मूल्यांकन की आवश्यकता तथा महत्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
शैक्षिक मूल्यांकन शिक्षण प्रक्रिया से सम्बन्धित समस्त वर्गों, छात्रों, शिक्षक, निर्देशनकर्त्ताओं, शोधकर्ताओं, शैक्षिक अधिकारी आदि के लिये अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण सिद्ध हो चुका है। यह समस्त शैक्षिक प्रक्रिया, क्रियाओं, सीखने की स्थितियों, पाठ्यक्रम, छात्र एवं शिक्षक सभी का प्रत्येक स्तर पर निरन्तर मूल्यांकन करता है। विद्यालय की गतिविधियों के सुधार लाने के लिए मूल्यांकन का बहुत अधिक महत्व है। यह पाठ्यक्रम निर्माण, उपर्युक्त परीक्षा प्रणाली, व्यक्तिगत निर्देशन तथा सहगामी क्रियाओं आदि की उपर्युक्त योजना बनाने में मूल्यांकन सुदृढ़ पृष्ठभूमि प्रदान कर उनमें अपेक्षित सुधार लाने के लिये प्रेरणा प्रदान करता है।
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मूल्यांकन की आवश्यकता (Need of Evaluation)
उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि मूल्यांकन एक नवीन संकल्पना है। इसके द्वारा विद्यार्थी के व्यक्तित्व के विकास के बारे में आवश्यक सूचनाएँ उपलब्ध की जाती हैं, तथा इसके द्वारा शिक्षण, परीक्षण, परीक्षा, पाठ्यक्रम आदि में आवश्यक परिवर्तन एवं सुधार किए जाते हैं। मूल्यांकन का मुख्य उद्देश्य शिक्षा की विभिन्न क्रियाओं का परिमार्जित करके स्पष्ट करना है। मूल्यांकन का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। इसलिए शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रहे व्यक्तियों को मूल्यांकन के बारे में व्यापक ज्ञान प्राप्त कर लेना अत्यन्त आवश्यक है।
मूल्यांकन का महत्व (Importance of Evaluation)
1. बालक में निहित योग्यताओं के सम्बन्ध में जानकारी- शिक्षा का सबसे प्रमुख लक्ष्य बालक का सर्वांगीण विकास अर्थात् मानसिक, शारीरिक तथा भावात्मक विकास करने से है। इन तीनों प्रकार के स्तरों पर बालकों का विकास करने हेतु कई विशिष्ट शक्तियों का विकास करना अनिवार्य होता है। जैसे चालक के मानसिक पक्ष का विकास करने हेतु उसमें ज्ञान, प्रयोग, बोध, विश्लेषण, संश्लेषण आदि विभिन्न मानसिक योग्यताओं का विकास करना आवश्यक होता है। इन विशिष्ट योग्यताओं का विकास किए बिना ही बालक का मानसिक विकास नहीं किया जा सकता। बालक में निहित विशिष्ट योग्यताओं तथा शक्तियों के आधार पर ही बालक का समस्त व्यवहार संचालित होता है। बालकों के इस व्यवहार अथवा विशिष्ट योग्यताओं, शक्तियों के विकास का माध्यम अधिगम के अनुभव होते हैं, जो निर्धारित पाठ्यक्रम का अंग होते हैं। इन अधिगम अनुभवों को प्राप्त करके ही विद्यार्थी विविध व्यवहारों को प्रदर्शित करते हैं। व्यवहार का यह मूर्त प्रदर्शन बालक में निहित अमूर्त शक्तियों की जानकारी में सहायता करता है, लेकिन यह तभी सम्भव है, जब मूल्यांकन के माध्यम से इन व्यवहार परिवर्तनों की सीमा से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त हो जाए।
2. उद्देश्य प्राप्ति की सीमा के सम्बन्ध में जानकारी- मूल्यांकन ही उद्देश्य प्राप्ति के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करने का एकमात्र साधन है। यह केवल मूल्यांकन द्वारा ही ज्ञात किया जा सकता है कि शिक्षण की प्रक्रिया के संचालन से पूर्व, जिन उद्देश्यों को निर्धारित किया जाता है उन उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हुई है। मूल्यांकन छात्रों में निहित क्षमताओं, योग्यताओं तथा कौशलों आदि से सम्बन्धित विश्वसनीय जानकारी प्रदान करता है। शिक्षक को जब तक यह मालूम नहीं होगा कि उसके द्वारा किए गए शैक्षिक क्रियाकलापों के परिणामस्वरूप, छात्रों में व्यवहार परिवर्तन किस सीमा तक हुए हैं, तब तक वह इस बात का निर्धारण भी नहीं कर सकता है कि उसने किस सीमा तक सफलता प्राप्त कर ली है और भावी व्यवहार परिवर्तनों हेतु, वह किस प्रकार के अधिगम अनुभवों का सम्प्रेषण करे।
