राज्य अभिकरणों की कानून और व्यवस्था के निर्वहन में भूमिका बताइए।
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कानून और व्यवस्था के निर्वाहन में राज्य अभिकरणों की भूमिका
भारतीय राज्यों में विद्यमान पुलिस संगठनों का निर्देशन प्राथमिक रूप में 1816 में बनाउस ‘पुलिस एक्ट’ था।
1860 के पुलिस आयोग के अनुसार, राज्य-स्तर पर कोई भी पुलिस स्टाफ तथा लाइन दोनों ही प्रकार की भूमिकाओं का निर्वाह करता है। ये कार्य बड़ी जटिल प्रकृति के होते हैं। क्योंकि उन्हें तीन स्तरों पर जूझना पड़ता है :
- केन्द्रीय सरकार तथा उसकी विभिन्न इकाइयां,
- राज्य सरकार का गृह मन्त्रालय, तथा
- जिला पुलिस अधिकारियों से सम्बद्ध अन्य निम्नस्तरीय इकाइयां ।
ये सभी प्रकार की कार्यवाहियां प्रायः साथ-साथ ही की जाती रही है। इनमें कुछ स्टाफ इकाइयां ऐसी होती हैं जो कि केवल राज्य स्तर पर ही सक्रिय होती हैं तथा जिनकी क्षेत्रीय इकाइयां प्रायः नहीं होती हैं। राज्य स्तरीय पुलिस प्रशासन की जहां तक लाइन गतिविधियों का प्रश्न है वहां पर वे जिला शाखाओं की मदद से विधि एवं व्यवस्था स्थापित करती हैं, अपराधों की जांच एवं गिरफ्तारियों की व्यवस्था भी करता है। राज्य पुलिस के सामान्य नागरीय अनुभाग में तीन अधिकारी एवं विभाग होते हैं- गृह मन्त्री, गृह आयुक्त तथा गृह विभाग।
राज्य पुलिस ‘पुलिस महानिदेशक’ के निदेशन एवं अधीक्षण में कार्य करती है। इसके इस कार्य में सहायतार्थ एवं सलाह देने हेतु अनेक विशेष, सहायक तथा अतिरिक्त आई. जी. रहते हैं जो कि मुख्यालय पर स्थित होते हैं। ये सभी विशिष्ट पुलिस की भूमिकाओं का निर्वाह करते हैं, जैसे भ्रष्टाचार निरोधक कार्यवाही, नागरिक सुरक्षा अभियान तथा ट्रैफिक के कार्य, आदि। राज्य पुलिस के इस मुख्यधिकारी (D.G.P.) को दो प्रकार के उत्तरदायित्वों को वहन करना होता है- प्रथमं, वह नीति निर्माता होता है, द्वितीय, वह नीतियों का क्रियान्वयन हेतु ‘लाइन क्रियाकलापों’ का संचालन करता है। वह अपने विभाग का मुख्य कर्मिक अधिकारी है, अतः उसे वित्तीय प्रबन्ध तथा संगठन में अनुशासन बनाए रखने में व्यापक शक्तियां एवं विवेकाधिकार मिले हुए हैं। डी. आई. जी. अपनी ‘रेन्ज’ का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी होता है। एक क्षेत्र का डी. आई. जी. चार से लेकर छः तक प्रशासनिक जिलों में पुलिस कार्यों का अधीक्षण करता है। वह ऐसा नया स्तर बना देता है जो कि प्रशासनिक पद सोपन व्यवस्था में राज्य-स्तर से निम्न तथा जिला स्तर से उच्च होता है। राज्य स्तर पर कार्यात्मक भूमिका का नायक डी. आई. जी. अनेक ‘अनुषांगिक’ कार्यों का सम्पादन करता है, उदाहरणार्थ, सी. आई. डी., विशिष्ट जानकारी, रेलवे पुलिस, पुलिस प्रशिक्षण सम्बन्धित संस्थाओं का संचालन, पुलिस मुख्यालयों की देखभाल तथा राज्य-स्तरीय सैनिक टुकड़ियों का व्यवस्थापन, इत्यादि ।
