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ब्रिटिश काल या औपनिवेशिक काल में भारतीय प्रशासन के विकास
ब्रिटिश काल में भारतीय प्रशासन के विकास को निम्नलिखित चरणों में व्यक्त किया जा सकता है।
1. केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद की स्थापना- भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था के संदर्भ में 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट का विशेष महत्व है क्योंकि केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद् की स्थापना 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वार हुई थी। इस एक्ट के अनुसार बंगाल के गवर्नर को कम्पनी के भारतीय प्रदेशों का गवर्नर जनरल बनाया गया तथा उसकी सहायता हेतु 4 सदस्यों की एक परिषद् की स्थापना की गयी। ऐक्ट में व्यवस्था थी कि गवर्नर जनरल की परिषद् के सब निर्णय बहुमत से होंगे और गवर्नर जनरल को उसकी परिषद् निर्णय मानने पड़ेंगे। पिट् के भारतीय अधिनियम ने कार्यकारिणी परिषद् की संख्या घटाकर 3 कर दी। 1833 के चार्टर अधिनियम द्वारा कार्यकारिणी परिषद् पदिषद् में एक चौथा सदस्य फिर से जोड़ा गया जिसे विधि सदस्य का नाम दिया गया। 1862 के भारतीय परिषद् अधिनियम ने इसमें एक सदस्य और बढ़ाया, जो वित्त सदस्य कहलाया। सन् 1874 के अधिनियम द्वारा सार्वजनिक निर्माण विभाग के लिए एक सदस्य और जोड़ा गया। 1909 में सैनिक रसद सदस्य के पद को समाप्त कर उसके स्थान पर शिक्षा तथा स्वास्थ्य विभाग का सदस्य नियुक्त किया गया।
इस परिषद् के सभी सदस्य अपने-अपने अधीन केन्द्रीय प्रशासन के विभागों के अध्यक्ष होते थे। उनके साधारण कर्त्तव्य परामर्शदाताओं की अपेक्षा प्रशासकों जैसे अधिक थे। प्रत्येक सदस्य अपने विभाग के मंत्री के समान राजनीतिक अध्यक्ष होता था। और उसके विभाग में स्थायी कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या होती थी, जिसका सर्वोच्च पदाधिकारी स्थायी सचिव होता था। साधारण मामलों में परिषद का सदस्य अन्तिम निर्णय करता था और आदेश निकालता था यदि. मामला महत्वपूर्ण होता, तो उसे गवर्नर जनरल की स्वीकृति के लिए भेजा जाता था। गवर्नर जनरल सदस्य के सदस्य को अस्वीकार कर सकता था।
2. वित्तीय प्रशासन- सन् 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट तहत प्रान्तों को वित्त के सम्बन्ध में बहुत अधिक सीमा तक स्वतन्त्रता दी गई किन्तु 1833 के चार्टर अधिनियम के द्वारा वित्त का केन्द्रीकरण कर दिया गया। इस अधिनियम द्वारा यह निश्चित किया गया कि किसी प्रान्तीय सरकार को नए पद अथवा नए वेतन या भत्ते की स्वीकृति का अधिकार नहीं होगा, जब तक गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति प्राप्त न हो जाए। 1833 1870 ई. तक प्रान्तीय सरकारें केन्द्रीय सरकार के अभिकर्ता के रूप में ही काम करती रहीं ।
सन् 1870 ई. में सर्वप्रथम वित्तीय विकेन्द्रीकरण की दिशा में लॉर्ड मेयो द्वारा एक निश्चित योजना को अपनाया गया।
प्रांतीय सरकारों को वित्तीय मामलों में और अधिक उत्तरदायित्व प्रदान करने हेतु 1882 ई. में एक नई योजना प्रस्तावित की गयी। इसके अनुसार राजस्व के समस्त साधनों को तीन भागों में विभक्त किया गया – केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा विभाजित। विकेन्द्रीकरण के सम्बन्ध में 1907 ई. में चार्ल्स हॉबहाउस की अध्यक्षता में एक शाही आयोग नियुक्त किया गया। इसने सिफारिश की कि गवर्नर जनरल को प्रान्तीय राजस्व में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। 1919 ई. में ऐक्ट द्वारा प्रान्तीय प्रशासन में उत्तरदायित्व के तत्व को प्रवेश हुआ और प्रान्तों के बजट केन्द्रीय सरकार से बिल्कुल पृथक कर दिए गए और प्रान्तीय सरकारों को अपने बजटों के निर्माण का पूर्ण अधिकार दिया गया।
3. केन्द्रीय सचिवालय का विकास – कम्पनी शासन में बंगाल जनरल के अधीन केन्द्रीय सचिवालय गठित किया गया, जिसमें 1833 ई. के चार्टर अधिनियम के अन्तर्गत कुछ परिवर्तन किए गए। सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह था कि राजस्व और वित्त विभागों को मिलाकर एक मिश्रित विभाग बना दिया गया। 1843 से 1919 तक सचिवालय में विभागों का गठन- पुनर्गठन होता रहा। 15 अगस्त, 1947 ई. को जब सत्ता का हस्तान्तरण हुआ तो नई दिली के केन्द्रीय सचिवालय में 19 विभाग थे जिनका फिर से पुनर्गठन एवं सुधार करने के लिए गिरिजाशंकर वाजपेयी की अध्यक्षता में ‘सचिवालय पुनर्गठन समिति’ की स्थापना की गई।
