हिन्दी समालोचना की परिभाषा देते हुए उसके विकास पर प्रकाश डालिए ।
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हिन्दी समालोचना या आलोचना
आलोचना शब्द ‘लोच्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-देखना। इसलिए किसी वस्तु या कृति की सम्यक् व्याख्या, उसका मूल्यांकन करना ही आलोचना है। कुछ व्यक्ति शब्द का अर्थ केवल गुण कथन या केवल दोषानुसन्धान ही समझ बैठे हैं। इसीलिए आलोचना से पूर्व ‘सम’ उपसर्ग को जोड़कर ‘समालोचना’ शब्द भी प्रचलित हो गया, जिसका अर्थ है सन्तुलित दृष्टि से किसी रचना के गुण-दोषों को विवेचना। आलोचना के अर्थ में एक शब्द ‘समीक्षा’ भी प्रचलित हैं। संस्कृत की व्युत्पत्ति के अनुसार समीक्षा का अर्थ है-“जिसमें रचना की अन्तर्व्याख्या और अवान्तराथों का विच्छेद किया गया है।” इस प्रकार आलोचना, समालोचना और समीक्षा ये तीनों ही शब्द समानार्थी हैं और इनका अभिप्राय वस्तुओं के गुण-दोषों की परख करने से है।
परिभाषा – वर्सफोल्ड आलोचना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-“आलोचना कला और साहित्य के क्षेत्र में निर्णय की स्थापना हैं।” मैथ्यू आर्नल्ड के मतानुसार, “आलोचक को तटस्थ भाव से वस्तु के वास्तविक स्वरूप के ज्ञान का अनुभव और प्रचार करना चाहिए। आलोचना की सबसे बड़ी विशेषता है तटस्थता । वस्तु के स्वरूप की जिज्ञासा ही उसे आलोचना के मार्ग में प्रवृत्त करती है।” कार्लाइल के शब्दों में, “आलोचना पुस्तक के प्रति अद्भुत आलोचक की मानसिक प्रतिक्रिया का परिणाम हैं।” इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का मत है कि, “आलोचना का अर्थ वस्तुओं के गुण-दोषों की परख करना है, चाहे वह परख साहित्य क्षेत्र में की गई हो या ललित कला के क्षेत्र में इसका स्वरूप निर्णय और समाविष्ट हैं।”
पाश्चात्य विद्वानों की भाँति ही भारतीय विद्वानों ने भी आलोचना की परिभाषा प्रस्तुत की है। डॉ० श्यामसुन्दर दास का कथन है कि, “साहित्य क्षेत्र में ग्रन्थ को पढ़कर उसके गुणों और दोषों का विवेचन करना और उसके सम्बन्ध में अपना मत प्रकट करना आलोचना कहलाता है। यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या माने, तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।”
डॉ० गुलाब राय का अभिमत है- “आलोचना का मूल उद्देश्य कवि की कृति को सभी कोणों से आस्वाद कर पाठकों को उस प्रकार के आस्वाद में सहायता देना तथा उनके रुचि को परमार्जित करना एवं साहित्य की गतिविधि निर्धारित करने में योग देना है।”
इस प्रकार स्पष्ट है कि आलोचना एक ओर सत्साहित्य के निर्माण को प्रोत्साहन देती है, दूसरी ओर अरात्साहित्य के निर्माण में गत्यावरोध उपस्थित करती है। यह साहित्यकारों की निरूकुशता पर अंकुश लगाती है और साहित्य तथा पाठकों के सम्बन्ध को एक सामान्य भाव भूमि पर अवस्थित करती है। समालोचक कवि और पाठक के बीच में सेतु का कार्य करता है। अतः उसका दोनों के प्रति उत्तरदायित्व कवि और पाठक के बीच में सेतु का कार्य करता है। अतः उसका दोनों के प्रति उत्तरदायित्व है। एक ओर वह कवि की कृति का सहृदय व्याख्याता और निर्णायक होता है तो दूसरी ओर वह अपने पाठक का विश्वास पात्र और प्रतिनिधि समझा जाता है। कवि की भाँति वह द्रष्टा ओर स्रष्टा दोनों ही होता है, लोक-व्यवहार और शास्त्र का ज्ञान, प्रतिभा तथा अभ्यास आदि साधन जैसे कवि के लिए अपेक्षित हैं, उसी प्रकार समालोचक के लिए भी ।