एक डी. आई. जी. एक ओर तो विभिन्न जिलों के पुलिस अधीक्षकों के कार्यों का अधीक्षण करता है और दूसरी तरफ वह उस रेन्ज में पुलिस कार्यों में समन्वयार्थ उनसे निर्देशन, सलाह तथा नेतृत्व की आकांक्षा रखता है। वैसे उसकी अपनी स्वतन्त्रता पद सोपान व्यवस्था एवं कार्यात्मक संस्थाएं भी होती हैं जो उससे विशिष्ट प्रकृति की भूमिकाएं निर्वाह करने में सहायता देती हैं चाहे उसे सी. आई. डी. विशिष्ट जानकारी, भ्रष्टाचार निरोध, ट्रैफिक, रेलवे तथा सशस्त्र पुलिस सेवाओं का संचालन ही क्यों न करना हो। किसी भी कार्य की व्यापकता एवं प्रकृति के आधार पर ही उनका आकार तक किया जाता है। उदाहरणार्थ, जब हम सी. आई. डी. शाखा के डी. आई. जी. का संगठनात्मक विस्तार देखते हैं तो हम यह पाते हैं उसके अधीन ऐसे अनेक कार्यालय होते हैं जो कि एम. ओ. भी. फिंगर प्रिण्ट, फोरेन्सिक प्रयोगशाला तथा खोजी श्वान दलों का सम्बन्धित कार्य संचालित करते हैं।
जहां तक राज्य की सशस्त्र पुलिस का संबंध है, इसे विभिन्न राज्यों में विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। उदाहरणार्थ, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में इसे “प्रान्तीय सैनिक कान्स्टेबुलेरी”, मध्य प्रदेश में “विशिष्ट सैनिक पुलिस”, बिहार में “सैनिक पुलिस”, असम में “असम राइफल्स” तथा तमिलनाडु में “मालावार पुलिस” की संज्ञा दी जाती है। यह सभी दल डी. जी. पी. की ऐसी सुरक्षित सेना होती है जिनका प्रयोग उस रेन्ज की डी. आई. जी. के अनुरोध पर ही किया जाता है। चूंकि ये मारक क्षमता के सुरक्षित दल होते हैं, अतः इनका प्रयोग संवेदशील क्षेत्रों में सुरक्षार्थ अथवा विशिष्ट परिस्थितियों में किया जाता है।
राज्यों में द्रुतगति से बढ़ते हुए शहरीकरण के कारण इन दिनों राज्य-स्तर पर विशाल ट्रैफिक पुलिस प्रशासन का संगठन किया गया है। राज्य स्तर पर ट्रैफिक पुलिस के कार्य “स्टाफ दायित्वों” के अन्तर्गत आते हैं। इसके कार्य हैं- आयोजन, शोधकर्म, जिला स्तर पर पुलिस कार्यों का समन्वय तथा राज्यों पर सड़क सुरक्षा एवं भारी वाहनों के आवागमन के नियमन के बारे में डी. जी. पी. को सलाह देना, इत्यादि ।
इस प्रकार यही कहा जाएगा कि राज्य स्तर पर कार्यरत पुलिस संगठन के पास अनेकानेक कार्यात्मक तथा विशिष्ट कार्य करने की इकाइयां हैं।
राज्य स्तर पर कानून-व्यवस्था प्रशासन में सुधार हेतु सुझाव-
राज्य स्तर पर कानून और प्रशासन में सुधार हेतु निम्न सुझाव दिया जा सकता है-
