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स्त्रियों की प्रस्थिति में परिवर्तन के कारण | Causes of change in the status of women in Hindi

स्त्रियों की प्रस्थिति में परिवर्तन के कारण | Causes of change in the status of women in Hindi
स्त्रियों की प्रस्थिति में परिवर्तन के कारण | Causes of change in the status of women in Hindi

स्त्रियों की प्रस्थिति में परिवर्तन के कारण (Causes of change in the status of women ) 

भारत में स्त्रियों की प्रस्थिति में होने वाले वर्तमान परिवर्तन अनेक दशाओं का संयुक्त परिणाम हैं। इनमें से कुछ प्रमुख दशाओं को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है-

1. सुधार आंदोलन- भारत में उन्नीसवीं शताब्दी में राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महर्षित दयानन्द, महर्षित कर्वे, केश्वचन्द्र सेन रानाडे तथा अनेक व्यक्तियों ने स्त्रियों को शिक्षा देने तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए जो सुधार आंदोलन आरम्भ किया, उससे समाज में एक नयी जागरूकता उत्पन्न हुई। इसके फलस्वरूप बाल-विवाह, सती-प्रथा, बालिका हत्या तथा बहुपत्नी विवाह का विरोध बढ़ने लगा । ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने न केवल विधवा पुनर्विवाह की आवश्यकता पर बल दिया बल्कि स्वयं भी अपने पुत्र का विवाह एक विधवा स्त्री से करके एक अकल्पनीय उदाहरण प्रस्तुत किया। बीसवीं शताब्दी में स्वतंत्रता आंदोलन के अन्तर्गत भी उन कुप्रथाओं को दूर करने पर बल दिया गया जिनके फलस्वरूप स्त्रियाँ सामाजिक तथा आर्थिक अधिकारों से वंचित हो गयी थीं ।

2. स्त्री आंदोलन — स्त्रियों की स्थिति में सुधार का एक प्रमुख कारण स्वयं महिलाओं द्वारा चलाये जाने वाले विभिन्न आंदोलन हैं। भारत में एनी बेसेण्ट के प्रयत्नों से सन् 1920 में एक ‘अखिल भारतीय महिला सम्मेलन’ का आयोजन किया गया। इसका उद्देश्य स्त्रियों को उनके सभी अधिकार दिलाना, शोषण के विरुद्ध उनकी रक्षा करना तथा स्त्री-शिक्षा वृद्धि करना था । इसके फलस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियों ने अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए अनेक आंदोलन किये। आज भी नगरों में स्त्रियों के अपने संगठन हैं जो नारी मुक्ति आंदोलन से जुड़े हुए हैं। इन संगठनों ने दहेज के फलस्वरूप होने वाली हत्याओं, स्त्री-शोषण, बलात्कार तथा नारी अपमान के विभिन्न रूपों के विरुद्ध प्रदर्शन और हड़ताले करके पुरुषों की निरंकुशता को कम करने में बड़ा योगदान किया है। आज स्त्री आंदोलनों का ही परिणाम है कि स्त्रियों को उनके अधिकारों से वंचित करना अथवा किसी रूप में उनका शोषण करना पहले की तरह सफल नहीं रहा ।

3. संवैधानिक अधिकार— स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान तथा विभिन्न कानूनों के द्वारा स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार मिलने से भी उनकी स्थिति में परिवर्तन हुआ । कानून के द्वारा बाल-विवाह को समाप्त कर दिया गया, स्त्रियों को विवाह विच्छेद का अधिकार दिया गया, विधवा पुनर्विवाह को मान्यता दे दी गयी, स्त्रियों को परिवार की सम्पत्ति में पुरुषों के समान अधिकार दिये गये, स्त्रियों और कन्याओं के अनैतिक व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया, दहेज पर कानूनी प्रतिबंध लगा दिये गये तथा उन व्यक्तियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था दी गयी जो दहेज की माँग को लेकर स्त्रियों को उत्पीड़न करते हैं। स्त्रियों की दशा को सुधारने तथा एक नये सामाजिक पर्यावरण का निर्माण करने में इन सभी कानूनों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

