गुप्त प्रशासन की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
गुप्त प्रशासन (The Gupta Administration) – गुप्त प्रशासन की प्रमुख विशेषता है सत्ता का विकेंद्रीकरण। प्रो० रामशरण शर्मा के अनुसार, गुप्तों की प्रशासनिक व्यवस्था को प्राक्-सामंती व्यवस्था कहा जा सकता है। दूसरी विशेषता यह थी कि संपूर्ण साम्राज्य में एक जैसी व्यवस्था नहीं थी। गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत विभिन्न अधीनस्थ शासक राज्य, आश्रित राज्य इत्यादि थे जिन्हें प्रशासनिक स्वायत्तता प्राप्त थी। गुप्तों के अधीन गणराज्यों का पूर्ण विलयन हो गया और सर्वत्र राजतंत्रात्मक व्यवस्था स्थापित हो गई ।
राजा की स्थिति- प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। सिद्धांततः राज्य की सारी प्रशासनिक शक्तियाँ उसी में केंद्रित थीं। वह कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं सैनिक मामलों का प्रधान था, लेकिन उसे कानून बनाने का अधिकार नहीं था। वह धर्मप्रवर्तक या कानून का पालक माना जाता था। जनता की सुरक्षा करना, वर्णव्यवथा एवं धर्म की रक्षा करना उसका मुख्य कर्त्तव्य था । गुप्त शासकों ने गौरवपूर्ण उपाधियों (महाराजाधिराज, परमभट्टारक, परमेश्वर, परमदेवता इत्यादि) द्वारा जनता पर अपना प्रभाव स्थापित किया। इन उपाधियों से विदित होता है कि गुप्त शासकों के अधीन अनेक छोटे राजा थे तथा राजा देवता के सदृश था। गुप्त ‘राजाओं की तुलना सूर्य, अग्नि, यम, कुबेर, विष्णु आदि से की गई है। राजा युवराज, मंत्रिपरिषद एवं नौकरशाही की सहायता से शासन करता था। कालिदास ने मंत्रिपरिषद का उल्लेख किया है। मंत्री सामान्यतः उच्च वंश से नियुक्त किए जाते थे। इनका पद बहुधा वंशगत होता था। इनका मुख्य कार्य विभिन्न विभागों की देखभाल करना एवं राजा को मंत्रणा देना था। कभी-कभी एक ही मंत्री को एक से अधिक विभाग सौपे जाते थे। समुद्रगुप्त को प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि हरिषेण एक ही साथ कुमारामात्य, सांधिविग्रहिक एवं महादण्डनायक का कार्य करता था।
केन्द्रीय नौकरशाही – गुप्तों की नौकरशही मौर्यो जितनी विशाल या सुसंगठित नहीं थी। इस नौकरशाही को अमात्य के नाम से भी जाना जाता है। अमात्य का पद अधिकतर ब्राह्मण के लिए सुरक्षित रहता था परन्तु अन्य वर्णों के व्यक्तियों की भी इस पद पर नियुक्ति होती थी। गुप्तकाल में अधिकारियों का पद वंशानुगत बन गया। इन्हें वेतन के रूप में नकद राशि से ज्यादा भूमि दी जाती थी। गुप्तकालीन प्रमुख अधिकारियों से महासेनापति, रणभांडागारिक (सैनिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाला प्रधान अधिकारी), महाबलाधिकृत (सैनिक अधिकारी), दण्डपाशिक (पुलिस विभाग का प्रधान), महादण्डनायक (युद्ध एवं न्याय विभाग का कार्य देखनेवाला), महासन्धिविग्रहिक (युद्ध एवं शांति या वैदेशिक नीति का प्रधान), विनयस्थितिस्थापक (शांति-व्यवस्था का प्रधान), महाभंडगाराधिकृत (राजकीय कोष का प्रधान), महाअक्षपटलिक (अभिलेख विभाग का