प्रकृतिवादी शिक्षा से आप क्या समझते हैं? प्रकृतिवादी शिक्षा के सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
प्रकृतिवादी शिक्षा का अर्थ- प्रकृतिवादी दर्शन पर आधारित शिक्षा ही पुराना प्रकृतिवादी शिक्षा कहलाती है कारण यह है कि प्रत्येक शिक्षा किसी न किसी दार्शनिक आधार पर होती है और उसके कुछ न कुछ दार्शनिक आधार भी होते हैं। प्रकृतिवाद उतना ही दर्शन है जितना आदर्श आदि काल से ही परस्पर विरोधी विचारधारा वाले दार्शनिक रहे हैं। एक वे दार्शनिक रहे हैं जो आध्यात्मिक या ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करते हैं और दूसरे वे हैं। जो प्रकृति को सत्य मानते हैं और सृष्टि में ही विश्वास करते हैं। आध्यात्मिक या ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करने वाले दार्शनिक आदर्शवाद की कोटि में आते हैं और दूसरे जो प्रकृति या सृष्टि में विश्वास करते हैं उनकी गणना भौतिकवादी या प्रकृतिवादी दार्शनिकों की कोटि में की जाती है।
यह सत्य है कि प्रारम्भ में आदर्शवादियों की प्रधानता थी। परिणामस्वरूप देश की प्राचीन शिक्षा का स्वरूप ही धार्मिक या आदर्शवादी था। यह शिक्षा आडम्बरों से पूर्ण थी और अत्याचार पनपने लगा था। परिणामस्वरूप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र प्रभुतावाद या अधिनायकवाद को बढ़ावा मिला। जनहित की भावना रखने वाले विचारकों ने इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का बीड़ा उठा लिया और यूरोप में 18वीं शताब्दी में वाल्टेयर और रूसो जैसे विचारकों ने आदर्शवादी शिक्षा के विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। वे चाहते थे कि समाज और धर्म तथा शिक्षा से आदर्शवादी विचारधारा को निकालकर प्रकृतिवादी विचारधारा को बढ़ावा मिला।
परिभाषा- प्रकृतिवाद की परिभाषा पेरी ने इस प्रकार की है- “प्रकृतिवाद विज्ञान नहीं, अपितु विज्ञान के विषय में दावा है कि अधिक स्पष्ट रूप से, यह इस बात का दावा है कि वैज्ञानिक ज्ञान अन्तिम हैं जिसमें विज्ञान से बाहर अथवा दार्शनिक ज्ञान का कोई स्थान नहीं है।”
सिद्धान्त- शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृतिवादी आन्दोलन का प्रारम्भ वेंकन और कमेनियम ने किया और रूसो द्वारा इस आन्दोलन को अपनी चरम सीमा पर पहुँचा दिया गया। प्रकृतिवाद शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नलिखित विचार व्यक्त करते हैं या यों कहा जा सकता है कि प्रकृतिवादी शिक्षा की अग्रलिखित सिद्धान्त हैं-
(1) प्रकृति की ओर लौटो- प्रकृतिवादी शिक्षा का मुख्य नारा यह है कि ‘प्रकृति का ओर लौटो प्रकृतिवादियों ने यह नारा इसलिए लगाया कि अठारहवीं शताब्दी में सभी राजनीतिक, शैक्षिक तथा सामाजिक वातावरण में तमाम गन्दगी व्याप्त हो गयी थी। इस गन्दे वातावरण में रहकर बच्चे के विकास की कल्पना व्यर्थ है। गन्दगी चूँकि उस समाज में व्याप्त है, अतएव समाज में रहते हुए, समाज की शिक्षा प्राप्त करके बालक गन्दा बन जाता है। समाज ने अपनी सारी मलिनता को शिक्षा में घोल दिया है। यह शिक्षा अमृत नहीं विष है। जिसे पास करने से बालक पर बुरे प्रभाव का भय है। इसलिए बालक को सामाजिक वातावरण से प्राप्त होने वाली शिक्षा से दूर ही रखना चाहिए। समाज और शिक्षा के ऐसे शोचनीय वातावरण प्रकृतिवादी शिक्षाशास्त्री रूसो का यह नारा सुनायी दिया था ‘प्रकृति की ओर लौटो।’ रूसो का में यह विश्वास था कि बालक के प्राकृतिक विकास के लिए सामाजिक और राजनीतिक बन्धनों मुक्त करना चाहिए। बालक की निर्विकारता पर रूसो का पूर्ण विश्वास था। उसने कहा था, बच्चे का स्वभाव मूलतः अच्छा होता है और समाज ही उसे भ्रष्ट करता है। रूसो का कहना है कि “प्रत्येक वस्तुनियन्ता के यहाँ से अच्छे रूप में आती है केवल मनुष्य के सम्पर्क से यह दूषित हो जाती है।”
