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धर्म का अर्थ एंव कार्य | Meaning and Functions of Religion in Hindi

धर्म का अर्थ एंव कार्य | Meaning and Functions of Religion in Hindi
धर्म का अर्थ एंव कार्य | Meaning and Functions of Religion in Hindi

धर्म से क्या अभिप्राय है? धर्म के कार्यों का वर्णन कीजिए।

धर्म का अर्थ- धर्म शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार व्यक्ति जो धारणा करता है वही उसका धर्म हैं। इस दृष्टि से यह मनुष्य की मूल सत्ता से सम्बद्ध हो जाता है और मानवता, मनुष्यता जैसे प्रत्ययों का बोध कराते हुए कर्त्तव्य का अर्थ देने लगता है। धर्म को अंग्रेजी में ‘रिलीजन’ कह दिया जाता है किन्तु ‘रिलीजन’ शब्द धर्म का द्योतक नहीं। धर्म शब्द अत्यधिक व्यापक है और यह मत या सम्प्रदाय के जैसा संकुचित नहीं है। मत या सम्प्रदाय सीमित एवं निश्चित विचारधारा है जिसकी अपनी विशेषताएँ होती हैं, जिसके अपने नियम हैं, अपने ग्रन्थ हैं, अपने प्रवर्तक हैं किन्तु धर्म मानवता से सम्बन्धित है और मत या सम्प्रदाय से ऊपर है। दादूपंथ, नानकपंथ, राधास्वामी, जैन, बौद्ध, इस्लाम, ईसाई आदि पंथों से सम्बद्ध विचारधाराएँ मत या सम्प्रदाय की श्रेणी में हैं। यहाँ पर जिस धर्म के विषय में विचार किया जा रहा है वह भेदों एवं भिन्नताओं की अपेक्षा एकता व कर्तव्य का प्रतीक है।

स्वामी विवेकानन्द के दार्शनिक विचारों में विश्वधर्म सम्बन्धी आदर्श अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। स्वामीजी जिस विश्वधर्म का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे, उसमें सब प्रकार की मानसिक अवस्था वालों का ध्यान रखा गया। यह विश्वधर्म सबके लिए समान रूप से उपयोगी होगा। इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समान रूप से बल दिया जायेगा। स्वामी जी का कथन है-

“भक्ति, योग, ज्ञान और कर्म के इस प्रकार का समन्वय विश्वधर्म का अत्यन्त निकटतम आदर्श होगा। भगवान् की इच्छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्ण मात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे, तो मेरे मत से मानव का सर्वश्रेष्ठ आदर्श नहीं होगा। जिसके चरित्र में इन भावों में से एक या दो प्रस्फुटित हुए हैं, मैं उनको एकपक्षीय कहता हूँ और सारा संसार ऐसे ही लोगों से भरा हुआ है, जो केवल अपना ही रास्ता जानते हैं।

धर्म के कार्य (Functions of Religion)

ईश्वरीय गुणों का विकास ( Development of Divine Qualities)— धर्म को चाहे व्यापक अर्थ में लें या संकीर्ण अर्थ में, इसमें इस बात पर बल दिया जाता है कि व्यक्ति एक महान या परम आत्मा में विश्वास करें। वह परम आत्मा (अर्थात् ईश्वर) सर्वशक्तिमान हैं और उस पर विश्वास करके व्यक्ति अपने को महान से जोड़ना चाहता है। इस प्रकार धर्म व्यक्ति तथा परमात्मा के सम्बन्धों का विश्लेषण करना चाहता है। इस भावना से अभिभूत होकर व्यक्ति अपने में ईश्वरीय गुणों का विकास करना चाहता है। ईश्वरीय गुण व्यक्ति को ऊपर उठाते हैं अतः यह कहा जाता है कि धर्म व्यक्ति में सुधार व उन्नति लाता है। यह विकास तब सम्भव होता है जब अच्छाइयों को अपनाया जाये और बुराइयों से बचा जाये। इस दृष्टि से धर्म व्यक्ति को बुराइयों से बचाता है और अच्छाइयों को अपनाने की प्रेरणा देता है। उस परम आत्मा के विषय में साधारण व्यक्ति जानने में यदि समर्थ है तो उसे परमात्मा की प्रकृति पर विश्वास करने के लिए कहा जाता है। इस विश्वास से यह प्रेरणा मिलती है कि व्यक्ति जिस परिस्थिति में है उसके अन्तर्गत ही अपने में सुधार करे।

भावनाओं का उदात्तीकरण (Sublimation of Feelings ) धर्म व्यक्ति की भावनाओं को उदात्त बनाता है। धार्मिक व्यक्ति को सर्वत्र विद्यमान समझ कर उससे प्रेम करता है। ईश्वर ही विश्व का सृष्टा है, वही इसका पालक है। यह विचार उससे ईश्वर के प्रति श्रद्धा प्रेम उत्पन्न करते हैं। इस श्रद्धा व प्रेम से यह आनन्दित हो उठता है। धर्म व्यक्ति के जीवन को आनन्दयम बनाने का सशक्त स्रोत है।

धर्म का सामाजिक पक्ष ( Social Aspect of Religion ) कुछ व्यक्ति धर्म के सामाजिक पक्ष पर अधिक बल देते हैं। उनके अनुसार धर्म सामाजिक संयोग एवं सांस्कृतिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति का माध्यम है। इस दृष्टि से समाज सेवा एक धार्मिक कृत्य है। दरिद्रनारायण के रूप में ईश्वर की कल्पना की जाती है। सारे मानव समाज को भाई की तरह समझा जाता है। इस प्रकार एक मानव समाज और एक विश्वव्यापी मानव-धर्म को बढ़ावा दिया जाता है।

आध्यात्मिक विकास ( Spiritual Development) धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति की आध्यात्मिकता से है। मनुष्य सुख की खोज में इधर-उधर भटकता रहता है। सांसारिक पदार्थों में सुख है ही नहीं। सुख या आनन्द तो एक प्रकार की अभिवृत्ति जिसकी सम्भावना आध्यात्मिकता के अभाव में है ही नहीं। अतः व्यक्ति सुख की खोज में धर्म का आश्रय लेता है और आध्यात्मिकता के मार्ग का पथिक बनता है। आध्यात्मिकता मनुष्य की पूर्णता का आधार हैं। मानव जाति पूर्णता की आकांक्षा रखती है और इसी की ओर उन्मुख होकर विकास करती है। पूर्णता की यह इच्छा अभी तक अतृप्त है और इसी आध्यात्मिक प्यास को बुझाने के लिए मनुष्य समस्त प्राणियों से प्रेम व भक्ति की भावना से संयुक्त होता है। धर्म व्यक्ति के आध्यात्मिक मार्ग का प्रकाशक व पथ-प्रदर्शक है।

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Anjali Yadav

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