आदर्शवादी शिक्षा में पाठ्यचर्या, शिक्षण विधियाँ, अनुशासन एवं शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों की विवेचना कीजिए।
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आदर्शवादी शिक्षा की पाठ्यचर्या
आदर्शवादी शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति निश्चित करते हैं और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य के शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक, नैतिक एवं चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास पर बल देते हैं और इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पाठ्यचर्या में भाषा, साहित्य, धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र को प्रमुख और अन्य विषयों एवं क्रियाओं को गौण स्थान देते हैं।
यूनानी (ग्रीस) दार्शनिक प्लेटो के अनुसार मानव जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति अथवा ईश्वर की प्राप्ति है और इसके लिए सत्यं शिवं और सुन्दरं की प्राप्ति आवश्यक होती है। ये तीनों आध्यात्मिक मूल्य मनुष्य की क्रमशः बौद्धिक, नैतिक एवं कलात्मक क्रियाओं के द्वारा प्राप्त होते हैं। अतः प्लेटो पाठ्यचर्या में उन्हीं विषयों एवं क्रियाओं के समावेश पर बल देते थे जो मानव को उपर्युक्त क्रियाओं में दक्षता प्रदान करें। उन्होंने पाठ्यचर्या में बौद्धिक क्रियाओं के लिए भाषा, साहित्य, इतिहास, भूगोल, गणित तथा शारीरिक विज्ञान का; नैतिक क्रियाओं के लिए धर्म, नीतिशास्त्र तथा अध्यात्मशास्त्र का और कलात्मक क्रियाओं के लिए विभिन्न कलाओं तथा संगीत का समावेश किया था।
जर्मन शिक्षाशास्त्री हरबार्ट मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के लिए चारित्रिक एवं नैतिक विकास पर बल देते थे और इसके लिए पाठ्यचर्या में भाषा, साहित्य, इतिहास, कला तथा संगीत को मुख्य स्थान देते थे। उनके मतानुसार पाठ्यचर्या में भूगोल, गणित तथा विज्ञान को गौण स्थान देना चाहिए ।
इंग्लैण्ड के शिक्षाशास्त्री नन महोदय की दृष्टि से पाठ्यचर्या में उन्हीं विषयों का समावेश किया जाना चाहिए जिनसे मनुष्य को मानव सभ्यता एवं संस्कृति की झलक मिल सके और जिनके द्वारा बच्चों को कुछ विशेष क्रियाओं में अनुशासित एवं प्रशिक्षित किया जा सके। नन महोदय ने विशेष क्रियाओं को दो वर्गों में विभाजित किया है। प्रथम वर्ग में वे क्रियाएं आती हैं जो व्यष्टिगत एवं सामाजिक जीवन की रक्षा करती है, जैसे-स्वास्थ्य रक्षा, सामाजिक संगठन, शिष्ट, नैतिक एवं धार्मिक आचरण। इसके लिए उन्होंने पाठ्यचर्या में शरीर विज्ञान, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा धर्म आदि को स्थान दिया है। दूसरे वर्ग में सभ्यता तथा संस्कृति का निर्माण करने वाली सृजनात्मक क्रियाएँ आती हैं और इन क्रियाओं के प्रशिक्षण के लिए उन्होंने पाठ्यचर्या में साहित्य, कला, संगीत, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान तथा दस्तकारी को स्थान दिया है।
शिक्षण विधियाँ
