समाजीकरण के सिद्धान्त (Theories of Socialization)
व्यक्ति के समाजीकरण में यद्यपि विभिन्न संस्थाएँ और समूह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन इसके साथ ही ‘आत्म’ की भावना, सुझाव, अनुकरण, संकेत, मनोग्रन्थियाँ आदि मनोवैज्ञानिक तथ्य भी समाजीकरण के महत्त्वपूर्ण कारक हैं जिनका विवेचना कुछ प्रमुख विद्वानों ने सिद्धान्त-रूप में किया है।
(1) कूले का सिद्धान्त (Cooley’s theory of Socialization)— चार्ल्स कूले के सिद्धान्त को ‘आत्मदर्पण का सिद्धान्त’ कहा जाता है। कूले का विचार है कि व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे से पृथक् करके उनके बारे में कोई विवेचना नहीं की जा सकती । एक मनोवैज्ञानिक के रूप में कूले ने स्वयं अपने बच्चों के व्यवहारों का अध्ययन करके आत्म-दर्पण की प्रक्रिया के रूप में समाजीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट किया । कूले का कथन है कि बच्चा जब व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है तो उसके अनुभव विशेष महत्त्व के होते हैं और वह नवीन अनुभवों के आधार पर नवीन सामाजिक व्यवहारों का अधिगम करता है जितने अधिक व्यक्तियों से सम्पर्क करता है, उतना ही अधिक लोगों की मनोवृत्ति को समझ पाता है। साथ ही विचारों, मानकों, आस्थाओं, मान्यताओं आदि से सीखता है। समाजीकरण के लिए सामाजिक अन्तःक्रिया होना जरूरी है। समाज के लोगों का व्यवहार और व्यक्तित्व बच्चों के लिए दर्पण के समान होता है और वह अपने में भी उन्हीं के मूल्यों, मानकों, आस्थाओं, अवधारणाओं आदि को विकसित करने का प्रयास करता रहता है।
कूले ने व्यक्ति की मानसिक स्थिति को तीन दशाओं द्वारा स्पष्ट किया है-
I. सर्वप्रथम व्यक्ति में ऐसी धारणा विकसित होती है कि दूसरे व्यक्ति उसके बारे में कैसा सोचते हैं।
II. अपने बारे में दूसरों के विचारों का मूल्यांकन करने से वह या तो गर्व का अनुभव करता है अथवा लज्जा का।
III. इन धारणाओं के अनुसार वह अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन दूसरों के दृष्टिकोण से करने लगता है।
इस प्रकार कूले के अनुसार ‘आत्म’ विचार अथवा विचारों की वह व्यवस्था है जो संचार के द्वारा उत्पन्न होती है और हमारा मस्तिष्क उसे अपना समझकर सदैव अपनाने के लिए तैयार रहता है।
(2) मीड का सिद्धान्त (Mead’s Theory of Socialization)— मीड के अनुसार ‘आत्म’ स्वयं के बारे में एक चेतना है । इस ‘आत्म-चेतना’ का विकास कैसे होता है ? प्रो. मीड ने ‘मैं’ ‘मुझे’ ‘मेरे’ आदि शब्दों का प्रयोग किया है। मैं का तात्पर्य आत्म के इस भाग से है जिनके द्वारा बच्चा अपने आपको दूसरों से अलग समझता है, ‘मुझे’ शब्द उस रूप को स्पष्ट करता है जो उसे अपने बारे में दूसरों की दृष्टि से दिखाई देता है।
प्रारम्भ में ‘मैं’ और ‘मुझे’ की धारणा एक-दूसरे से बिल्कुल पृथक् होती है। धीरे-धीरे परिवार के सदस्यों के साथ अन्तर्क्रिया करने से बच्चा अन्य सदस्यों से अपनी समानता स्थापित करने लगता है।
मीड का विचार है कि बच्चा आरम्भ से ही अपने माता-पिता तथा परिवार के सदस्यों द्वारा किए जाने वाले कार्यों से प्रभावित होने लगता है, लेकिन उसमें आत्म का विकास तब होता है जब वह गुड़ियों के खेल में स्वयं माता-पिता की भूमिका निभाने लगता है, अथवा अपने से छोटे अबोध बच्चे को नियन्त्रण में रखने का प्रयत्न करता है। इन सभी क्रियाओं के दौरान बच्चा स्वयं के बारे में एक विशेष धारणा बना लेता है। उसकी यह धारणा उस बच्चे के प्रति अन्य व्यक्तियों के विचारों से प्रभावित होती है। वास्तव में, बच्चे की सही तस्वीर उसका वास्तविक ‘आत्म’ है जिसके उचित विकास से व्यक्तित्व का निर्माण होता है । इस ‘आत्म’ की समुचित रूप से विकसित करना ही समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रमुख उद्देश्य है ।
(3) फ्रायड का सिद्धान्त (Freud’s Psycho-Analytical Theory ) — फ्रायड उन महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिकों में सबसे प्रमुख है जिन्होंने समस्त मानव व्यवहारों को कुछ मानसिक शक्तियों के अधीन माना है। फ्रायड का विचार है कि मनुष्य के व्यवहार मूल रूप से दो परस्पर विरोधी शक्तियों से प्रभावित होते हैं, वह शक्तियाँ हैं-प्रेम तथा घृणा प्रेम एक जीवन-शक्ति है जबकि घृणा को सहारक शक्ति कहा जा सकता है ।
