शिक्षण सिद्धान्त की अवधारणा से आप क्या समझते हैं ? शिक्षण के एक महत्वपूर्ण प्रारूप का वर्णन कीजिए।
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शिक्षण सिद्धान्त की अवधारणा
अधिगम सिद्धान्तों के निरूपण करने के बाद स्वतः इसके दूसरे पक्ष; शिक्षण सिद्धान्त की अवधारणा पर ध्यान जाता है। गेज (N. L. Gage) के अनुसार शिक्षण सिद्धान्त तीन तरह के उत्तर चाहता है-शिक्षक कैसे व्यवहार करता है ? वह वांछित व्यवहार क्यों करता है तथा उसका क्या प्रभाव होता है ? डीसैको शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकता तथा अस्तित्व में तो विकास करता है, किन्तु उसे मूर्त रूप देने में असमर्थ है। करलिंगर (Kerlinger) के सिद्धान्त परिभाषाओं, उन कल्पनाओं तथा चरों का एक पुंज है, जो क्रमबद्ध रूप में शिक्षण के विचार को प्रस्तुत करता है। अनुसार- शिक्षण इसमें शिक्षण की भविष्यवाणी तथा व्याख्या करने वाले चरों के पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या की जाती है।
मॉरिस एल० बिग ने कहा है- “विवेकपूर्ण चिन्तन जो सही क्रियाओं को जन्म देता है, संकल्प एवं इच्छा शक्ति के मूल से अनुप्राणित होता है। जो अध्यापक विचारों की सही श्रृंखला का निर्माण करता है, वह सही आचरण का अनुसरण करता है। अतः निर्देश का वास्तविक कार्य ज्ञान देना मात्र ही नहीं है, अपितु आन्तरिक अनुशासन या संकल्प को प्रस्तुत विचारों के अनुसार ढालना है। मनोवैज्ञानिक सत्य यह है कि छात्रों का निर्माण मुक्त रूप से विचारों की दुनियाँ से होता है।
शिक्षण के सिद्धान्त का महत्व
शिक्षण के सिद्धान्त का महत्व इधर कुछ वर्षों में विकसित हुआ है। अमेरिका में ज्ञान की खोज तथा कुछ नया घोषित करने की परम्परा रही है। विकसित तकनीकी तथा वैज्ञानिक अनुसंधानों ने शिक्षण की प्रक्रिया पर ढंग से विचार किया। हम यहाँ कुछ विद्वानों की धारणाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं-
1. पी० डब्ल्यू० जैक्सन (P. W. Jackson ) – शिक्षण एक नैतिक कार्य है। इसके द्वारा समाज में नई पीढ़ी को नैतिकता के मार्ग पर बढ़ाया जाता है। विज्ञान तथा कला के गुणों से निहित यह एक सामाजिक क्रिया है।
2. डी बोनो (De Bono) – सामाजिक क्रिया के लक्ष्य की पूर्ति होने पर शिक्षण तथा अधिगम, दोनों के उद्देश्य बदल जाते हैं। विकसित ज्ञान-विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ने शिक्षण तथा अधिगम, दोनों में परिवर्तन किया है।
3. जॉन पी० डीसैको (John. P. Dececco) – शिक्षण प्राचीन काल से चली आ रही क्रिया है। इसमें अनुभवों की वृद्धि होती रही है। इन अनुभवों का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य होता है।
शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकता
शिक्षण सिद्धान्त की आवश्यकता आज के युग में मनोवैज्ञानिक तथा शिक्षाशास्त्रियों ने इस प्रकार अनुभव की है-
- शिक्षण, आज के व्यवहार में वाँछित परिवर्तन करता है।
- शिक्षण सिद्धान्त द्वारा, अधिगम की परिस्थितियों पर नियन्त्रण किया जाता है।
- इन सिद्धान्तों के द्वारा चरों (Variables) की व्याख्या की जाती है।
- ये सिद्धान्त, शिक्षा के स्वरूप, स्तर, प्रतिमान, व्यूह रचनाओं तथा शिक्षण की व्यवस्था की व्याख्या करते हैं।
- इनके द्वारा शिक्षण के व्यवहार का विश्लेषण किया जा सकता है।
Right thinking will produce right action; volition or willing has its root in thought. If a teacher builds up the right sequence of ideas, the right conduct follows. Hence, the real work of instruction is implantation not only of knowledge but also of inner discipline or will by means of presented ideas. Psychologically students are made by the word of ideas which is presented to them from without.