आदर्शवादी इस तथ्य से परिचित हैं कि बच्चा प्रारम्भ में अनुकरण द्वारा ही सीखता है इसलिए वे बच्चों के माता-पिता एवं अध्यापकों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे बच्चों के सम्मुख उच्च आचरण प्रस्तुत करें। अध्यापकों से वे यह भी अपेक्षा करते हैं कि वे बच्चों के सम्मुख लेख, चित्रकला व संगीत आदि के उत्कृष्ट नमूने प्रस्तुत करें जिनका अनुकरण कर वे इनको सीखें। वे अध्यापकों से यह भी अपेक्षा करते हैं कि वे छात्रों में अच्छे से अच्छा कर दिखाने की प्रेरणा एवं स्पर्धा उत्पन्न करें। उस स्थिति में अनुकरण विधि द्वारा शिक्षण अति लाभकारी होता है। बच्चों में मूल्यों के विकास और उनके चरित्र निर्माण के लिए वे बच्चों के सामने धर्म ग्रन्थों और साहित्य के धीरोदात्त नायकों के चरित्र प्रस्तुत करने पर बल देते हैं। आदर्शवादियों का विश्वास है कि मनुष्य की प्रकृति अच्छे-बुरे में भेद करने की होती है, वे इन धीरोदात्त नायकों के गुणों का अनुकरण कर अच्छे मनुष्य बन सकेंगे।
आदर्शवादी यह मानते हैं कि मनुष्य में सीखने की आन्तरिक इच्छा होती है, वह जो कुछ देखते-सुनते अथवा अनुभव करते हैं उसके बारे में स्वयं सोचने लगते हैं, इसके लिए उन पर किसी बाह्य उद्दीपन के दबाव की आवश्यकता नहीं होती। इसे ही वे आत्मक्रिया कहते हैं और इस बात पर बल देते हैं कि बच्चों को आत्मक्रिया द्वारा सीखने के अधिक से अधिक अवसर देने चाहिए।
आदर्शवादी प्राचीन साहित्य का आदर करते हैं। वे मानते हैं कि हमारे प्राचीन साहित्य में हमारे पूर्वजों द्वारा खोजा हुआ ज्ञान भरा पड़ा है, हमें उससे लाभ उठाना चाहिए। प्राचीन साहित्य के अध्ययन के लिए वे स्वाध्याय विधि के पक्षधर हैं। पर इस विधि का प्रयोग शिक्षा के उच्च स्तर पर ही किया जा सकता है।
पाश्चात्य आदर्शवादी विचारकों ने अनेक शिक्षण विधियों का विकास किया है। प्लेटो के गुरु सुकरात वाद-विवाद, व्याख्यान और प्रश्नोत्तर विधि द्वारा उस समय के युवकों को शिक्षा दिया करते थे। वे किसी स्थान पर युवकों को एकत्रित कर उनके सामने प्रश्न प्रस्तुत करते थे, युवक उन प्रश्नों पर विचार करते थे, उत्तर देते थे, तब वे उन प्रश्नों के सन्दर्भ में अपना मत स्पष्ट करते थे। प्लेटो ने प्रश्नोत्तर विधि के आधार पर संवाद विधि का विकास किया। प्लेटो ने अपनी अधिकतर रचनाएँ भी संवादों के रूप में लिखी हैं। प्लेटो के संवाद विश्वविख्यात हैं। उनके शिष्य अरस्तू आगमन और निगमन विधियों पर बल देते थे। आगमन विधि में सामान्य से विशिष्ट की ओर चला जाता है और निगमन विधि में विशिष्ट से सामान्य की ओर चला जाता है। पहले वे उदाहरण प्रस्तुत कर सामान्यीकरण करते थे और फिर इस प्रकार प्राप्त सिद्धान्त का प्रयोग करते थे। आधुनिक आदर्शवादी दार्शनिकों में हीगल ने तर्क विधि, पैस्टालॉजी ने अभ्यास और आवृत्ति विधि, हरबार्ट ने अनुदेशन प्रणाली और फ्रोवेल ने खेल विधि का विकास किया है।
अनुशासन
आदर्शवादियों का स्पष्टीकरण है कि मनुष्य की इन्द्रियाँ उसे भौतिक सुख की ओर आकर्षित करती हैं और उसकी आत्मा आध्यात्मिक आनन्द की ओर। उनकी दृष्टि आत्मा से शासित होना ही सच्चा अनुशासन है। आदर्शवाद के प्रतिपादक प्लेटो के अनुसार बच्चों को आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर करने के लिए नैतिक आचरण आवश्यक होता है। अतः हमारा सर्वप्रथम कर्त्तव्य है कि बच्चों को अनैतिक आचरण से रोकें। इसके लिए वे कठोर नियन्त्रण और दण्ड का विधान स्वीकार करते थे। परन्तु दूसरी ओर उनका यह भी कहना था कि वास्तविक अनुशासन आन्तरिक होता है जिसमें मनुष्य अपने अन्तःकरण से प्रेरणा प्राप्त करता है और तद्नुकूल आचरण करता है। अतः बच्चों को ऐसा वातावरण दिया जाए कि वे स्वतः नैतिक आचरण की ओर