फ्रायड का विचार है-कि प्रेम और घृणा का विकास सदैव एक रूप में ही देखने को नहीं मिलता बल्कि इनका सम्बन्ध मन के अनेक भागों से होने के कारण इनको अभिव्यक्ति के तरीके भी भिन्न-भिन्न रूप से स्पष्ट होते हैं। इस कथन को स्पष्ट करने के लिए फ्रायड ने मानव मन के तीन पक्षों को स्पष्ट किया है- (क) अचेतन मन (ख) चेतन मन तथा (ग) अवचेतन मन । अचेतन मन में व्यक्ति की उन इच्छाओं का निवास होता है, जिन्हें वह समाज के नियमों के कारण पूरा नहीं कर पाता अथवा व्यक्ति जिनका दमन कर देता है। चेतन मन व्यक्ति के मन का यह पक्ष है जो तत्कालिक परिस्थितियों से सम्बन्धित होता है। यह किसी भी व्यवहार को करते समय व्यक्ति को जाग्रत अवस्था में रखता है तथा उसे तर्क बुद्धि प्रदान करता है। जागृत अवस्था में व्यक्ति जो भी कार्य करता है अथवा अनुभव करता है, उसकी एक स्पष्ट प्रतिमा व्यक्ति के मन में बनी रहती है। इसके पश्चात् व्यक्ति जब पहले से भिन्न प्रकार के व्यवहारों में लग जाता है, तब यह प्रतिमा उसके मन के अवचेतन भाग में चली जाती है अवचेतन मन पूर्णतया सुप्तावस्था में नहीं होता क्योंकि व्यक्ति फिर कभी भी अवचेतन मन में स्थित प्रतिमाओं को सरलता से स्मृति पर ला सकता है।
मानव मन के उपर्युक्त पक्षों की अभिव्यक्ति व्यक्ति के इद्, अहम, पराहम् में देखने को मिलती है । इद् मन की यह अचेतन शक्ति है जो व्यक्ति को सुख प्राप्त करने की प्रेरणा देती है, चाहे यह किसी भी तरह प्राप्त किया जाए। इद के सामने नैतिक-अनैतिक, अच्छे या बुरे का कोई विचार नहीं होता । अहम् वह शक्ति है जो व्यक्ति को सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप व्यवहार करने का निर्देश देती है। अहम् भी इद् के समान नैतिकता, अनैतिकता, प्रेम अथवा घृणा को अधिक महत्व नहीं देता लेकिन फिर भी वह इस अर्थ में अधिक व्यावहारिक है कि यह परिस्थितियों के अनुकूल होने पर ही इद् को अपनी इच्छा पूरी करने की अनुमति देता है । पराहम् का सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों तथा विवेक से है। इस प्रकार समाज में अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आने तथा अन्य व्यक्तियों के व्यवहारों के अनुरूप अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने के फलस्वरूप पराहम् का विकास होता है ।
वास्तविकता यह कि व्यक्ति के व्यवहारों में हद्, अहम् और पराहम् का प्रभाव भिन्न-भिन्न स्थितियाँ में अवश्य देखने को मिलता है।
(4) दुर्खीम का सिद्धान्त (Durkheim’s Theory of Socialization)— दुर्खीम ने समाजीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए किसी पृथक् सिद्धान्त की रचना नहीं की है लेकिन फिर भी अपनी पुस्तक ‘Sociology and Philosophy’ में समाजीकरण से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण विचार दिए गए हैं। आरम्भ में ही यह समझ लेना आवश्यक होगा कि दुख के समाजीकरण सम्बन्धी विचार उनकी सामूहिक प्रतिनिधान तथा सामूहिक चेतना की धारणाओं पर आधारित है। इसलिए इन्हीं धारणाओं के सन्दर्भ में समाजीकरण की प्रक्रिया को समझा जा सकता है।
दुर्खीम के अनुसार- किसी समाज के मूल्यों, नियमों, अवधारणाओं, अवस्थाओं, संवेगों, अभिवृत्तियाँ और आदतों की स्थापना सामूहिक चेतना की अन्तर्क्रिया और पारस्परिक प्रक्रिया का कारण होती है। एक तरह से ये सब उस समान का प्रतिनिधित्व करती है, इन सबको समाज के अधिकांश व्यक्तियों की सहमति प्राप्त होती है। सामूहिक बल मिलने के कारण ये. अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं और उनकी प्रभावशीलता सम्पूर्ण समाज पर रहती है। उस समाज की हर नई पीढ़ी इन्हें उसके सामूहिक बल के कारण सीखता है। व्यक्ति उन्हें अपने व्यवहार में लाता है और फिर उन्हें अपने व्यक्तित्व का स्थायी अंग बनाता है। इस तरह से सामूहिक प्रतिनिधित्वव और सामूहिक दबाव के कारण बच्चे का समाजीकरण होता है । यह सामूहिक बल निरन्तरता मुक्त होता है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में चलता है। हर नई पीढ़ी में किसी एक विशेष संस्कृति का इसी तरह से स्थानान्तरण होता है ।
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