4. लोक सेवा का विकास- सेटन कार के शब्दों में, “कार्नवालिस कोड ने सत्ता की सीमाओं को परिभाषित किया, न्याय की भ्रूण हत्या के विरुद्ध नियमित अपीलीय व्यवस्था की पद्धतियां निर्मित की ओर राजस्व, पुलिस तथा दीवानी फौजदीर न्याय के क्षेत्रों में भारतीय लोक सेवाओं की स्थापना की।”
लार्ड वेलेजली ने लोक प्रशासकों का चयन कर उन्हें फोर्ट विलियम कॉलेज में प्रशिक्षणार्थ भेजा। मुनरों, माल्कम, एलफिन्स्टन तथा अन्य कितने ही प्रतिष्ठित लोक प्रशासन के क्षेत्र में ऐसी नयी और गौरवशाली परम्पराओं की सृष्टि की जिनके महत्वपूर्ण परिमाण आगामी पीढ़ी के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए।
सन् 1919 के भारत शासन अधिनियम ने लोक सेवाओं को ठोस आधार दिया। इस अधिनियम द्वारा भारत में लोक सेवा आयोग (Public Service Commission) के गठन का उपबन्ध किया गया। इस आयोक का प्रमुख कार्य था : लोक सेवाओं की भर्ती करना, उन पर नियन्त्रण रखना तथा ऐसे अन्य कार्य करना जो परिषद् सहित भारत सचिव के बनाए हुए नियमों द्वारा उसे सौंपे जाएं।
1919 के अधिनियम द्वारा भारत में लोक सेवाओं के प्रत्यक्ष को सुव्यवस्थित रूप देने का प्रयास किया गया। उन सेवाओं और विभागों जो भारत की केन्द्रीय सरकार के प्रत्यक्ष तथा स्थायी नियन्त्रण में थे, को केन्द्रीय सेवाओं का नाम दिया गया। इन सेवाओं में मुख्य रूप से रेलवे, कर एवं चुंगी, डाक एवं तार विभाग थे जो कि तकनीकी दृष्टि से इम्पीरियल सेवाओं में शामिल नहीं थें।
1935 के भारत शासन अधिनियम ने संघीय तथा प्रान्तीय लोक सेवा आयोगों के गठन का प्रावधान किया।
5. स्थानीय शासन का विकास- भारत में वर्तमान स्थानीय शासन संस्थाओं की रचना और विकास अंग्रेजी शासन की देन है। इनकी रचना ब्रिटिश संस्थाओं के नमूने पर अंग्रेजो ने की। स्थानीय शासन का प्रारम्भ मद्रास प्रसीडेन्सी में 1690 ई. में एक नगर की स्थापना कर की गई। 1726 ई. में कलकत्ता, बम्बई और मद्रास इन तीन प्रेसीडेन्सी नगरों में मेयरों की अदालतें स्थापित करने का अधिकार दिया गया। 1850 में एक अधिनियम सारे भारत के लिए स्वीकृत किया गया, जिसके अनुसार विभिन्न प्रान्तों के कुछ बड़े नगरों में नगरपालिकाओं की स्थापना की गई। लॉर्ड रिपन के शासनकाल में स्थानीय संस्थाओं को काफी बढ़ावा मिला। उनके स्वरूप को लोकतान्त्रिक बनाया गया तथा उनके कार्यों एवं शक्तियों में वृद्धि की गयी। मॉण्टेग्यू घोषणा के पश्चात् भी स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के विकास को काफी प्रोत्साहन मिला। सन् 1937 में प्रान्तों में उत्तरदायी मन्त्रिमण्डलों के निर्माण के फलस्वरूप स्थानीय संस्थाओ विकास को के काफी प्रोत्साहन मिला।
6. क्षेत्रीय प्रशासन- अंग्रेजी शासन काल में क्षेत्रीय शासन का विकास हुआ। प्रान्त जिलों में विभक्त थे । कुछ प्रान्तों में जिलों का समूहीकरण कर सम्मान का निर्माण किया गया था। सम्भाग का अधिकारी आयुक्त कमिश्नर तथा जिले का अधिकारी ‘कलक्टर’ कहलाता था। आयुक्त व कलेक्टर, आई. सी. एस. के वरिष्ठ अधिकारी होते थे। कलक्टर जिला प्रशासन की धुरी होता था। वह जिले में प्रशासनिक यन्त्र को गतिमान रखतः था। जिले में शन्ति और व्यवस्था बनाए रखना उसका कर्त्तव्य था। जिला मजिस्ट्रेट के रूप में वह न्यायिक एवं कार्यकारिणी कार्यों का सम्पादन करता था । कार्नवालिस तथा बेलेजली ने इसे बढ़ावा दिया था।
7. न्याय प्रशासन- ब्रिटिश शासन में न्याय व्यवस्था अच्छी थी न्याय का कार्य संघीय न्यायालय, उच्च न्यायालय एवं अधीनस्थ न्यायालयों के हाथों में था। सन् 1935 के भारत शासन अधिनियम के आधार पर संघीय होते थे। न्यायालय के क्षेत्र में प्रारम्भिक एवं अपीलीय तथा परामर्श सम्बन्धी विषय थे। प्रान्तों में उच्च न्यायालय का गठन सन् 1861 के भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम के अन्तर्गत किया गया था। इन न्यायालयों को दीवानी, आपराधिक, बसीयती, गैर-वसीयती और वैवाहिक क्षेत्राधिकार मौलिक एवं अपील दोनों प्रकार के प्राप्त थे। जिलों में अधीनस्थ न्यायालय थे। कार्नवालिस ने न्याय प्रशासन में पृथक्करण को लागू किया था।
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