4. शिक्षा का प्रसार – स्त्रियों की स्थिति तथा शिक्षा के बीच एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध है । भारत में वैदिक काल से लेकर ब्रिटिश काल तक जैसे-जैसे स्त्रियाँ शिक्षा से वंचित होती गयीं उनकी सामाजिक स्थिति भी गिरती गयी। आज पुनः ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में लड़कियों और स्त्रियों के लिए शिक्षा की सुविधाएँ प्राप्त हैं। इसके फलस्वरूप उन्होंने उन कुरीतियों का विरोध करना आरम्भ कर दिया जिन्हें अभी तक धर्म के नाम पर प्रोत्साहन मिलता रहा था। शिक्षा के प्रसार से ही उनमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ सकी ।

5. राजनीतिक सहभागिता- ग्रामीण स्तर से लेकर विधानसभाओं तथा संसद तक में स्त्रियों की राजनीतिक सहभागिता बढ़ने से उन्हें अधिकार मिलने लगे जो पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में उन्हें पहले प्राप्त नहीं हो सके थे। राजनीतिक सहभागिता के फलस्वरूप जैसे-जैसे सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों का प्रवेश बढ़ने लगा, उनके सामाजिक और धार्मिक शोषण की सम्भावना भी कम होती गयी।

6. संयुक्त परिवार का विघटन — स्त्रियों की स्थिति को परिवर्तित करने में संयुक्त परिवारों का विघटन भी उपयोगी सिद्ध हुआ। संयुक्त परिवार एक ऐसी विचारधारा पर आधारित था जिसमें स्त्रियों के अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं था। इन परिवारों में स्त्रियों का एकमात्र कार्य बच्चों को कुरीतियों की शिक्षा देना और कर्मकाण्डों का पालन करना था । संयुक्त परिवारों का विघटन होने से जैसे-जैसे एकाकी परिवारों की संख्या बढ़ी, इनमें न केवल स्त्रियों को एक सम्मानित स्थान मिलने लगा बल्कि लड़कियों की शिक्षा को भी एक प्रमुख आवश्यकता के रूप में देखा जाने लगा। ऐसे परिवारों का वातावरण अधिक स्वतंत्र और समताकारी होने से स्त्रियों को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के अवसर भी मिलने लगे ।

7. स्त्रियों की आर्थिक सहभागिता- हमारे समाज में स्त्री जीवन से सम्बन्धित अधिकांश समस्याएँ मध्यवर्गीय परिवारों से ही सम्बन्धित रही थीं । एकाकी परिवारों की स्थापना से जब परिवार के सामने आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ी, तब बहुत-सी स्त्रियों ने आर्थिक जीवन में प्रवेश करना आरम्भ कर दिया। औद्योगिककरण में वृद्धि हुई। इस दशा ने भी स्त्रियों को एक आत्म-निर्भर आर्थिक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। आज जैसे-जैसे स्त्रियाँ विभिन्न सेवाओं और व्यवसायों में प्रवेश कर रही है, उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार हो रहा है।

8. पश्चिमी मूल्यों का प्रभाव — स्त्रियों की स्थिति में होने वाला परिवर्तन एक बड़ी सीमा तक पश्चिमी संस्कृति के मूल्यों का परिणाम है। पश्चिमी संस्कृति समानता, स्वतंत्रता तथा सामाजिक न्याय को अधिक महत्व देती है। बाहरी जगत के सम्पर्क तथा शिक्षा के फलस्वरूप जैसे-जैसे स्त्रियों ने पश्चिमी संस्कृति के मूल्यों को ग्रहण किया, वे उन असमानताकारी व्यवस्थाओं का विरोध करने लगीं जो पुरुषों को ही सभी अधिकार देने के पक्ष में थी। वर्त्तमान युग का नारी स्वतंत्रता आंदोलन भी पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव का ही परिणाम है।

9. नगरीकरण- नगरीकरण का सम्बन्ध एक विशेष मनोवृत्ति से है जिसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता, शिक्षा गतिशीलता तथा वैयक्तिक को अधिक महत्त्व दिया जाता है। नगरीय संस्कृति जातिगत विभेदों पर आधारित न होकर सामंजस्य तथा अनुकूलन को अधिक महत्त्व देती हैं। इसके फलस्वरूप स्त्रियों ने बाल-विवाह, दहेज-प्रथा तथा सामाजिक शोषण का विरोध करना आरम्भ कर दिया। नगरों में विधवा पुनर्विवाह, अन्तर्जातीय विवाहों तथा विवाह विच्छेद को एक सामाजिक अपराध को एक सामाजिक अपराध के रूप में नहीं देखा जाता। इसके फलस्वरूप पुरुषों की मनोवृत्तियों में भी इस तरह के परिवर्तन होने लगे जो स्त्रियों के समान ओर अधिकारों के लिए आवश्यक है।

