डीवी के अनुसार विद्यालय और अनुशासन का उल्लेख कीजिए।
विद्यालय – जॉन डीवी एक प्रगतिशील शिक्षाशास्त्री था। वह परम्परागत स्कूलों का विरोधी था, जहाँ रटने पर जोर दिया जाता था। जब वह शिकागो में था तभी उसने अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों को कार्यान्वित करने तथा प्रयोग द्वारा उसकी व्यावहारिकता सिद्ध करने के लिए सन् 1896 में एक आदर्श विद्यालय की स्थापना करवायी थी। इस विद्यालय में जीवन से सम्बन्धित व्यवस्थाओं की शिक्षा दी जाती थी, जैसे- दुकानदारी, लकड़ी का काम, सीना, सुनना, हस्तकार्य, खेल, रचना आदि। यहाँ पुस्तकीय ज्ञान की अवहेलना की जाती थी तथा व्यावहारिक ज्ञान पर बल दिया जाता था। संक्षेप में डीवी के विद्यालय सम्बन्धी विचार निम्नलिखित हैं-
1. विद्यालय आदर्श समाज का लघु रूप होना चाहिए- स्कूल एक सामाजिक संस्था है। हम उसे आदर्श समाज का ही प्रतिरूप समझें तो अधिक उपयुक्त होगा। यह जीवन की ऐसी प्रयोगशाला है जहाँ जीवन के लिए उपयोगी अनुभव पड़े, सीखे तथा प्राप्त किये जा सकते हैं। विद्यालय में वह बालक के सर्वांगीण विकास के लिए उनमें सक्रिय सहयोग, सहकारिता और स्वावलम्बन की भावना उत्पन्न करना चाहता है। उसका विचार था कि इससे बालक की वृत्ति इतनी स्थिर, व्यवस्थित और परिपक्व हो जायेगी कि सामाजिक जीवन में प्रवेश कर लेने पर उसे यह नहीं प्रतीत होगा कि मैं किसी नये अपरिचित क्षेत्र में प्रवेश कर रहा हूँ। इसीलिए जॉन डीवी ने कहा है कि “विद्यालय को अपनी दीवारों के बाहर विशाल समाज का प्रतिबिम्ब होना चाहिए, जहाँ जीवन की शिक्षा व्यावहारिक ढंग से मिलेगी, किन्तु यह समाज शुद्ध, सरल और भली-भाँति सन्तुलित होगा।”
2. विद्यालय में खेल, रचना तथा व्यावहारिक ज्ञान बालकों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के अनुसार विद्यालय के कार्यक्रम को निर्धारित किया जाता है तथा उन्हें घरेलू उद्योग-धन्धों, पारिवारिक क्रियाओं एवं जीवन की दैनिक आदतों की शिक्षा दे सकते हैं। इस प्रकार बालक की शिक्षा व्यावहारिक रूप में खेल, नवीन वस्तुओं के निर्माण, अभिव्यक्ति तथा क्रियात्मकता से सम्बन्धित रहती है।
3. विद्यालय तथा घर के वातावरण में समानता — विद्यालय परिवार की भाँति एक सामाजिक संस्था है। डीवी विद्यालय को आदर्श तथा विस्तृत परिवार मानते हैं जहाँ बालक की सामाजिक भावना का विकास होता है। इसके साथ ही विद्यालय समाज की जटिल समस्याओं को सरलतम रूप में प्रस्तुत करता है, जिससे बालक सामाजिक दायित्वों के प्रति जागरूक होता है। इस प्रकार व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों का विकास विद्यालय में होता है।
4. विद्यालय अनुभव परीक्षण का केन्द्र स्थल– डीवी लिखते हैं कि “सच्चा चिन्तन तभी सम्भव है जहाँ परीक्षण का अवसर प्राप्त हो ।” जॉन डीवी विद्यालय को अपने जीवन के लिए उपयोगी तथ्यों को स्वयं परीक्षण करके उसकी सत्यता से परिचित होने का अवसर प्रदान करता है। वह प्राचीन शिक्षा पद्धति, जो अन्धानुकरण और आज्ञापालन पर आधारित थी, उसे बालक के लिए अहितकर मानता है।
अनुशासन
जॉन डीवी पूर्ण रूप से जनतन्त्रवादी थे, अतः शिक्षा के क्षेत्र में भी उसके यह विचार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। डीवी दमनात्मक अनुशासन के विरोधी थे। इनके अनुसार तानाशाही अनुशासन का आधार भय होता है और यह ऊपर से कायम किया जाता है, जबकि जनतन्त्रीय अनुशासन अन्दर से उत्पन्न होता है। वह इस दूसरे प्रकार के अनुशासन के पक्ष में थे। डीवी के अनुसार अनुशासन व्यक्ति की आत्मा की शिक्षा है, जिससे व्यक्ति को शक्ति मिलती है।
डीवी कहते हैं कि बालक की शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो कि वांछित गुण शिक्षार्थी में स्वतः उत्पन्न हो जायें। वह बाह्य बन्धन की अनुपयोगिता और आभ्यान्तरिक नियन्त्रण की उपादेयता पर बल देता है। अपनी क्षमताओं तथा शक्तियों की अभिव्यक्ति को डीवी अनुशासन की संज्ञा प्रदान करता है।
रॉस ने कहा है कि सच्चा अनुशासन तो स्वानुशासन ही है। डीवी अनुशासन को आन्तरिक विकास की क्रिया मानते हुए कहते हैं कि स्कूल में इस प्रकार शिक्षा दी जाये कि बालक को सहयोग, अनुशासन, उत्तरदायित्व, सामाजिक हित आदि के अभ्यास के लिए पर्याप्त अवसर मिलें। डीवी के अनुसार नैतिक अनुशासन विद्यालय के जीवन से प्राप्त होने वाला उसका एक अंग है, शिक्षक के प्रयास से मिलने वाली वस्तु नहीं। अतः विद्यालय की व्यवस्था ऐसी परिस्थिति को जन्म दे जहाँ बालक आत्म-संयम, आत्म-नियन्त्रण करना सीखे।
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