3. छात्रों की उपलब्धि के सम्बन्ध में जानकारी- छात्रों की उपलब्धि का ज्ञान अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण होता है। जो ज्ञान सम्प्रेषण के आधार पर छात्रों को प्रदान किया जाता है, उस ज्ञान को अभिव्यक्त कराने हेतु परीक्षा आयोजित की जाती है। परीक्षा के अवसर पर ही छात्र को यह अवसर मिलता है कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है, उसे बाह्य परिस्थितियों में अभिव्यक्त करे। यह अभिव्यक्ति मौखिक तथा लिखित दोनों ही रूप में की जा सकती है। यह अभिव्यक्ति ही मूल्यांकन प्रक्रिया का आधार बनाई जाती है। इसके द्वारा यह मालूम होता है कि किस विशिष्ट छात्र ने किस विशिष्ट विषय में कितनी उपलब्धि की है। उपलब्धि से सम्बन्धित प्राप्त यह जानकारी छात्रों की समस्याओं का पता लगाने; समस्याओं का निराकरण करने और छात्रों के भविष्य के सम्बन्ध में कथन करने की दृष्टि से विशेष सहायक होती है।
4. प्रदत्त ज्ञान की सीमा ज्ञात करने के लिए- अधिगम के अनुभवों को प्रदान करने की दृष्टि से प्रदत्त ज्ञान की सीमा की जानकारी अत्यन्त आवश्यक होती है। यह जानकारी और भी कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण होती है। किसी भी उद्देश्य अथवा बालक के विकास की दिशा में इन अधिगम अनुभवों के आधार पर ही प्रयत्न किया जाता है। इनके आधार पर ही यह मालूम होता है कि बालक में निहित अमूर्त शक्तियों का विकास किस सीमा तक हुआ है। इसके अतिरिक्त इन अनुभवों के द्वारा ही यह मालूम होता है कि किस छात्र ने किस सीमा तक ज्ञान प्राप्त किया है। अधिगम अनुभवों की अपनी एक विशिष्ट प्रक्रिया है। सबसे पहले विभिन्न अधिगम परिस्थितियों के अन्तर्गत इन अनुभवों का सम्प्रेषण किया जाता है। सम्प्रेषित अनुभवों को प्राप्त करके, छात्र इन अनुभवों का प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में करते हैं। इसके आधार पर जहाँ एक ओर शिक्षण की प्रभावशीलता का ज्ञान होता है, वहीं दूसरी ओर यह भी ज्ञात हो जाता है कि किस छात्र ने किस सम्बन्धित विषय के ज्ञान की किस सीमा तक प्राप्ति की है। नवीन ज्ञान प्रदान करने की दृष्टि से यह जानकारी अत्यन्त आवश्यक होती है।
5. शिक्षण में परिवर्तन तथा वांछित सुधार के लिए- छात्रों में निहित शक्तियों का विकास करने अथवा निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने की दृष्टि से शिक्षण प्रक्रिया का विशेष महत्व होता है। यदि शिक्षण, अव्यवस्थित अथवा अनियोजित रूप में किया जाता है तो स्वाभाविक रूप से निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है, इसलिए शिक्षण में अंगों को प्रभावी बनाना अनिवार्य होता है। मूल्यांकन द्वारा इन अंगों की प्रभावशीलता के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त हो जाती है। यदि निर्धारित उद्देश्य प्राप्त हुआ है तो इसी के आधार पर यह भी मान लिया जाता है कि शिक्षण के विभिन्न अंग प्रभावपूर्ण हैं और उनमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। इसके विपरीत यदि यह ज्ञात होता है कि उद्देश्य की प्राप्ति सफलतापूर्वक नहीं हो पायी है तो शिक्षण के सभी अथवा आंशिक अंगों में वांछित परिवर्तन किए जाते हैं। उन्हें पुनः नियोजित, व्यवस्थित तथा समन्वित किया जाता है। इस प्रकार शिक्षण की प्रक्रिया में वांछित सुधार करके, इस प्रक्रिया को उद्देश्य केन्द्रित बनाने की दृष्टि से भी मूल्यांकन का विशेष महत्व होता है।
6. बालकों को प्रेरित करने तथा निर्देशन प्रदान करने के लिए- बालकों को प्रेरणा प्रदान करने तथा वांछित अधिगम की दिशा में अग्रसरण के लिए, निर्देशन प्रदान करने की दृष्टि से भी मूल्यांकन का विशेष महत्व होता है। यदि मूल्यांकन के आधार पर किसी विद्यार्थी को सफल घोषित कर दिया जाए तो उस विद्यार्थी की सभी जगह प्रशंसा होती है। विद्यालय का प्रधानाचार्य, शिक्षक तथा मित्र, अभिभावक आदि उसे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। उसे पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं तथा प्रमाण-पत्र दिए जाते हैं। ऐसी स्थिति में बालक को स्वतः आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। वह अधिगम की दिशा में और भी तीव्र गति से उन्नति करने लगता है। उसमें पाठ्यक्रम तथा अधिगम के प्रति रुचि, लगन तथा उत्साह आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है। इसके विपरीत यदि वह कम अंक प्राप्त करता है अथवा वांछित स्तर तक उपलब्धि प्राप्त करने में सफल नहीं रहता है तो मूल्यांकन के आधार पर यह मालूम किया जा सकता है कि वह किन कठिनाइयों के परिणामस्वरूप असफल हुआ है। इसके साथ ही उसे यह निर्देशन भी दिया जा सकता है कि उसे सफल होने के लिये क्या और किस प्रकार करना चाहिए।
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