चिन्तन की प्रक्रिया का अर्थ स्पष्ट करते हुये बालकों में चिन्तन का विकास करने की विधियों का वर्णन कीजिये।
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चिन्तन का अर्थ तथा परिभाषा (Meaning & Definition of Thinking)
मनुष्य को संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहा गया है। इसका कारण है- उसका चिन्तनशील होना। जीवधारियों में मनुष्य ही सर्वाधिक चिन्तनशील है तथा यही चिन्तन मनुष्य और उसके समाज के विकास का कारण है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य की चिन्तन शक्तियों को विकसित किया जाता है।
मनुष्य के सामने कभी-कभी किसी समस्या का उपस्थित होना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में वह उस समस्या का समाधान करने के उपाय सोचने लगता है। वह इस बात पर विचार करना आरम्भ कर देता है कि समस्या को किस प्रकार सुलझाया जा सकता है। उसके इस प्रकार सौचने या विचार करने की प्रक्रिया को ‘चिन्तन’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में, चिन्तन विचार करने की वह मानसिक प्रक्रिया है, जो किसी समस्या के कारण आरम्भ होती है और उसके अन्त तक चलती रहती है।
चिन्तन के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिये कुछ परिभाषायें निम्न प्रकार हैं-
1. वेलेन्टाइन- “चिन्तन शब्द का प्रयोग उसे क्रिया के लिये किया जाता है, जिसमें श्रृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य या उद्देश्य की ओर अविराम गति से प्रवाहित होते हैं।”
“It is well to keep the term ‘thinking’ for an activity which consists essentially of a connected flow of ideas which are directed towards some end or purpose.” – Valentine
2. रॉस- “चिन्तन, मानसिक क्रिया का ज्ञानात्मक पहलू है या मन की बातों से सम्बन्धित मानसिक क्रिया है।”
“Thinking is mental activity in the cognitive aspect, or mental activity with regard to psychical objects.” – Ross
13. रेबर्न – “चिन्तन, इच्छा-सम्बन्धी प्रक्रिया है, जो किसी असन्तोष के कारण आरम्भ होती है और प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर चलती हुई उस अन्तिम स्थिति पर पहुँच जाती है, जो इच्छा को सन्तुष्ट करती है।”
“Thinking is a conative process, arising from a felt dissatisfaction, and proceeding by trial or error to an end-state which satisfies the conation.” – Reyburn
इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि चिन्तन मानसिक क्रिया का ज्ञानात्मक पथ है। यह प्रक्रिया किसी विशेष उद्देश्य की ओर परिलक्षित होती है। इसमें इच्छा तथा असंतोष का महत्व है। इच्छा तथा असंतोष मनुष्य को चिन्तन करने के लिये विवश करते हैं।
चिन्तन की विशेषतायें (Characteristics of Thinking)
सी० टी० मार्गन के अनुसार- “वास्तव में प्रतिदिन की वार्ता में प्रयोग होने वाले चिन्तन शब्द में विभिन्न क्रियाओं की संचरना निहित है।” इसका सम्बन्ध गम्भीर विचारशील क्रिया से है। इस दृष्टि से चिन्तन की विशेषतायें इस प्रकार हैं-
1. मानसिक प्रक्रिया – चिन्तन, मानव की किसी इच्छा, असन्तोष, कठिनाई यां समस्या के कारण आरम्भ होने वाली एक मानसिक प्रक्रिया है।
2. समस्या समाधान– मर्सेल के अनुसार चिन्तन उस समय आरम्भ होता है, जब व्यक्ति के समक्ष कोई समस्या उपस्थित होती है और वह उसका समाधान खोजने का प्रयत्न करता है।
3. समस्या समाधान तक चलने वाली प्रक्रिया – इस प्रकार, चिन्तन एक पूर्ण और जटिल मानसिक प्रक्रिया है, जो समस्या की उपस्थिति के समय से आरम्भ होकर उसके समाधान के अन्त तक चलती रहती है।
4. विशिष्ट गुण- चिन्तन, मानव का एक विशिष्ट गुण है, जिसकी सहायता से वह अपनी बर्बर अवस्था से सभ्य अवस्था तक पहुँचने में सफल हुआ है।
5. भावी आवश्यकता की पूर्ति हेतु व्यवहार- चिन्तन किसी वर्तमान या भावी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिये एक प्रकार का व्यवहार है। हम अँधेरा होने पर बिजली का स्विच दबाकर प्रकाश कर लेते हैं और मार्ग पर चलते हुए सामने से आने वाली मोटर को देखकर एक ओर हट जाते हैं।
6. अनेक विकल्प- चिन्तन की सहायता से व्यक्ति अपनी समस्या का समाधान करने के लिये अनेक उपायों पर विचार करता है। अन्त में, वह उनमें से एक का प्रयोग करके अपनी समस्या का समाधान करता है।
