नियंत्रण के प्रति स्वीकारात्मक प्रतिक्रिया निर्माण करने के उपायों का उल्लेख कीजिए।
किसी संस्था के सुचारूरूप से संचालन एवं निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नियंत्रण आवश्यक हैं, चाहे कोई पसन्द करे या न करे। इसलिए प्रबन्धक को इससे निराश नहीं होना चाहिए कि नियंत्रण का व्यक्ति विरोध कर रहे हैं, बल्कि उसे यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि नियंत्रण के विरोध के क्या कारण हैं और उन्हें कैसे ओर कहाँ तक दूर किया जा सकता है। नियंत्रण व्यवस्था के लिए आवश्यक तत्वों का विवेचन हम पहले ही कर चुके हैं, उनका अनुसरण नियंत्रण के प्रति विरोध रोकने में बहुत सहायक सिद्ध होगा। इसके अतिरिक्त नियंत्रण के प्रति विरोधी प्रतिक्रियाओं को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं-
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(1) नियंत्रण के प्रति तटस्थ दृष्टिकोण (Dispassionate View of Control) –
प्रबन्धक को नियंत्रण के प्रति निष्पक्ष, आवेशहीन एवं शान्त दृष्टिकोण रखना चाहिए। जब कोई मशीन खराब हो जाती है, तो हममें से अधिकतर लोग आवेश में नहीं आते बल्कि शान्तभाव से उसके कारणों का पता लगाते हैं और सुधार के उपाय ढूँढ़ते हैं। लेकिन यदि कोई कर्मचारी आशा के अनुकूल कार्य नहीं करता है तो हम उसे न केवल दोषी ठहराने का प्रयत्न करते हैं बल्कि क्रोधित भी हो जाते हैं। प्रबन्धक को नियंत्रण द्वारा प्रदर्शित समस्या के निदान एवं उपचार का शान्त एवं निष्पक्षभाव से ज्ञान प्रापत करने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे आवेश में नहीं आना चाहिए क्योंकि मानवीय व्यवहारों में अन्तरों का होना उतनी ही सामान्य बात है जितनी कि मशीनों में खराबी आना। और दोनों ही स्थितियों में कारणों का सही निदान सरल या कठिन हो सकता है। वास्तव में, नियंत्रण व्यवस्था कठिनाइयों के पता लगाने का एक साधन मात्र है और इस व्यवस्था के संचालन में प्रबन्धक सही उपचार की तलाश में हैं, किसी अभियुक्त की खोज में नहीं। उसका पूरा ध्यान निर्धारित लक्ष्यों के ऊपर ही केन्द्रित रहना चाहिए। किन्हीं व्यक्तियों पर नहीं। इस निष्पक्ष एवं तटस्थ दृष्टिकोण का प्रभाव अधीनस्थों के व्यवहार और दृष्टिकोण में भी कुछ समय बाद झलकने लगेगा और फिर नियंत्रण के प्रति उनकी विरोधी प्रतिक्रिया उतनी तीव्र नहीं होगी, क्योंकि प्रबन्धक की तटस्थता, निष्पक्षता और आवेशरहित व्यवहार से वे तब तक परिचित हो चुके होंगे।
(2) लक्ष्यों के निर्धारण में अधीनस्थों का सहयोग (Subordinates Participation in Setting Objectives) –
नियंत्रण के लिए स्थापित किए जाने वाले लक्ष्यों एवं मूल्यांकन विधि के निर्धारण करने में यदि कर्मचारियों और अधीनस्थों का सहयोग लिया जाता है तो नियंत्रण व्यवस्था में उनकी स्वीकृति एवं विश्वास बढ़ता है। जो कर्मचारी लक्ष्यों के निर्धारण एवं मूल्यांकन पद्धति के लिए अपना सहयोग एवं स्वीकृति दे चुका है, वह स्वयं ही उसकी सफलता के लिए अभिप्रेरित होता है। फिर इससे अधीनस्थों की सम्मतियों, आशाओं और आवश्यकताओं का भी नियंत्रण व्यवस्था में समावेश हो जाता है और दोनों पक्षों के संदेह एवं भ्रांतियां भी दूर हो जाती हैं। फिर इस बात की भी सम्भावना रहती है कि लक्ष्य अधिक व्यावहारिक एवं उचित होंगे।