10. ग्रामीण विकास कार्यक्रम – ग्रामीण स्त्रियों की प्रस्थिति में सुधार लाने में ग्रामीण विकास कार्यक्रमों ने भी एक उपयोगी योगदान किया है। ग्रामों की जनसंख्या में अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों की स्त्रियों की संख्या सबसे अधिक है। इनकी शिक्षा के लिए सरकार द्वारा अलग से छात्रवृत्तियाँ दी जाती हैं। जिन गाँवों में आश्रम विद्यालयों की स्थापन की गयी है, वहाँ लड़कियों के लिए अलग छात्रावास बनाये गये हैं। सन् 1987 से गाँवों में स्त्रियों को कृषि, पशुपालन, डेयरी, मछली पालन, हथकरघा उद्योगों हस्तशिल्प तथा ग्रामीण उद्योगों में प्रशिक्षण और रोजगार देने के लिए कार्यक्रम आरम्भ किये गये। सन् 1998 से स्व-शक्ति कार्यक्रम आरम्भ हुआ जिसका उद्देश्य ग्रामीण स्त्रियों के आत्मनिर्भर समूहों को संगठित करके उन्हें अपनी आय बढ़ाने तथा उसका सही उपयोग करने के लिए तैयार करना । सन् 2001-02 से गाँवों में ‘स्वाधार कार्यक्रम (Swadhar Scheme) आरम्भ हुआ जिसके द्वारा विपत्ति में फँसी स्त्रियों की स्त्री समूहों द्वारा ही सहायता की जाती है। ग्रामीण स्त्रियों को सामाजिक रूप से जागरूक बनाने के लिए स्त्री मण्डलों की स्थापना की गयी। इन सभी कार्यक्रमों के फलस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियों ने अपने परम्परागत परिवेश से निकलकर खुली हवा में सांस लेना आरम्भ कर दिया है।

उपर्युक्त दशाओं के अतिरिक्त प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम, परिवार नियोजन, स्व-रोजगार योजना, स्त्री उद्यमियों के लिए विशेष सहायता तथा स्त्रियों के जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए किये जाने वाले विभिन्न प्रयत्नों ने भी स्त्रियों की प्रस्थिति में परिवर्तन लाने में उपयोगी भूमिका निभायी है ।

स्त्रियों की प्रस्थिति में होने वाले परिवर्तनों का तात्पर्य यह नहीं है कि स्त्रियों का जीवन परम्पराओं से बाहर निकलकर पूरी तरह स्वतंत्र और आधुनिक बन चुका है। नगरीय समुदाय में नैतिक शोषण की एक नयी समस्या पैदा हुई हैं। गाँवों में स्त्रियों की जाति सम्बन्धी निर्योग्यताओं का समाधान हो जाने के बाद भी सामाजिक रूप से उनके उत्पीड़न की घटनाओं में अधिक है। नगरों में जैसे-जैसे सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों का सहभाग बढ़ता जा रहा है, पुरुषों के सन्देहपूर्ण मनोवृत्ति के कारण पृथक्करण और विवाह-विच्छेद की घटनाएँ भी बढ़ने लगी हैं। अनेक अध्ययनों से स्पष्ट है कि अधिकांश काम-काजी स्त्रियाँ आज भी अपने द्वारा उपार्जित धन का अपनी इच्छा से उपयोग नहीं कर गाँवों में खेत पर काम करने वाले स्त्री श्रमिकों को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी दी जाती है। गाँवों में पंचायतों तथा नगरों में नगरपालिका के विभिन्न पदों के लिए स्त्रियों को एक-तिहाई आरक्षण मिल जाने के बाद भी उनके द्वारा लिये जाने वाले निर्णय प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा ही प्रभावित होते हैं। इसके बाद भी यह सच है कि पिछले 1500 वर्षों से भी अधिक लम्बी सामाजिक और आर्थिक पराधीनता के बाद स्त्रियाँ अब एक नये युग में प्रवेश कर रही हैं। इस दृष्टिकोण से स्त्रियों की प्रस्थिति में होने वाले परिवर्तन और सुधार की प्रक्रिया के आरम्भिक चरण के रूप में स्वीकार करना ही अधिक उचित होगा ।

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Anjali Yadav

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