कुछ मुख्य समस्याएँ निम्न हैं—
(1) संगठनात्मक समस्याएँ (Organisational Problems )
देश में सामाजिक व्यवस्था की निहित रूपरेखा दल व्यवस्था की समस्याओं को बहुत अधिक बढ़ा देती है। भारत एक परम्परागत स्तरित सामाजिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। धर्म, जाति तथा अन्य कई सांस्कृतिक कारण लोगों के दिमागों पर आधिपत्य जमाये हुए हैं तथा पूर्णतः विशुद्ध सैद्धान्तिक राजनीति इस सन्दर्भ में कुछ कठिन है। पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष संगठन को चलाना और भी अधिक में कठिन है। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की एक व्यापक विशेषता गुटबन्दी है जो दलों के प्रभावशाली संगठन के मार्ग में एक मुख्य बाधा है।
(2) दल-बदल (Defection)
भारत में दल-बदल एक सामान्य सी बात है। दल-बदल देश में राजनीतिक स्थिरता को क्षति पहुँचाने के साथ-साथ प्रशासन तथा संसदीय संस्थाओं में लोगों के विश्वास पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
(3) वित्तीय साधन (Financial Means)
भारत में राजनीतिक दल सामान्यतः अपना वित्तीय लेखा-जोखा, यहाँ तक कि सदस्य तथा कोष संचालन के साधनों से प्राप्त धन का ब्यौरा भी नहीं छापते। व्यावहारिक रूप से सभी राजनीतिक दलों की आय का सामान्य स्रोत संसद तथा राज्य विधान सभाओं के सदस्यों पर लगाया गया चन्दा है।
(4) नेतृत्व का संकट (Crisis of Leadership)
राजनीतिक दलों में नेतृत्व का संकट पाया जाता है। प्रखर और निर्मल नेतृत्व का अभाव है। राजनीतिक को हमारे नेताओं ने एक गन्दा खेल बना दिया है। उनमें राजनीतिक अवसरवादिता (Political opportunism) देखने को मिलती है।
(5) काले धन का प्रभाव (Effect of Black Money)
चुनाव बहुत खर्चीले हो जाने से वास्तविक जन-सेवी चुनाव मैदान में उतरने से कतराते हैं। दलों को पूँजीपतियों और कम्पनियों से आर्थिक सहायता मिलती रही है। जो लोग धन देते हैं, वे बदले में अनुचित लाभ उठाना चाहते हैं। भूतपूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने यह कहा था कि यह एक ऐसा कटु सत्य है जो हमारी राजनीतिक व्यवस्था के खोखलेपन को प्रकट करता है।
(6) जातिवाद और साम्प्रदायिकता (Castism and Communalism)
जातिवाद और साम्प्रदायिकता जैसे जीवन मूल्य हमें विरासत में मिले हैं, जिनके कारण हर दल को इन तत्वों के साथ समझौता करना पड़ता है। योग्य उम्मीदवारों की अपेक्षा उन्हें ऐसे लोगों को चुनावी टिकट देने पड़ते हैं जिनकी जाति वालों का उस चुनाव क्षेत्र में बाहुल्य हो।
(7) भारत में ‘सह अस्तित्व की संस्कृति का अभाव है (Lack of Culture of Co-existance in India)
विधान-मण्डल में जब दलों की संख्या अधिक हो जाती है तो कभी-कभी मिले-जुले मन्त्रि-मण्डल का गठन करना पड़ता है। मिली-जुली सरकारें तभी ठीक प्रकार चल सकती हैं जबकि विभिन्न घटकों के बीच परस्पर विश्वास हो। भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि हमारे नेता नीतियों के कारण नहीं व्यक्तिगत आधारों पर आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं।
दलीय व्यवस्था के दोष (Faults of Party System)
दलीय व्यवस्था की तीव्र आलोचना की गयी है जो निम्नवत् है-
(1) व्यक्तित्व का हनन
दलों के फलस्वरूप उनके सदस्यों का व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है। गिलाक्राइस्ट के अनुसार, वे देश के राजनीतिक जीवन को यन्त्रवत् एवं कृत्रिम बना देते हैं। विरोधी दल द्वारा सदैव ही सत्तारूढ़ दल की आलोचना की जाती है। द्वि-दलीय पद्धति में यह दोष अत्यधिक मुखर हो जाता है। कठोर दलीय अनुशासन एवं सुदृढ़ संगठन के कारण सदस्यों के व्यक्तित्व का हनन होता है। दलीय शासन के लिये दलीय एकता अनिवार्य हैं अतः विधान-मण्डलों में स्वतन्त्र सदस्यों के लिये कोई स्थान नहीं होता है। दलीय शासन में अयोग्य व्यक्तियों का अधिकार हो जाता है।
(2) दलगत संकीर्णता का वर्चस्व
दलगत स्वार्थ और हित प्रमुख होते हैं तथा व्यक्ति दलीय दृष्टिकोण से सोचना प्रारम्भ कर देता है। क्षेत्रीय एवं साम्प्रदायिक हितों के समक्ष राष्ट्रीय हित गौण हो जाते हैं। राष्ट्रीय शक्ति के मूल्य पर दलीय भक्ति विकसित हो जाती है।
(3) साम्प्रदायिकता व वैमनस्य का उदय
राजनीतिक दल हर प्रकार से सत्तारूढ़ रहने क. प्रयत्न करते हैं फलस्वरूप दलीय नेताओं द्वारा कुत्सित भावनाओं को उभारने का प्रयत्न किया जाता है। ईमानदारी समाप्त हो जाती है तथा साम्प्रदायिक एवं वर्गगत वैमनस्य उभारे जाते हैं।
(4) लोकप्रियता हेतु अनुचित कदमों का भी प्रयोग
जन-समर्थन प्राप्त करने के लिये दलों के द्वारा जनता की खुशामद की जाती है और मत प्राप्त हेतु विभिन्न लोकप्रिय विधियों का निर्माण किया जाता है। गिलक्राइस्ट के अनुसार, ऐसी विधियाँ सामान्यतः अवैधानिक एवं बुरी होती हैं।
(5) परस्पर विरोधी पक्षों का उदय
जनता के मत प्राप्त करने के लिये दलों द्वारा जनता को हर प्रकार से उकसाया जाता है। मतदाताओं को रिश्वत दी जाती है, उनकी खुशामद की जाती है, उन्हें फुसलाया जाता है। जनता में इससे मतभेद, कटुता, घृणा एवं द्वेष फैलता है। दलों द्वारा अशोभनीय भाषा में गलत तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं। ब्राइस के अनुसार, दल राष्ट्र को दो विरोधी पक्षों में विभाजित कर देते हैं जिससे मनुष्यों में पक्षपात घर कर जाता है और एक पक्ष दूसरे पक्ष को सन्देह की दृष्टि से देखने लगता है। प्रतिनिधि दलीय अनुशासन के कारण गुलाम बन जाते हैं तथा स्वतन्त्र विचार एवं उनकी अभिव्यक्ति समाप्त हो जाती है।
(6) भ्रष्टाचार का उदय
दलीय व्यवस्था राजनीतिक जीवन में भ्रष्टाचार को जन्म देती है। 19वीं सदी में अमेरिकी राजनीतिक जीवन में व्याप्त लूट-प्रथा इसका प्रमाण है। यद्यपि संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका प्रभाव कम हुआ है परन्तु अमेरिका तथा अन्य देशों जैसे—फांस, कनाडा एवं आस्ट्रेलिया में यह आज भी स्थापित है। भारत आदि देशों में दलीय व्यक्तियों को सत्तारूढ़ दल द्वारा महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जाता है।
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