प्रशासनिक पहलू- कानून व्यवस्था प्रशासन में सुधार हेतु प्रथम, पुलिस की कार्यशैली, संगठन और प्रशिक्षण पर ध्यान दिया जाना चाहिए। आजकल अपराधों की ब्यूह रचना में कल्पनातीत परिर्वतन आ गया है, अतः पुलिस द्वारा जांच कार्य में विज्ञान और तकनीक पर आधारित नूतन उपकरण काम में लिए जाने चाहिए। आज भी भारतीय पुलिस सभी प्रकार के राजनीतिक आन्दोलनों और प्रदर्शनों का मुकाबला अपनी पुरातन ‘लाठी’ से ही करती है। पुलिसकर्मियों के लिए आज भी जो प्रशिक्षण दिया जा रहा है वह उनमें समता और न्याय के स्थान पर समान्ती संस्कार ही अधिक जगाता है। पुलिस को जनतान्त्रिक मूल्यों एवं जनसाधारण के प्रति संवेदशील बनने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि पुलिस की एक सार्थक भूमिका का विकास हो सके। पुलिस दल में शोध और अनुसन्धान तथा नवीन चुनौतियों के प्रति नए तरीकों का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
द्वितीय, न्याय प्रशासन में सुधार किया जाना चाहिए। अनेक बार कानूनों का उल्लंघन इसलिए होता है कि वे वर्तमान स्थिति में अनुपयोगी और अनावश्यक हो गए हैं। अतः सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ सरकार द्वारा कानूनों का बदलना आवश्यक है। राज्य सरकार के अधिवक्ताओं के कमजोर पक्ष के कारण अपराधियों के बचने की संख्या निरन्तर वृद्धि हो रही है, अतः जिला एवं उप-जिला स्तर पर जन अभियोक्ताओं की नियुक्ति केवल योग्यता के आधार पर की जानी चाहिए। मुकदमों को शीघ्र निपटाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। राज्यों में हजारों अभियोग वर्षों तक विचाराधीन अटके पड़े रहते हैं, जिसका अपराध की दर पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
तृतीय, जिला प्रशासन मुख्य रूप से कानून-व्यवस्था के लिए उत्तरदायी है। कलेक्टर जिले में कानून-व्यवस्था की स्थापना के साथ ही राजस्व वसूली एवं विकास कार्यों का भी सम्पादन करता है। प्रशासनिक सुधार आयोग ने संस्तुतिकी थी कि कलक्टर के विकास कार्यों को पृथक कर केवल नियामकीय कार्यों के लिए उत्तरदायी बना दिया जाना चाहिए।
समाजशास्त्रीय पहलू- समाजशास्त्रियों का मत है कि कानून-व्यवस्था को चुनौती देने वाली हर घटना, चाहे वह सामान्य चोरी-डकौती की घटना हो या उपद्रव, आन्दोलन, साम्प्रदायिक संघर्ष या मजदूर असन्तोष की ज्वाला हो, के मूल में आर्थिक-सामाजिक विषमता और असन्तुलन की चिंगारी विद्यमान रहती है। अतः आवश्यकता है संविधान निर्दिष्ट लक्ष्यों की कार्यान्वित करने की, समाजवादी और लोककल्याणकारी राज्य के आदर्शों के क्रियान्वयन की। जैसे-जैसे संविधान की प्रस्तावना में निहित लक्ष्यों का क्रियान्वयन होता जाएगा और एक भित्र समाज व्यवस्था बनती जाएगी वैसे-वैसे यह समस्या भी धीरे-धीरे कम होती चली जाएगी।
कानून-व्यवस्था की स्थापना का सम्पूर्ण प्रश्न हमारी नैतिकता, चरित्र और निष्ठा के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। हमारे जनतान्त्रिक परिवेश में सरकारी मशीनरी के अतिरिक्त जनता अथवा नागरिकों का भी कानून-व्यवस्था की स्थापना में विशिष्ट महत्व है। हर माता-पिता का यह दायित्व है कि वे अपनी सन्तान को कानून-व्यवस्था की उपयोगिता समझावें ।
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