शिक्षण की अवधारणा
शिक्षण, बालक के अधिगम करने की प्रक्रिया का एक अंग है। अधिगम जीवन-पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। अधिगम के साथ शिक्षण केवल आयु की विशेष अवस्था तक जुड़ा रहता है। शेष अवस्था में शिक्षण द्वारा प्रशिक्षित मानसिक शक्तियाँ देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार अधिगम का विनियोग करती हैं। शिक्षण द्वारा अधिगम का विनियोग ही शिक्षण की अवधारणा प्रस्तुत करता है
1. वाँछित अनुभव प्रस्तुत करना (To present appropriate experiences) – शिक्षण की अवधारणा के अन्तर्गत प्रमुख बात यह है कि शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य किसी पृष्ठभूमि पर वाँछित अनुभवों का प्रस्तुतीकरण है। शिक्षण प्रमुख समस्या है— सामग्री के समूह में से वाँछित सामग्री का चयन करना तथा छात्रों के सम्मुख आत्मबोध के लिए प्रस्तुत करना । इस अवधारणा की पुष्टि अध्यापक द्वारा वाँछित अनुभव कक्षा में छात्रों को प्रदान करते समय होती है।
2. रुचि का उपयोग (Use of Interest) – शिक्षण की दूसरी अवधारणा है छात्रों की रुचि का उपयोग करना । छात्रों की रुचि के विनियोग में हरबार्ट (Herbart) द्वारा प्रस्तुत पंचपदी प्रक्रिया (Five Steps Process) आज भी सुदृढ़ मनोवैज्ञानिक आधार लिए है। अधिगम तभी प्रभावशाली होगा, जब शिक्षण की क्रिया में वाँछित अनुभव (i) तैयारी . ( Preparation), (ii) प्रस्तुतीकरण (Presentation), (iii) तुलना एवं भावात्मकता (Comparison and Abstraction), (iv) सामान्यीकरण (Generalization) तथा विनियोग (Application); ये पाँच पद छात्रों की रुचि को अधिगम-शिक्षण की प्रक्रिया से विकसित करने में योग देते हैं।
3. मौलिक प्रश्नों का उत्तर (Answer of Fundamental Questions) – शिक्षण की अवधारणा में शिक्षक के व्यवहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अध्यापक कैसे व्यवहार करता है; वह, वह व्यवहार क्यों करता है और उसका क्या प्रभाव होता है; ये प्रश्न, शिक्षण की सामान्य अवधारणा हैं। यह शिक्षण की सभी इकाइयों—छात्र, पाठ्यक्रम एवं विद्यालय तथा विद्यालय के बाहर की सभी परिस्थितियों पर लागू होती है। यह अध्यापकों के व्यवहार तथा छात्रों के अधिगम के कारणों तथा प्रभावों का उत्तर देती है। अध्यापकों तथा छात्रों के व्यवहारों को किस प्रकार नियन्त्रित करके वाँछित दिशा में विकसित किया जा सकता है; इसका उत्तर भी शिक्षण की अवधारणा में ही निहित है।
4. वैयक्तिक मतों पर आधारित ( Based on Individual Differences) – प्रत्येक अध्यापक का अपना निजी सिद्धान्त होता है और उसी के अनुसार वह अपनी शिक्षण प्रक्रिया का सम्पादन करता है। माना, कोई अध्यापक इस मंत का है कि अशान्त वातावरण में बालक शान्त वातावरण की अपेक्षा अधिक सीखते हैं। इस मत के प्रतिपादन के लिए प्रोफेसर नोयल ने किसी शिक्षण उपकरण (Teaching Machines) का विकास किया। इसमें थर्मोस्टैटिक ध्वनि नियन्त्रक भी होता है। जब कक्षा के शोर का स्तर नीचा होता है तो मशीन के शोर का स्तर ऊँचा हो जाता है और इससे छात्र बोर नहीं होते। बढ़ता हुआ शोर वायुमण्डल में स्थित विद्युत (Static Electricity) की मात्रा कम कर देता है और इससे मस्तिष्क की प्रक्रिया में गति आती है।
प्रोफेसर नोयल की भाँति भारत में भी अध्यापकों का अपना शिक्षण-दर्शन है। कोई अध्यापक शिक्षण में रटन्त को महत्व देता है तो कोई प्रत्ययों का विकास करने में। इसी वैयक्तिक भिन्नता से शिक्षण सिद्धान्त की अवधारणा का विकास होता है।
5. दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रभाव- शिक्षण सिद्धान्तों की अवधारणा को विकसित करने में शिक्षा के दार्शनिक आधारों ने बहुत योग दिया है। आदर्शवादी विचारधारा से प्रेरित अध्यापक की शिक्षण अवधारणा में छात्र को पूर्ण आदर्श व्यक्ति बनाना निहित रहता है और प्रयोजनवादी दर्शन से प्रभावित अध्यापक, छात्र को परिस्थितियों के अनुसार समायोजन करने की प्रेरणा देता है।
