भारत में सल्तनत कालीन के विकास का वर्णन कीजिए।
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मध्यकालीन भारत में प्रशासन का विकास
सल्तनतकालीन प्रशासन- सल्तनत काल का प्रशासन मूलतः स्वरूप सैनिक तथा निरंकुश था। सल्तनत में सुल्तान का पद सबसे अधिक महत्वपूर्ण था और सब राजनीतिक, कानूनी और सैनिक अधिकार उसे प्राप्त थे : वह राज्य की सुरक्षा के लिए उत्तरदायी था। इसी प्रकार वह प्रशासन के लिए भी उत्तरदायी थी और सेनाओं को सर्वोच्च सेनापति थाः वह कानून और न्याय व्यवस्था के लिए भी उत्तरदायी था। इस उत्तरदायित्व को निभाने के लिए वह न्यायाधीशों की नियुक्ति करता था। सुल्तान स्वयं प्रधान न्यायाधीश का काम करता था और अन्य न्यायाधीशों के फैसलों के विरुद्ध सुनवाई करता था।
शुरु-शुरु में भारत में तुर्की प्रशासन पूर्णतः सैनिक प्रशासन था। देश को कई ‘इक्ती’ (इलाकों में बांट दिया गया था और उन्हें प्रमुख सेनापतियों को सौंप दिया गया थे। ये सेनापति जो ‘इक्तादार’ कहलाते थे। अपने इलाके में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के साथ-साथ सरकार को देय भूमि-कर भी वसूल करते थे।
सुल्तान की मदद के लिए मन्त्री होते थे जिनकी नियुक्ति सुल्तान स्वयं करता था और वे सुल्तान के प्रसन्न रहने तक अपने पद पर बने रह सकते थे। प्रशासन में प्रमुख पद ‘वजीर’ का था प्रारंभ में ‘वजीर’ कोई सेनापति ही होता था। 14वीं शताब्दी में ‘वजीर’ को कर विशेषज्ञ माना जाने लगा था। व्यय का परीक्षण करने के लिए एक महालेखा परीक्षक और आय का परीक्षण करने के लिए एक महालेखाकार था। ये दोनों वजीर के नीचे काम करते थे।
‘वजीर’ के बाद राज्य का सबसे महत्वपूर्ण विभाग दीवान-ए-अर्ज अथवा सैनिक विभाग था। इस विभाग का अध्यक्ष ‘आरिज-ए-मुमालिक’ कहलाता था। ‘आरिज’ सेना का सर्वोच्च सेनापति नहीं होता था क्योंकि सेना की कमान स्वयं सुल्तान के हाथ में होती थी। अलाउद्दीन पहला सुल्तान था जो सेना का सारा वेतन नकद देता था। उससे पहले तुर्क सैनिकों को वेतन का भुगतान करने के लिए दोआब में कुछ गांव दे दिए जाते थे। इन सैनिकों ने इस गांवों पर अपना अधिकार वंशानुगत मान लिया था और शासन की सेवा करने के लिए बहुत बूढ़े ओर कमजोर होने पर भी अपने पद छोड़ने को तैयार नहीं होते थे।
इनके अतिरिक्त दो महत्वपूर्ण विभाग और थे : ‘दीवान-ए-रिसालत’ और दूसरा ‘दीवान- ए-इंशा’। पहला धार्मिक मामलों, पवित्र संस्थानों तथा योग्य विद्वानों और साधु-पीर, आदि को वजीफे देने का काम देखता था। इसका अध्यक्ष प्रमुख ‘सदर’ होता था जो अधिकतर मुख्य काजी होता था ।
‘दीवान-ए-इंशा’ राज्य के पत्र-व्यवहार का कार्य करता था। सुल्तान तथा अन्य प्रभुतासम्पन्न शासकों के बीच और अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ सारा औपचरिक और गोपनीय पत्र-व्यवहार उसका उत्तरदायित्व था।
शासक साम्राज्य के विभिन्न भागों में हो रही गतिविधियों की खोज-खबर रखने के लिए जासूसों की नियुक्ति करता था। ये जासूस ‘वरीद’ कहलाते थे। केवल वही सामन्त ‘मुख्य वरीद’ बनाया जाता था, जो शासक का सबसे अधिक विश्व सम्पन्न होता था। फिरोज तुगलक ने गुलामों के मामलों के लिए एक अलग विभाग बनाया था। इन दासों में से अनेक शाही कारखानों में काम करते थे। उन कामों की देखभाग करने वाला अधिकारी ‘बकील-ए-दर’ कहलाता था । फिरोज ने लोक निर्माण का एक अलग विभाग भी खोला। इस विभाग ने नहरें खुदवाई और लोक भवनों का निर्माण करवाया।
दिल्ली सल्तनत में प्रशासन प्रणाली और देश में उस पूर्व शासन प्रणाली में कई समानताएं थीं। दोनों प्रणालियों में शासन ही कार्यकारिणी और सेनाओं का प्रमुख होता था तथा न्याय का स्रोत माना जाता था। दोनों प्रणालियों में उसकी सहायता के लिए मन्त्रिमण्डल होते थे। शासन चलाने के लिए निम्न स्तरों पर कोई परिवर्तन नहीं किया गया था। ग्रामीण प्रशासन को पूर्ववत बनाये रखा गया था।
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