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भारत में ब्रिटिश शासन की विरासत क्या थी?
आधुनिक भारत में प्रशासन के विकास में ब्रिटिश काल का विशेष योगदान है। सन् 1947 में सत्ता हस्तान्तरण के पश्चात् भी, भारत का विशाल शासन तन्त्र लगभग वैसा ही बना हुआ है। यह प्रशासनिक व्यवस्था विरासत के रूप में हैं, इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में देखा जा सकता है –
(i) संवैधानिक सरकार- अपने आरम्भिक काल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रशासन रहा और इसकी आलोचना भारत और ब्रिटेन में होती रही। 1773 ई. के रेग्यूलेटिंग एक्ट के पारित होने पर भारत में ब्रिटिश- प्रशासन के केन्द्रीकरण की प्रक्रिया आरम्भ हुयी। इस एक्ट द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन में हस्तक्षेप किया।
1784 के पिट्स एक्ट द्वारा छः आयुक्तों का एक नियन्त्रण मण्डल बनाकर उसे कम्पनी के निदशकों (डायरेक्टर्स) को नियन्त्रित करने की शक्ति दी गयी। 1786 के एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल को परिषद् से अधिक शक्तियाँ दी गईं और उसे मुख्य सेनापति भी बनाया गया। 1793, 1813, 1853 एवं 1854 ये चार्टर अधिनियमों ने महत्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन किये।
1858 क्के अधिनियम द्वारा भारतीय प्रशासन को ब्रिटिश सरकार ने अपने प्रत्यक्ष नियन्त्रण में कर लिया। इसकी शासन प्रमुख महारानी विक्टोरिया बन गई और सारी वैधानिक, प्रशासनिक तथा वित्तीय शक्तियाँ भारत सचिव तथा उसकी परिषद् में केन्द्रित हो गई। सत्ता का केन्द्रीयकरण गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् में हो गया।
1861 के भारत परिषद् अधिनियम द्वारा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के संगठन में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। प्रथम बारर प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं का आविर्भाव हुआ यद्यपि ये जनता की सच्ची प्रतिनिधि नहीं थी। और उनके अधिकार भी अत्यन्त सीमित थे। लॉर्ड कैनिंग ने कार्यपालिका परिषद् को मन्त्रिमण्डल का स्वरूप देने के लिए उल्लेखनीय प्रयास किया।
1909 के भारत परिषद् अधिनियम कार्यपालिका और व्यवस्थापिक में अनके महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। अभी भी व्यवस्थापिकाओं में बहुत सरकारी सदस्यों का था, जिससे कार्यपालिका का व्यवस्थापिका पर नियन्त्रण बना रहा। इससे जनता के प्रति उत्तरदायो सरकार का निर्माण नहीं हो सकता था। इस व्यवस्था में निर्वाचन प्रणाली साम्प्रदायिक, प्रजातंत्र विरोधी और जनता को विभाजित कररने वाली थी।
1919 में पोन्ट-फोर्ड सुधारों ने यह आशा जाग्रत की कि भारत में उत्तरदायी सरकार और शासन का आरम्भ हुआ।
(ii) केन्द्रीय सचिवालय (Central Secretariat) – ब्रिटिश साम्राज्य में भारत में प्रशासनिक एकता कायम रखने में केन्द्रीय सचिवालय की विशिष्ट भूमिका थी। कम्पनी शासन में गवर्नर जनरल बंगाल के अधीन केन्द्रीय सचिवालय का गठन हुआ। प्रशासन की जरूरतों के ” अनुसार इसमें सुधार एवं पुनर्गठन भी हुआ परन्तु यह आज भी अपने संशोधित स्वरूप में बनी हुई है। इसके अन्तर्गत- 1. गृह विभाग (Home), 2. विदेश विभाग (Foreign Affairs), 3. वित्त विभाग (Finance), 4. सैन्य विभाग (Army), 5. वाणिज्य विभाग (Commerce), 6. उद्योग विभाग (Industries), 7. रेल विभाग (Railways), 8. शिक्षा एवं स्वास्थ (Education and Health), 9. लोक-निर्माण विभाग (Public Works Department), 10. व्यवस्थापन विभाग (legislative Department), 11. राजस्व तथा कृषि विभाग (Revenue and Agriculture)। ये विभाग 1919 से 1947 के बीच कार्यरत थे।
(iii) लोक सेवाओं का विकास (Development of Public Services) – लोक सेवाओं का विकास ब्रिटिश शासन की भारत में महत्वपूर्ण देन है। यद्यपि कि उसका स्वरूप ब्रिटिश हितों की रक्षा था। ब्रिटिश काल में लोक सेवा का लक्ष्य राजस्व वसूली और कानून व्यवस्था बनाये रखना था जिससे ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हितों की रक्षा हो सके।