(3) ‘अधिकारी नियंत्रण’ के स्थान पर ‘तथ्य-नियंत्रण का प्रयोग (Use of ‘Fact Control rather than ‘Executive Control) –
यहाँ पर विशेष जोर इस बात पर दिया गया है कि नियंत्रण सम्बन्धी कोई भी निर्णय तथ्यों के आधार पर लिया जाना चाहिए, न कि अधिकारी के दबाव के कारण। कर्मचारियों को यदि सम्पूर्ण तथ्यों को बता दिया जाए तो वह अधिक विश्वस्त होंगे और नियंत्रण के प्रति अधिक स्वीकारात्मक प्रतिक्रियाएँ करेंगे। किन्तु यदि उनसे केवल अधिक कार्य करने के लिए बिना तथ्यों एवं आवश्यकता का विश्लेषण किये हुए कहा जाएगा तो वे विरोध उत्पन्न करेंगे और प्रबन्धकों के प्रति भी संकालु बने रहेंगे।
4) नियंत्रण व्यवस्था में लोच (Flexibility in the Control System) –
नियंत्रण व्यवस्था में लोच स्वयं में विरोधाभासी है, क्योंकि यदि निष्पादन में अन्तरों को स्वीकृति मिल जाएगी तो कर्मचारियों को अपने उत्तरदायित्वों से बच निकलने का अवसर भी मिल जाएगा, लेकिन फिर भी स्थानीय आवश्यकताओं, आपत्तिकाल एवं विशेष परिस्थितियों में आवश्यक अन्तरों की स्वीकृति, कुशल नियंत्रण व्यवस्था के लिए प्रदान की जानी चाहिए। इसीलिए, मूल प्रश्न लोच की उचित मात्रा का निर्धारण है, जिससे कि नियंत्रण व्यवस्था प्रबन्ध का सक्षम साधन बनी रह सके। उदाहरण के लिए, बजट नियंत्रण के क्षेत्र में लोचपूर्ण बजट की व्यवस्था या लोचपूर्ण प्रमापित लागत की व्यवस्था लोच के समावेश के लिए अधिकृत साधन माने जाते हैं।
(5) रेखाधिकारी द्वारा नियंत्रण (Control by Line Executives) –
उपर्युक्त अधिकतर सुझाव लक्ष्यों के प्रति स्वीकृति एवं नियंत्रण के प्रति कर्मचारियों का स्वीकारात्मक दृष्टिकोण के विकास से सम्बन्धित थे। लेकिन नियंत्रण कार्यवाही उचित है अथवा एक वर्ग की नियंत्रण के प्रति क्या सामूहिक प्रतिक्रिया है, इससे सम्बन्धित नहीं थे। नियंत्रण कार्यवाही यदि अधीनस्थ अविशेषज्ञ या बाहरी स्त्रोतों के द्वारा होगी तो कर्मचारियों की सामान्य धारणा सही बनी रहेगी कि नियंत्रण उचित नहीं है, इसलिए इसका संक्षेप में उत्तर यही है कि नियंत्रण को आदेश श्रृंखला के अन्तर्गत ही रखा जाना चाहिए। एक बड़ी पुरानी और मजबूत परंपरा यह रही है कि रेखाधिकारी या पर्यवेक्षक को ही किसी कर्मचारी के कार्य निष्पादन के दोषों की आलोचना का अधिकार है, या केवल वही आवश्यक सुधारात्मक निर्देश या दण्ड दे सकता है। यदि स्टाफ की सम्मति या सेवाओं की आवश्यकता भी हैं तो उसका केवल मूल्यांकन या जाँच की अवस्था में ही प्रयोग किया जाना चाहिए, अनुशासनात्मक या सुधारात्मक कार्यवाही हर स्थिति में रेखाधिकारी द्वारा ही की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, यदि स्टाफ की सहायता ली भी जाती है तो प्रबन्धकों को चाहिए कि स्टाफ के प्रयोग की आवश्यकता, सहायता प्राप्ति के निश्चित आधार, उसकी सक्षमता एवं निष्पक्षता, निर्णय लेने में उसकी उपयोगिता, अधीनस्थ एवं रेखाधिकारी को उससे प्राप्त होने वाले लाभों, आदि को कर्मचारियों को स्पष्ट कर दिया जाय, जिससे स्टाफ के प्रयोग के लिए वह विश्वस्त हो सकें।
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