इसलिए बालक को स्वयं अपनी प्रकृति के अनुसार विकसित होने का अवसर दो। उसके अनुसार बालकों की स्वाभाविक रूप से विकसित होने के लिए शिक्षक, स्कूल और पुस्तकों की कोई आवश्यकता नहीं है। बालक की महान् शिक्षिका तो प्रकृति ही है। प्रकृतिवादी शिक्षा के विषय में ऐडम्स ने लिखा है “प्रकृतिवादी शिक्षा, शिक्षा सिद्धान्त में प्रशिक्षण को प्रणाली के हेतु प्रयोग किया गया एक शब्द विशेष है, जो पुस्तक पर नहीं बल्कि वास्तविक जीवन की संरचना उस पर आधारित है। यह उन दशाओं में निर्माण के अध्ययन और उद्देश्यों के अनुसार कार्य करती है जिसमें स्वाभाविक विकास स्थान लेगा यह सदैव उन सुव्यवस्थित प्रणालियों के विरूद्ध रक्षा कवच का काम करती है जो रूढ़िगत हो गयी है। यह सदैव अधिकतर सरलता की संस्तुति करती है, यह आडम्बर को समाप्त कर समाज से भ्रष्टाचार का उन्मूलन करना चाहती है। इसके चौकसी के शब्द हैं ‘प्रकृति की ओर लौटो’ तथा संघर्ष का कारण है ‘बनावट’।
(2) पुस्तकीय ज्ञान या शिक्षा का विरोध- पुस्तकीय ज्ञान देने का मुख्य स्थान विद्यालय है। विद्यालयों में सामान्यतया पुस्तकीय ज्ञान ही प्रदान किया जाता हैं। प्रकृतिवादी कहते हैं कि बच्चे को पुस्तकीय ज्ञान की जरूरत नहीं है। रॉस के शब्दों में यही तथ्य देखिये, शिक्षा में प्रकृतिवाद का आशय उन सभी शिक्षा प्रणालियों से है जो पाठशालाओं और पुस्तकों पर निर्भर न रहकर विद्यार्थी के वास्तविक जीवन का ही अध्ययन करके उसे विकसित करने के लिए परिस्थितियों का निर्माण करते हैं।
(3) शिक्षा में बालक की प्रधानता- अब तक शिक्षा में बालक को कोई स्थान नहीं दिया जाता था। पहले अध्यापक को ही अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता था। मध्यकाल में भी लगभग यही दशा रही, लेकिन आधुनिक काल में शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृतिवादियों ने बालक को विशेष महत्त्व प्रदान किया। उन्होंने बताया कि बालक की शिक्षा की रूपरेखा उसकी प्रकृति क्षमता और शक्ति आदि के ही आधार पर तैयार की जानी चाहिए। शिक्षा बालक के लिए है, बालक शिक्षा के लिए नहीं इसलिए शिक्षा ही बालक के लिए है, बालक शिक्षा के लिए नहीं इसलिए बालक को ही शिक्षा का केन्द्र मानकर शिक्षा उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षा विधि पाठ्य पुस्तकों आदि का निर्धारण किया जाना चाहिए। मुनरों का कहना है कि शिक्षा अपना उद्देश्य, अपनी प्रणाली और अपने साधन बालक के जीवन एवं उसके अनुभवों में व्याप्त करती है।
(4) बालक के मनोवैज्ञानिक तत्त्वों का शिक्षा में महत्त्व— पहले शिक्षा में शिक्षक और पाठ्यक्रम को विशेष स्थान दिया जाता था। शिक्षक बालकों को शिक्षा देते समय बालक न समझ कर प्रौढ़ समझते थे। परिणाम स्वरूप जो ज्ञान प्राप्त करने लायक नहीं होते थे, वह ज्ञान भी उनके सिर पर बोझ की तरह लाद दिया जाता था, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में जब बालक को प्रधानता दी गयी तो शिक्षा के विभिन्न अंगों को प्रधानता न देकर बालक को प्रधानता दी गयी। बालक का अध्ययन शिक्षक के लिए आवश्यक हो गया है। प्रकृतिवादी शिक्षा के अनुसार अब बालक की मूल प्रकृतियों, आवश्यकताओं, इच्छाओं, रूचियों, भावनाओं आदि का अध्ययन करके ही उसे शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। साथ ही शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था की आवश्यकताओं के आधार पर शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। इन सब बातों के लिए अब हर शिक्षक का कर्तव्य हो गया है कि वह मनोविज्ञान का अध्ययन करे, इसीलिए आधुनिक युग में शिक्षा मनोविज्ञान का प्रादुर्भाव हो गया है। इसके परिणामस्वरूप शिक्षा मनोविज्ञान भी एक विषय हो गया है, जिसका अध्ययन करना शिक्षक के लिए आवश्यक है। रूसो ने लिखा है. बालक ऐसी पुस्तक है जिसे शिक्षक को आदि से अन्त तक (एक पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक) पड़ना चाहिए।
