राजनीति विज्ञान / Political Science

महाजनपदकालीन राजतंत्रीय प्रशासन | Administration of Mahajanapad in Hindi

महाजनपदकालीन राजतंत्रीय प्रशासन | Administration of Mahajanapad in Hindi
महाजनपदकालीन राजतंत्रीय प्रशासन | Administration of Mahajanapad in Hindi

महाजनपदकालीन राजतंत्रीय प्रशासन पर टिप्पणी कीजिए।

महाजनपदकालीन राजतंत्रीय प्रशासन (Administration of Mahajanapad)

छठी शताब्दी ई०पू० में भारत के अधकांश महाजनपद राजतंत्रीय व्यवस्था द्वारा प्रशासित थे।

राजा की स्थिति- राजतंत्रीय व्यवस्था में शासन का प्रधान राजा ही होता था। उत्तर- वैदिक साहित्य ऐतरेय, तैत्तरीयब्राह्मण में राजा की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला गया है। इन ग्रंथों के अनुसार राजा या राज्य की उत्पत्ति (प्राचीन भारत में राजा और राज्य में अंतर नहीं माना जाता था) युद्ध की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए देवताओं के प्रयासों से हुई। इसलिए राजत्व में देवत्वप का भी अंश पाया जाता है। सामान्यतः छठी शताब्दी ई० पू० तक राजा का पद वंशानुगत बन चुका था। निर्वाचित राजतंत्र की प्रणाली लगभग समाप्त हो चुकी थी (जातकों में कुछ राजाओं के निर्वाचन के प्रमाण मिलते है) । राजा के पद की गरिमा में जहाँ वृद्धि हुई, वहीं उसके अधिकार, कर्तव्य और शक्ति का भी विस्तार हुआ। अब वह सिर्फ युद्ध मे विजय दिलाने वाला ही नहीं रहा, बल्कि प्रजापालक और सामाजिक व्यवस्था को लागू करनेवाला भी बन गया। आर्थिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन से राजा को कर उगाहने की भी सुविधा मिली। राज्य की आमदनी निश्चित हो जाने से राजा के लिए अब यह संभव हो सका कि वह प्रशासन की व्यवस्था के लिए अधिकारियों को बहाल कर सके तथा राज्य की सुरक्षा के लिए सेना रख सके।

परिषद प्रणाली का विकास- क्षेतीयता के विकास के साथ ही वैदिक कबीलाई संस्थाओं – सभा, समिति, विदथ इत्यादि का महत्त्व अब घट गया। बदलती परिस्थितियों में इन संस्थाओं के लिए अब कार्य करना दुष्कर हो गया। उत्तर वैदिककाल से ही इनकी जगह पर रन्त्रिन का उदय हो रहा था, जो प्रशसन में राजा की सहायता करते थे। छठी शताब्दी ई० पू० से परिषद (मंत्रिपरिषद) राजा को सलाह और सहायता देने के लिए संगठित की जाने लगी। प्राक्-मौर्ययुग में मंत्रिपरिषद राजतंत्रीय व्यवस्था की प्रमुख विशेषता बन चुकी थी। परिषद के अतिरिक्त ब्राह्मण (प्रधान पुरोहित) भी राजा के सलाहकार बन गए। उन्हें परिषद में भी स्थान मिला। योग्य मंत्रियों की सहायता से राजा अब सुगमतापूर्वक प्रशासन चलाने लगे।

नौकरशाही का विकास – परिषद के साथ-साथ एक संगठित नौकरशाही का भी उदय इस युग में हुआ। राजा अपनी सहायता के लिए अनेक पदाधिकारियों की नियुक्ति करने लगा। राज्य के प्रमुख अधिकारियों का वर्ग महामात्र कहलाता था। कुछ राज्यों में प्रमुख अधिकारियों का वर्ग आयुक्त के नाम से भी जाना जाता था। इसी वर्ग से मंत्री, सेनानायक, प्रधान न्यायाधीश, कोषाध्यक्ष इत्यादि नियुक्त किए जाते थे। इन अधिकारियों का पद वंशानुगत नहीं था। ये राजा के द्वारा बहाल किए जाते थे और राजा की इच्छा तक अपने पद पर रहते थे। ये अपने कार्यों के संपादन के लिए राजा के प्रति उत्तरदायी थे। जातक कथाओं से ज्ञात होता है कि अनेक पदाधिकारी अपने कार्यों का संपादन उचित ढंग से नहीं करते थे, घूस लेते थे और बेईमानी करते थे। इसलिए उन्हें राजा और प्रजा का समानरूप से कोपभाजन बनना पड़ता था। राज्य के अधिकारियों को नकद वेतन देने की प्रथा थी।