हिन्दी आलोचना का विकास
हिन्दी साहित्य में आलोचना के विकास को निम्न कालों के अन्तर्गत बाँटा जाता है-
- भारतेन्दु युग (सन् 1875 से 1903 तक);
- द्विवेदी युग (सन् 1903 से 1920 तक);
- शुक्ल युग (सन् 1920 से 1936 तक);
- वर्तमान युग (सन् 1936 से अब तक)।
(i) भारतेन्दु युग (सन् 1875 से 1903 तक) – भारतेन्दु युग के आरम्भ में हिन्दी की काव्य-रचना, पद्य-रचना में सीमित थी। 17 वीं और 18 वीं शताब्दी में प्रचलित काव्यांगों की शास्त्रीय विवेचना का रूप भी शिथिल हो गया था।
भातेन्दु युग में गद्य की विभिन्न विधाओं का सूत्रपात हुआ । इस समय के साहित्य सेवियों का ध्यान और उनके प्रयत्न प्रधानताः भाषा-शैली के प्रति ही थे। हाँ, इतना अवश्य है कि इन लोगों ने भाषा-शैली के रूप-विषयक जो लेख समय-समय पर प्रकाशित किये वे आलोचनात्मक शैली में ही हैं।
हुए इस युग में विदेशियों के आगमन के फलस्वरूप रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा आदि के विषय में भी विवाद उठ खड़े थे । इनको लेकर पत्र-पत्रिकाओं में उत्तर प्रत्युत्तर प्रकाशित होते रहते थे। आधुनिक आलोचना का सूत्रपात यहीं से समझना चाहिये। आरम्भिक आलोचकों में भारतेन्दु, बदरीनाराण चौधरी, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, श्रीनिवासदास तथा गंगाप्रसाद अग्निहोत्री के नाम उल्लेखनीय हैं। इनकी आलोचनाएँ प्रायः व्यक्तिगत रुचि पर निर्भर रहा करती थीं। इस प्रकार भारतेन्दु युग में विषय प्रधानता की दृष्टि से समालोचक के तीन रूप थे। यथा-
- (क) पूर्व प्रचलित काव्यालोचना ।
- (ख) धर्म-समाज सम्बन्धी सामयिक आलोचना
- (ग) साहित्यिक आलोचना ।
आलोचना शब्द का प्रयोग जिस अर्थ में किया जाता है, उसका प्रारम्भिक रूप हमें भारतेन्दु युग के एक-दो ग्रन्थों की भूमिका में मिल जाता है। राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने ‘इतिहास- तिमिर नाशक’ पुस्तक की भूमिका में भाषा- रूप सम्बन्धी विचार साहित्यकारों के सम्मुख रखे। इनका उत्तर राजा लक्ष्मसा सिंह ने ‘रघुवंश’ की भूमिका में दिया। तत्पश्चात् इस सम्बन्ध में विचार प्रकट करने की एक परम्परा-सी चल पड़ी और इस प्रकार आलोचना-शैली के जन्म का महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न हुआ।
साहित्यकार अपनी प्रकाशित पुस्तकों को सम्मत्यर्थ अपने मित्रों को भेंट किया करते थे। ये सम्पत्तियाँ पत्रों में प्रकाशित होने लगी। इस प्रकार लेखकों की भाषा-शैली और विचारधारा की समालोचना का प्रारम्भ हुआ। श्री निवासदास कृत ‘संयोगिता स्वयंवर’ नाटक की बद्रीनारायचण चौधरी ओर बालकृष्ण भट्ट ने अपनी योग्यतानुसार निष्पक्ष आलोचना की जो ‘आनन्द-कादिम्बनी’. पत्रिका में प्रकाशित हुई। इस आलोचनाओं का ही माना जाना चाहिए। इसके बाद तो पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तकों की समालोचना प्रकाशित होने का एक क्रम ही चल पड़ा
सारांश यह है कि ‘आनन्द- कादम्बिनी’ में प्रकाशित ‘संयोगिता स्वयंबर’ नाटक की आलोचना के साथ हिन्दी की आधुनिक समालोचना की परम्परा प्रारम्भ होती है।