चिन्तन के प्रकार (Kinds of Thinking)
‘चिन्तन’ निम्न चार प्रकार का होता है—
1. प्रत्ययात्मक चिन्तन (Conceptual Thinking) – इस चिन्तन का सम्बन्ध पूर्व-निर्मित प्रत्ययों से होता है, जिनकी सहायता से भविष्य के किसी निश्चय पर पहुँचा जाता है। कुत्ते को देखकर बालक अपने मन में प्रत्यय का निर्माण कर लेता है। अतः जब वह भविष्य में कुत्ते को फिर देखता है, तब वह उसकी ओर संकेत करके कहता है- ‘कुत्ता’। इस चिन्तन में भाषा और नाम का प्रयोग किया जाता है।
2. तार्किक चिन्तन (Logical Thinking) – यह सबसे उच्च प्रकार का चिन्तन है। इसका सम्बन्ध किसी अन्य समस्या के समाधान से होता है। जॉन डीवी (Dewey) ने इसको ‘विचारात्मक चिन्तन’ (Reflective Thinking) की संज्ञा दी है।
3. प्रत्यक्षात्मक चिन्तन (Perceptual Thinking) – इस चिन्तन का सम्बन्ध पूर्व अनुभवों पर आधारित वर्तमान की वस्तुओं से होता है। माता-पिता के बाजार से लौटने पर यदि बालक को उनसे काफी दिनों तक चॉकलेट मिल जाती है, तो जब भी वे बाजार से लौटते हैं, तभी चॉकलेट का विचार उसे मस्तिष्क में आ जाता है और वह दौड़ता हुआ उनके पास जाता है। यह निम्न स्तर का चिन्तन है। अतः यह विशेष रूप से पशुओं और बालकों में पाया जाता है। इसमें भाषा और नाम का प्रयोग नहीं किया जाता है।
4. कल्पनात्मक चिन्तन (Imaginative Thinking) – इस चिन्तन का सम्बन्ध पूर्व-अनुभवों पर आधारित भविष्य से, होता है। जब माता-पिता बाजार जाते हैं, तब बालक कल्पना करता है कि वे वहाँ से लौटने पर उसके लिये टॉफी लायेंगे । इस चिन्तन में भाषा और नाम का प्रयोग नहीं किया जाता है।
चिन्तन के विकास के उपाय (Methods of Developing Thinking)
क्रो व क्रो के अनुसार- “स्पष्ट चिन्तन की योग्यता सफल जीवन के लिये आवश्यक है। जो लोग उद्योग, कृषि या किसी मानसिक कार्य में दूसरों के आगे होते हैं, वे अपनी प्रभावशाली चिन्तन की योग्यता में साधारण व्यक्तियों से श्रेष्ठ होते हैं।”
“The ability to think clearly is necessary to successful living. Those who outrank others in industry, agriculture or any intellectual pursuit are above average in their ability to think effectively.” – Crow & Crow
इस कथन से चिन्तन का महत्व स्पष्ट हो जाता है। अतः यह आवश्यक है कि शिक्षक, बालकों की चिन्तन-शक्ति का विकास करे। वह ऐसा निम्नलिखित उपायों की सहायता से कर सकता है-
1. ज्ञान, चिन्तन का मुख्य स्तम्भ है। अतः शिक्षक को बालकों के ज्ञान का विस्तार करना चाहिये।
2. उत्तरदायित्व, चिन्तन को प्रोत्साहित करता है। अतः शिक्षक को बालकों को उत्तरदायित्व के कार्य सौंपने चाहिये ।
3. प्रयोग, अनुभव और निरीक्षण, चिन्तन को शक्तिशाली बनाते हैं। अतः शिक्षक को बालकों के लिये इनसे सम्बन्धित वस्तुयें जुटानी चाहियें।
4. शिक्षक को बालकों को विचार करने और अपने विचारों को व्यक्त करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।
5. शिक्षक को बालकों में निष्क्रिय रटने की आदत नहीं पड़ने देनी चाहिये, क्योंकि इस प्रकार का रटना, चिन्तन का घोर शत्रु है।
6. भाषा, चिन्तन के माध्यम और अभिव्यक्ति की आधारशिला है। अतः शिक्षक को बालकों के भाषा-ज्ञान में वृद्धि करनी चाहिये ।
7. तर्क, वाद-विवाद और समस्या समाधान, चिन्तन-शक्ति को प्रयोग करने का अवसर देते हैं। अतः शिक्षक को बालकों को इन बातों के लिये अवसर देने चाहिये ।
8. रुचि और जिज्ञासा का चिन्तन में महत्वपूर्ण स्थान है। अतः शिक्षक को बालकों की इन प्रवृत्तियों को जाग्रत रखना चाहिये ।
9. शिक्षक को अपने अध्यापन के समय बालकों से विचारात्मक प्रश्न पूछ कर उनकी चिन्तन की योग्यता में वृद्धि करनी चाहिये ।
10. शिक्षक को बालकों को समस्या को समझने और इसका समाधान खोजने के लिये प्रेरित करना चाहिये। यह उपाय बालकों में चिन्तन और अधिगम दोनों की प्रक्रियाओं के विकास में योग देता है। मरसेल के अनुसार- “समस्या का ज्ञान और उसके समाधान की खोज-यही चिन्तन की प्रक्रिया है और यही सीखने की भी प्रक्रिया है।”
“The recognition of a question, the quest for an answer this is the process of thinking and also the process of learning.”. – Mursell
11. शिक्षक को प्रश्न-पत्र में ऐसे प्रश्न देने चाहियें, जिनके उत्तर बालक भली-भाँति विचार करने के बाद ही दे सकें।
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