(iv) वित्त प्रशासन- वित्त-प्रशासन के विकास से भारत में केन्द्र और राज्यों के सम्बन्ध-समीकरण परिवर्तित होते हैं। ईस्ट इण्डिया कम्पनी में घोर अनियमिततायें थीं। ब्रिटिश काल में वित्त- प्रशासन के लिए आवश्यक था कि आय को बढ़ाने और व्यय को नियन्त्रित करने के लिए आय-व्यय का लेखा-जोखा रखा जा सके और उसका निरीक्षण भी होता रहै। इस कार्य के लिए वित्त- प्रशासन का पुनर्गठन किया। सन् 1919 ई. में केन्द्र में आडिटर जनरल का पद सृजित किया गया। इस क्षेत्र के विकास के चलते भारत की आय और व्यय दोनों में वृद्धि हुई इसने स्वतंत्र भारत की वित्त व्यवस्था को व्यवस्थित करने का आधार प्रदान किया।
(iv) राजस्व प्रशासन, (Revenue Administration) – ब्रिटिश शासकों, ने, मुगलकालीन राजस्व व्यवस्था को संशोधित रूप में लागू किया।
उन्होंने भारत में राजस्व प्रशासन के दो मुख्य सिद्धान्त स्थापित किये – सम्पत्ति जैसी संस्था को कानून के माध्यम से भूमि के साथ जोड़ दिया। अब जमीन राजस्व नियमों के अन्तर्गत भू-सम्पत्ति बन गयी और इसे कानूनी संरक्षण मिल गया। कृषकों के अधिकारों की सम्पत्ति के माध्यम से व्याख्या की गयी तथा उनके मालगुजारी अथवा दीवानी अधिकारों की सुरक्षा के लिए राजस्व विधि, राजस्व अभिकरण एवं राजस्व न्यायाधीशों की व्यवस्था की।
(vi) न्याय – प्रशासन- न्याय भारतीय एवं ब्रिटिश पद्धतियों का मिला-जुला रूप था। होल्ट मैकेजी नामक अंग्रेजी आई. सी. सी. एस. अधिकारी ने कुछ सिद्धान्त निर्धारित किये जिनके आधार पर भारत में न्याय प्रशासन का विकास हुआ। सन् 1935 ई. तक भारत का न्याय- प्रशासन स्वतन्त्र न्यायपालिका के सिद्धान्त की अवहलना करता रहा 1935 के अधिनियम में प्रथम बार यह तथ्य स्वीकार किया गया कि केन्द्रीय तथा प्रान्तीय व्यवस्था एक-दूसरे से पृथक की जाये और संधीय न्यायालय जैसी एक स्वतन्त्र स्वरूप की संस्था स्थापित की जाये।
(vii) पुलिस-प्रशासन- न्याय प्रशासन के एक महत्त्वपूर्ण अंग की भाँति भारत में ब्रिटिश पुलिस-प्रशासन भी अपना कार्य करता रहा। 1857 की क्रान्ति के बाद इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने के गम्भीर प्रयास किये गये और 1861 में एक पुलिस अधिनियम बनाया गया। पुलिस-प्रशासन को प्रान्तीय विषय मानकर जनतान्त्रिक सिद्धान्त का अनुमोदन किया गया। पुलिस- प्रशासन के लिए निम्नलिखित बातों पर बल दिया गया-
(i) पुलिस सिविल प्रशासन अथवा कलेक्टर के अधीरक्षण या देख-रेख में काम करें और कानून व्यवस्था का अधिकारी जिलाधीश को ही माना जाये।
(ii) पुलिस की कार्य-प्रणाली को न्याय प्रशासन की प्रकियाओं के साथ अखिल भारतीय अधिनियम, आई. पी.सी.आर.पी.सी. और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अन्तर्गत सुनियोजित किया जाये।
(viii) स्थानीय प्रशासन- ब्रिटिश कालीन स्थानीय प्रशासन को विकास क्रम की दृष्टि से तीन चरणें में बाँटा जा सकता है- (1) 1857 से 1892 तक, (2) 1892 से 1919 तक और (3) 1919 से 1947 तक। प्रथम चरण में कम्पनी शासन में कद मेयर कोर्ट म्युनिसिपल मजिस्ट्रेट आदि नियुक्त किये जिनका क्षेत्र कलकत्ता, मद्रास और बम्बई तक सीमित रहा। लार्ड रिपन के समय में स्थानीय प्रशासन के विकास का ‘स्वर्णकाल’ आया। इस काल में ‘चुनाव’ के साथ-साथ देश के विभिन्न प्रान्तों में स्थानीय प्रशासन की स्थापना हुयी और लोगों में राजनीतिक चेतना भी विकसित हुयी। इसकी विपरीत गति 1909 के मार्ले-मिन्टों सुधारों में फिर आरम्भ हो गयी। अंग्रेजों का आरोप था कि भारतीयों की प्रशासनिक क्षमता स्तरीजय नहीं है अतः स्थानीय प्रशासन के विकास की गति अवरुद्ध हो गयी। 1909 से 1947 तक इस दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुयी। इस दिशा में वास्तविक प्रगति सन् 1947 के बाद हई जब 1950 के दशक में बलवन्त राय मेहता के अधीन एक आयोग का गठन हुआ ।
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