2. द्विवेदी युग (सन् 1903 से 1920 तक) – आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सन् 1903 में ‘सरस्वती’ पत्रिका का सम्पादन स्वीकार किया था। वे उसके पहले ही हिन्दी के रीडरों की आलोचना करके आलोचक के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। ‘सरस्वती’ का भार सम्हालने के पश्चात् उन्होंने लाला सीताराम के अनुवादित संस्कृत नाटकों में भाषा और भाव के दोष दिखायें। उन्होंने ‘सरस्वती’ में ‘कालीदास की निरंकुशता’ ‘विक्रमांक देव चरित चर्चा’, ‘नैषध चरित चर्चा’ ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ आदि आलोचनात्मक लेख प्रकाशित किये। ये लेख व्याख्यात्मक आलोचना के रूप में लिखे गए थे।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण कार्य द्विवेदी जी ने यह किया है कि पुस्तक की समीक्षा अर्थात् समालोचना के लिए उन्होंने ‘सरस्वती’ में एक पृथक स्तम्भ ही खोल दिया। इस स्तम्भ के अन्तर्गत उन्हांने नव- प्रकाशित पुस्तकों में भाषा, शैली इत्यादि की निर्भय होकर समालोचना की। यह बड़े साहस का काम था और इसका विरोध भी खूब हुआ। द्विवेदी जी ने उक्त विरोध का डटकर सामना किया। अपने विरोधियों को खूब करारे उत्तर दिये। वे अपनी इस परीक्षा में पूरी तरह खरे उतरे। द्विवेदी जी की इस प्रकार की समालोचना का हिन्दी के विकास के ऊपर स्वस्थ प्रभाव पड़ा। भाषा की शुद्धि और शैली की व्यवस्था बनाने में इन समालोचनाओं का बड़ा ही महत्वपूर्ण हाथ रहा। पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तकों की सम्यक् समालोचना का सूत्रपात बड़ा ही महत्वपूर्ण हाथ रहा। इस प्रकार समालोचना के समीचनी समारम्भ का श्रेय द्विवेदी जी को है। इसका समीचीन विकास भी द्विवेदी युग में ही हुआ । इनके समकालीन समालोचकों में मिश्रबन्धु, पद्मसिंह और लाला भगवानदीन के नाम विशेष महत्वपूर्ण हैं।
इन लेखकों ने विशेषतः रीतिकाल के सम्बन्ध में विस्तृत समालोचनाओं प्रस्तुत की। मिश्रबन्धुओं के दो ग्रन्थ ‘हिन्दी नवरत्न’ और ‘मिश्र-बन्धु विनोद’ विशेष प्रसिद्ध हैं। ‘हिन्दी नवरल’ में इन्होंने हिन्दी के सर्वमान्य नौ कवियों की रचना पर आलोचनात्मक ढंग से विचार किया। उनकी सम्मति में देव हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं-तुलसी ओर सूर से भी बढ़ कर इस प्रसंग को लेकर आलोचना के क्षेत्र में एक विवाद-सा खड़ा हो गया। मिश्रबन्धुओं ने देव को सर्वश्रेष्ठ बताया। पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी का पक्ष ग्रहण किया। उन्होंने बिहारी की ‘सतसई’ पर रांजीवनी टीका लिखी ओर भूमिका के रूप में ‘बिहारी सतसई’ पर एक तुलनात्मक समालोचना लिखी। इसमें ‘सतसई’ की परम्परा का इतिहास देते हुए संस्कृत, प्राकृत, उर्दू, फारसी तथा हिन्दी के कवियों के साथ बिहारी की तुलना की गई है और बिरी की सर्वोत्कृष्टि कवि सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। इसके साथ हिन्दी में तुलनात्मक समीक्षा का सूत्रपात हुआ। इस पर मिश्रबन्धुओं ने देव की श्रेष्ठता प्रतिपादन करते हुए पुनः ‘बिहारी और देव’ नामक पुस्तकाकार आलोचना उपस्थिति की। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण काम यह हुआ कि समालोचना को बल प्राप्त हुआ और लोगों को उसके महत्व का ज्ञान हुआ ।