(5) शिक्षा में स्वतन्त्रता आवश्यक- प्रकृतिवादियों के अनुसार बालक को उसकी प्रकृति एवं रूचि के अनुसार कार्य करने और सीखने की स्वतन्त्रता देनी चाहिए। उसकी किसी भी किया पर हस्तक्षेप करना उचित नहीं, रूसो का कहना है कि मनुष्य पैदा तो स्वतंत्र होता है किन्तु सदैव वह दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहता है। मनुष्य प्रकृति से अलग हटता जा रहा है। इसलिए वह स्वतन्त्र होता जा रहा है। वह प्रकृति के प्रांगण में रहकर उन्मुक्त वायु प्रकाश का सेवन कर सकता है। किन्तु उसने ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं से युक्त भवनों का निर्माण करके विद्युत प्रकाश से कार्य चलाना चाहता है और अब हालत यह है कि वह जड़ विद्युत का दास है। उसने बड़े-बड़े शहरों का निर्माण किया है जहाँ जीवन से काफी दूर है। रूसो ने कहा, “ये बड़े नगर मानव जाति के शमशान है, कब्रिस्तान हैं, रहने की जगत नहीं हैं।” रूसों कहता है, “दार्शनिक लोग अपने सिद्धान्तों से, चिकित्सक लोग अपने निदान तथा उपचार से तथा धार्मिक नेता अपने उद्देश्य से मनुष्य का हृदय अवलम्ब कर लेते हैं और उसे मृत्यु का स्वागत करने से विमुख कर देते हैं। “
प्रकृतिवादी कहते हैं कि बालक अच्छा प्राणी है, खराब नहीं। वह जन्म के समय अच्छा होता है और यदि उसमें से भय तथा घृणा आदि सब बातों का उन्मूलन कर दिया जाय, तो वह अच्छा ही रहता है।
( 6 ) इन्द्रियां ज्ञान के दरवाजे- बाह्य संसार की ज्ञानात्मक बातों का परिचय बालक को इन्द्रियों के माध्यम से होता है। इन्द्रियां दो प्रकार की होती है (ग) ज्ञान इन्द्रियाँ (ज्ञानेन्द्रियाँ), (ग) कर्म इन्द्रियाँ (कर्मेन्द्रियाँ) ज्ञान प्राप्त करने के कार्य में ज्ञानेन्द्रियों का बड़ा महत्त्व अतएव ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षित किया जाना आवश्यक है। बालकों को ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण के लिए अवसर दिया जाना चाहिए। इसलिए प्रकृतिवादी ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण पर अधिक जोर देते हैं। मान्टेसरी ने भी अपनी शिक्षा पद्धति में ज्ञानेन्द्रियों को मुख्य स्थान दिया है। रूसो ने एक स्थान पर लिखा है, “शिक्षा को इन्द्रियों का उचित प्रयोग करके ज्ञान का द्वार खोलना चाहिए।”
(7) सह-शिक्षा-प्रकृतिवादियों का कहना है कि बालक और बालिकाओं की शिक्षा एक साथ होनी चाहिए। विद्यालय का वातावरण यदि बाल प्रकृति के आधार पर निर्मित किया जाय तो ऐसे विद्यालय में बालक को स्वाभाविक शक्तियों का अच्छा विकास होगा। शिक्षा यदि बालक बालिकाओं को एक साथ दी जाय तो इससे दोनों को प्रेरणा मिलती है, लेकिन सह-शिक्षा के लिए प्रकृतिवादी बालक-बालिकाओं की एक अवस्था निश्चित करते हैं।
संक्षेप में प्रकृतिवाद के सिद्धान्त प्रकृतिवाद के आधारभूत सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
(1) प्रकृतिवादी इस जगत को प्राकृतिक रचना मानता है। प्रकृति अमर है। प्रत्येक वस्तु प्रकृति द्वारा ही निर्मित होकर उसी में विलीन हो जाती है। यह सब क्रियाएँ प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही होती हैं।
(2) मनुष्य को सुखमय जीवन बिताने के लिए प्राकृतिक जीवन को अपनाना चाहिए। मनुष्य प्रकृति से दूर जाकर ही अनेक कष्ट उठाता है।
(3) इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य का विश्वास ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग अलौकिकता में नहीं होता है। धर्म और आध्यात्म में भी विश्वास नहीं होता है। केवल भौतिक चीजों को ही मान्यता दी जाती है।
(4) प्रकृतिवादी मनुष्य को संसार की सर्वश्रेष्ठ रचना मानते हैं। उनके पास ऐसी शक्तियों हैं जिसके कारण वह अन्य पशणियों से श्रेष्ठ है।
(5) रूसो और अन्य प्रकृतिवादियों का यह कहना था कि मनुष्य को अपने विकास, सुख शान्ति एवं शक्ति प्राप्ति के लिए प्राकृतिक जीवन जीना चाहिए। इसके लिए रूसो ने नारा दिया “प्रकृति की ओर लौटो |
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