6. शिक्षण सूत्रों द्वारा विकसित- शिक्षण के सूत्रों का आधार दार्शनिक होता है। वे कक्षागत परिस्थितियों में मानव-मनोविज्ञान का विनियोग कर अन्तर्निहित शक्तियों को विकसित करते हैं। सरल से कठिन, मूर्त से अमूर्त, सामान्य से विशेष, विशेष से सामान्य आदि शिक्षण सूत्रों ने शिक्षण सिद्धान्तों की अवधारणा को विकसित करने में योग दिया है।
7. अभ्यास तथा साधना- शिक्षण सिद्धान्त की अवधारणा का विकास एकदम नहीं होता। इसके मूल में निरन्तर चिन्तन वर्षों का कक्षागत शिक्षण का अभ्यास निहित है। समस्याओं पर निरन्तर चिन्तन करते रहने तथा समाधान पर प्रयोग करने से ही शिक्षण सिद्धान्त का विकास होता है। शिक्षण की प्रक्रिया में निदानात्मक शिक्षण इसी अवधारणा की देन है।
8. मानव योग्यताओं का विकास (Development of Human Abilities)- शिक्षण सिद्धान्तों का विनियोग मानव योग्यताओं को विकसित करता है। संज्ञानात्मक (Cognitive) तथा मनोगत्यात्मक (Psychomotor) योग्यताओं का विकास शिक्षण के महत्वपूर्ण सिद्धान्त ही करते हैं। अध्यापक छात्र व्यवहारों के आपसी संघर्षों के कारण ही मानव की प्रच्छन्न योग्यताएँ विकसित होती हैं।
9. शिक्षण एक कला है ( Teaching is an Art ) – शिक्षण के सिद्धान्त इस बात की पुष्टि करने लगे हैं कि शिक्षण हैं एक कला है। इस कला को अन्य कक्षाओं की भाँति सीखा जा सकता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि शिक्षक पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते, किन्तु यह अवश्य मानना होगा कि शिक्षण की कला के विकास के लिए जन्मजात अध्यापक को भी शिक्षण के सिद्धान्त तथा सूत्रों का सहारा लेना पड़ता है।
10. सामाजिक क्षमता (Social Competence) – अधिगम तथा शिक्षण की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि शिक्षक में समाज की आवश्यकता को पूरी करने की क्षमता हो। समाज में समायोजन की क्षमता का होना अध्यापक के लिए आवश्यक है। निजी अन्य समाज में जिसकी भाषा, संस्कृति आदि भिन्न है, उसका पूरा ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु उस समाज में समायोजन की क्षमता का होना भी अनिवार्य है।
11. शिक्षण का व्यक्तित्व- शिक्षण की अवधारणा में शिक्षक का व्यक्तित्व भी महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता है। शिक्षण के सिद्धान्तों का क्रियान्वयन शिक्षक के व्यक्तित्व पर अधिक निर्भर करता है। छात्रों के प्रति स्नेह, बाल सुलभ व्यवहार, संवेगात्मक स्थिरता एवं कार्य करने के प्रति दृढ़ संकल्प; ये चारों गुण शिक्षण की प्रक्रिया के कारण होते हैं।
शिक्षण की अवधारणा किसी एक तथ्य पर आधारित नहीं है। शिक्षण की अवधारणा में अधिगम भी निहित होता है। शिक्षक का दर्शन भी अधिगम की धारणा को प्रभावित करता है। शिक्षक का शैक्षिक दर्शन कतिपय मूल्यों पर आधारित होता है। समाज उस अध्यापक को मान्यता तथा सम्मान देता है, जो समाज सम्मत मूल्यों का आचरण करता है। ये मूल्य शिक्षा के उद्देश्यों में झलकते हैं और शिक्षक की पाठ योजना में उन मूल्यों के दर्शन होते हैं।
शिक्षण सिद्धान्त, अधिगम सिद्धान्त, का एक अनिवार्य पक्ष है— ठीक सिक्के के दो पक्षों की तरह। यों हम कह सकते हैं कि शिक्षण के सिद्धान्तों की अवधारणा सहज रूप में अधिगम के सिद्धान्तों के साथ ही प्रकट होती है। एकांगीरूप में दोनों में से किसी का भी अस्तित्व स्वीकार नहीं किया जा सकता।
शिक्षण सिद्धान्त अभी विकास की अवस्था में हैं। फिर शिक्षण, एकांगी रूप से अस्तित्वहीन है। अतः अधिगम के अभाव में शिक्षण, शिक्षण के अभाव में अधिगम की कल्पना व्यर्थ है।
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