3. शुक्ल युग (सन् 1920 से 1936 तक) – समालोचना के तृतीय विकास का युग पं. रामचन्द्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कार्य से होता है। उन्होंने सूर, तुलसी और जायसी पर विश्लेषणात्मक एवं अत्यनत पाण्डित्यपूर्ण समानोचनाएँ लिखी। शुक्ल जी ने भारतीय और पाश्चात्य समीक्षा सिद्धान्तों का सूक्ष्म अध्ययन किया था। अपनी समालोचना में दोनों का ऐसा समन्वय किया कि वे एक-दूसरे के पूरक प्रतीत होने लगीं। उन जैसी समालोचनाएँ हिन्दी में ही क्या अन्य भारतीय भाषाओं में भी दुर्लभ हैं। कवियों के सम्बन्ध में ऐसी स्पष्ट, विस्तृत और गम्भीर समालोचनाएँ बहुत कम दिखाई देती हैं।
शुक्ल जी ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ नाम ग्रन्थ में हिन्दी के सभी साहित्यकारों की काव्य-प्रवृत्तियों का परिचय देकर उनका स्थान निर्धारित किया है। परवर्ती हिन्दी इतिहास लेखकों के ऊपर शुक्ल जी के इतिहास की गहरी छाप पड़ी हैं।
शुक्ल जी की आलोचना पद्धति से प्रभावित होकर उनके शिष्यों तथा अन्य साहित्य-प्रेमी आलोचकों ने विभिन्न कवियों पर आलोचनात्मक ग्रन्थ लिखे। इस वर्ग के समालोचकों में नन्दुलारे वाजपेयी, डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, डॉ. नागेन्द्र, डॉ० सत्येन्द्र, कृष्ण शंकर शुक्ल, रामकृष्ण शुक्ल, शान्तिप्रिय द्विवेदी, रामनाथ सुमन तथा गिरिजाशंकर शुक्ल ‘गिरीश’ के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। समालोचना के क्षेत्र में दूसरे ढंग का कार्य डॉ. श्यामसुन्दर दास ने किया। इन्होंने भारतीय और पाश्चात्य काव्य-मीमांसा को लेकर अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘साहित्यालोचन’ पर रचना की। इसमें सैद्धान्तिक समालोचना का सुन्दर रूप है। इसके अनुकरण पर अनेक पन्थ लिखे गए हैं। हमें डॉ० गुलाबराय का ‘सिद्धान्त और अध्ययन’ तथा रामदहित ‘मिश्र का ‘काव्य-दर्पण’ विशेष महत्वपूर्ण है।
उक्त दोनों ही विद्वान काशी विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग आचार्य पद को सुशोभित करने वाले महानुभाव थे । इन दोनों ने हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में वस्तुतः युगान्तर ही उपस्थित कर दिया।
4. वर्तमान युग (सन् 1936 से अब तक) – शुक्ल जी द्वारा प्रतिष्ठित समालोचना पद्धति पर अनेक समालोचक बराबर व्याख्यात्मक समालोचनाएँ लिखते रहते हैं। इन लेखकों ने कवियों, नाटककारों, उपन्यासों, कहानीकारों तथा उनकी रचनाओं पर महत्त्वपूर्ण समालोचनाएँ लिखी हैं। इनमें प्रमुख हैं-डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, नन्द दुलारे वाजपेयी, डॉ० रामरतन भटनागर, डॉ० नगेन्द्र, डॉ० सत्येन्द्र, माता प्रसाद गुप्त, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र तथा परशुराम चतुर्वेदी ।
प्रगतिवादी विचारधारा ने समालोचना को भी प्रभावित किया है। इन प्रगतिवादी आलोचकों में उल्लेखनीय हैं-डॉ० रामविलास शर्मा, डॉ० शिवदान सिंह चौहान, प्रभाकर माचवे, प्रकाशचन्द्र गुप्त तथा भगवतशरण उपाध्याय। इलाचन्द्र जोशी और डॉ० नगेन्द्र की समालोचनाओं पर प्रभाववादी विचारधारा का रंग दिखायी देता है।
आजकल हिन्दी के अधकचरे समालोचक बहुत उठ खड़े हुए हैं इन्हें न तो भारतीय समीक्षा शास्त्र का ही सम्यक ज्ञान है। और न पाश्चात्य सिद्धान्तों से ही पूर्ण परिचय है। ये समालोचक किसी तथ्य पर पहुँचते हुए न दिखाई देकर शब्द-जाल में ही उलझे दिखाई देते हैं।
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