अग्रसर हों। आधुनिक युग के आदर्शवादी विचारक जर्मन शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल ने स्पष्ट किया कि दण्ड के भय से वास्तविक अनुशासन की प्राप्ति नहीं की जा सकती, सच्चे अनुशासन की प्राप्ति के लिए प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता है। उनके शब्दों में बच्चे पर नियन्त्रण करते समय उसकी रुचियों का ध्यान रखना चाहिए और प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। हार्न महोदय ने भी आन्तरिक अनुशासन पर बल दिया है। उनके शब्दों में – अनुशासन का प्रारम्भ बाह्य रूप से होता है परन्तु यह उत्तम होगा यदि इसका अन्त आदत निर्माण और आत्मनियन्त्रण द्वारा आन्तरिक हो। इस प्रकार सभी आदर्शवादी अनुशासन को आन्तरिक भावना मानते हैं और छात्रों में इसका विकास करने के लिए विद्यालयों में उच्च पर्यावरण के निर्माण एवं विकास पर बल देते हैं। उचित पर्यावरण में बच्चे स्वतः अनुशासित होंगे, यह तो एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है।
शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धी
आदर्शवादी शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक को शीर्ष स्थान देते हैं। उनके अनुसार बच्चों को से मनुष्यत्व और मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले जाने में शिक्षक की बड़ी आवश्यकता होती है। उनका स्पष्टीकरण है कि बच्चों को भौतिक विषयों का ज्ञान तो कोई भी व्यक्ति करा सकता है उनके चरित्र निर्माण और आध्यात्मिक विकास के लिए योग्य, सच्चरित्र एवं तपे हुए व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। प्लेटो के अनुसार, ज्ञान के भण्डार, दार्शनिक और अन्तर्दृष्टि प्राप्त व्यक्ति ही शिक्षक बनने के अधिकारी होते हैं। फ्रोबेल के शब्दों में विद्यालय रूपी बाग में अध्यापक रूपी माली विद्यार्थी रूपी पौधों के विकास में सहयोग देते हैं। यह सहयोग वे तभी दे सकते हैं जब उन्हें बच्चों की प्रकृति और उनके विकास की प्रक्रिया का स्पष्ट ज्ञान हो । अतः अध्यापक में छात्रों को समझने और उनका उचित ढंग से विकास कर सकने की शक्ति भी होनी चाहिए।
आदर्शवादी मनुष्य को आत्माधारी मानते हैं। उनके अनुसार अनुभव का केन्द्र मस्तिष्क नहीं, आत्मा होता है। इस दृष्टि से सब बच्चे समान होते हैं और पूर्णता की अनुभूति करने योग्य होते हैं। अधिकतर आदर्शवादी बच्चों को प्रारम्भ से ही इस पूर्णता की अनुभूति कराने पर बल देते हैं। परन्तु आधुनिक आदर्शवादी बच्चों की शारीरिक और मानसिक भिन्नता को स्वीकार करते हैं। उनका स्पष्टीकरण है कि ज्ञान को आत्मा तक पहुंचाने में शरीर के विभिन्न अंग-कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ और मस्तिष्क कार्य करते हैं, और इनमें भिन्नता होती है। अतः बच्चों का विकास करते समय उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास, रुचि, रुझान और आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिए। स्विस् शिक्षाशास्त्री पैस्टालॉजी सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बच्चों की मनोवैज्ञानिक भिन्नता के आधार पर उनकी शिक्षा का विधान करने पर बल दिया था। आगे चलकर उनके शिष्य जर्मन शिक्षाशास्त्री हरबार्ट और फ्रोबेल ने अपने गुरु के विचारों को मूर्त रूप प्रदान किया।
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