प्रधान), सर्वाध्यक्ष (केंद्रीय सचिवालय का प्रधान), महाप्रतिहार (राजप्रासाद का मुख्य सुरक्षा अधिकारी), ध्रुवाधिकरण (कर वसूलनेवाले विभाग का प्रधान) एवं अग्रहारिक (दान-विभाग का प्रधान) इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। केंद्रीय शासन के विभिन्न विभाग अधिकरण होते थे, जिनकी अपनी मुद्राएँ होती थीं । कुमारामात्य के पदों पर राजवंश से संबद्ध व्यक्ति किए जाते थे। गुप्त शासक उन्हें सैनिक संगठन विस्तृत नहीं था। युद्ध के मौके पर सामंत एवं अधिनस्थ शासक उन्हें सैनिक सहायता देते थे। मौयों की तरह गुप्तों का अस्त्र-शास्त्रों के निर्माण एवं उनके रखने पर राज्य का नियंत्रण या एकाधिकार नहीं था। इस समय की न्याय-व्यवस्था अच्छी थी। राजा के न्यायालय के अतिरिक्त पूग, श्रेणी एवं कुल न्यायालय भी मुकदमों का निपटारा करते थे। दंडिविधान कठोर न होने के बावजूद अपराध कम होते थे। राज्य की आमदनी का मुख्य स्रोत भूमिकर (भाग, भोग, उद्रंग, उपरिकर, हिरण्य इत्यादि) था। राज्य सामान्यतः उपज का 1/6 भाग कर के रूप में लेता था। जुर्माना, उपहार, शुल्क इत्यादि से भी राज्य को आमदनी होती थी। राजस्व का एक बड़ा भाग राजपरिवार के सदस्यों, अधिकारियों एवं दान-पुण्य के कामों में व्यय होता था।
प्रांतीय शासन व्यवस्था- गुप्त साम्राज्य प्रशासकीय सुविधा के लिए विभिन्न प्रशासनिक इकाईयों में विभक्त था। केंद्र द्वारा शासित क्षेत्र की सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई देश या राष्ट्र कहलाती थी। अभिलेखों में सौराष्ट्र एवं सुकुली (मध्यभारत में) का उल्लेख देश के रूप में हुआ है। इसका शासक गोप्ता होता था। देश भुक्ति में बँटा था। अभिलेखों में पुंड्रवर्धन भुक्ति (उत्तरी बंगाल), वर्धमान भुक्ति (बंगाल), तीरभुक्ति (तिरहुत), मालवा भुक्ति (मध्यदेश), कौशांबी भुक्ति, सौराष्ट्र, मगध या श्रीनगर भुक्ति इत्यादि के नाम मिलते हैं। भुक्ति का प्रधान उपरिक कहलाता था। भुक्ति से छोटी इकाई विषय थी, जिसका शासक विषयपति था। अभिलेखों में लाट, एरिकिन, अंतर्वेदी विषय का उल्लेख किया गया है। विषयपति विषयपरिषद की सहायता से शासन करता था। इस परिषद के सदस्य नगरश्रेष्ठि, सार्थवाह, प्रथम कुलिक एवं प्रथम कायस्थ होते थे। विषय को वीथियों में बाँटा गया था। वीथि की समिति में भू-स्वामियों एवं सैनिक कार्यों से संबद्ध व्यक्तियों को रखा गया था। गुप्तों ने पहली बार इतनी व्यवस्थित प्रांतीय शासन की व्यवस्था की।
स्थानीय स्व-शासन- प्रांतीय शासन की तरह गुप्तों की स्थानीय व्यवस्था भी सुसंगठित थी। विधि से छोटी इकाई पेठ थी। पेठ अनेक ग्रामों के समूह को कहा जाता था। सबसे छोटी इकाई गाँव थी। ग्रमपति या ग्रामिक महत्तर, अष्टकुलाधिकरी, कुटुंबी, तलवारक इत्यादि अधिकारियों की सहायता से गाँवों की व्यवस्था देखता था । नगरों का प्रशासन नगरपति (पुरपाल, द्रांगिक) नगरसभा की सहायता से करता था । नगरों के प्रशासन में व्यापारी एवं शिल्पी संघ भी हिस्सा लेते थे।
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