सैन्य व्यवस्था- राज्य अब अपनी सेना भी रखने लगा। साम्राज्यवाद के उदय के साथ ही राज्य की सुरक्षा और विजय प्राप्त करने के लिए सेना रखना आवश्यक हो गया। सेनानायक या सेनापति सैनिक मामलों का प्रधान होता था। मगध की विशाल सेना का उल्लेख मिलता है। नदों के समय मगध की सेना में करीब 20,000 घुड़सवार, 2,00,000 पैदल सैनिक, 2,000 युद्ध के रथ और 4,000 गज सेना की टुकड़ी थी। इस विशाल सेना के बल पर ही मगध के राजा साम्राज्य स्थापित कर सके। इस विशाल सेना का खर्च वहन करने के लिए राज्य को राजस्व- व्यवस्था की तरफ भी ध्यान देना पड़ा।

राजस्व व्यवस्था- राज्य विभिन्न स्रोतों से राजस्व प्राप्त करता था। राज्य की आमदनी के मुख्य साधन भूमि-कर (उपज का 1/6 भाग) उद्योग-धंधों एवं व्यापार से प्राप्त चुंगी थी। राजा को उपहार, नजराना और भेंट (बलि) भी मिलती थी। इन्हें एकत्र करने वाला अधिकारी बलिसाधक के नाम से जाना जाता था। कर एकत्र करने एवं खजाने की देखभाल के लिए भागदुध और भांडागारिक (शौल्किक) जैसे अधिकारी थे। ग्रामप्रधान भी राजस्व वसूली में सहायता प्रदान करते थे। कर मुख्यतः वैश्यों से ही वसूल किया जाता था, ब्राह्मण और क्षत्रियों को कर नहीं देना पड़ता था। राज्य बेगार भी लेता था। इस तरह राज्य की आर्थिक स्थिति अत्यंत- मजबूत हो चुकी थी।

न्याय व्यवस्था – न्याय प्रशासन की भी समुचित व्यवस्था की गई। कबीलाई कानूनों की जगह अब वर्णव्यवस्था को ध्यान में रखते हुए कानून बनाए गए। जाति-धर्म ही कानून का आधार बना। वर्णव्यवस्था के पालन पर जोर दिया गया। अगर नीची जाति वाले उच्च जातिवालों के साथ अपराध करते थे, तो उन्हें कठोर दंड मिलता थाः परंतु अगर उच्च वर्ग का व्यक्ति निम्न वर्ग के व्यक्ति के साथ वही अपराध करता था तो उसे हल्की सजा दी जाती थी। राजा न्याय का प्रधान था। न्याय-व्यवस्था के लिए राज्य की तरफ से न्यायालयों और पदाधिकारियों की नियुक्ति होती थी, जो अपराधों की रोकथाम और दण्ड देने का काम करते थे। अपराधियों की कड़ी सजाएँ दी जाती थीं, परंतु न्यायिक अधिकारी हमेशा न्यायपूर्ण फैसला ही नहीं करते थे। न्याय- प्रशासन में जातियों, परिवारों और क्षेत्रीयता को विशेष महत्व दिया जाता था।

ग्राम प्रशासन- लगान वसूली की समुचित व्यवस्था के एि ग्राम-प्रशासन का भी संगठन हुआ। ग्राम-प्रशासन का प्रधान ग्रामभोजक, ग्रामणी या ग्रामिक कहा जाता था। यह निश्चित नहीं है कि इन्हें राजा के द्वारा बहाल किया जाता था या ग्रामीण ही इन्हें मनोनीत करते थे; परंतु ग्रामशासन में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी।

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Anjali Yadav

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