नव-उदारवाद पर प्रकाश डालिए।
नव-उदारवाद समकालीन विश्व में ‘अहस्तक्षेप’ की नीति को फिर से अपनाने की माँग करता है। नव-उदारवाद के पक्षधर राज्य के दूर-दूर तक फैले हुए कार्य-क्षेत्र को ‘फिर से समेटने ‘ का समर्थन करते हैं। यह विचारधारा 1980 के दशक से मुख्यत: संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में उभरकर सामने आई। इस दशक के अंतिम वर्षों में पूर्वी यूरोप की समाजवादी अर्थ-व्यवस्थाओं में जो संकट पैदा हुआ था, उसने इसे और भी बढ़ावा दिया। 1990 के दशक के शुरू में इन व्यवस्थाओं के पतन से यह सिद्ध हो गया कि अल्पविकसित क्षेत्र में राज्य-प्रेरित विकास के सहारे अर्थ-व्यवस्था को बहुत दूर तक नहीं ले जाया जा सकता। इधर तीसरी दुनिया के देशों के लोगों ने राज्य की आर्थिक अकुशलता को निकट से देखा जो इनकी बुनियादी आवश्यकताएँ पूरी करने में असमर्थ सिद्ध हुआ है, यहाँ प्रशासन में सब ओर भ्रष्टाचार फैला है और जनसाधारण के जीवन पर सत्तावाद का पंजा फैलता जा रहा है। इससे जनसाधारण के मन में जो असंतोष पैदा हुआ है, उससे भी यह सिद्ध हो गया है कि अर्थ-व्यवस्था को राज्य के नियंत्रण और संरक्षण में छोड़ देना उपयुक्त नहीं है। इन परिस्थितियों ने प्राय: सम्पूर्ण विश्व में इस विचार को बढ़ावा दिया है कि व्यक्तियों की उत्पादन-क्षमता और अर्थ-व्यवस्था की कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए बाजार की शक्तियों को अपना काम करने देना चाहिए।
नव-उदारवाद के समर्थक स्वेच्छा से प्रेरित व्यवस्था को उत्तम व्यवस्था मानते हैं। उनका विचार है कि मुक्त बाजार ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा देता है कि जहाँ सब लोग स्वेच्छा से प्रेरित होते हैं वे ऐसी राजनीति की निंदा करते हैं जो मानवीय आवश्यकताओं के निश्चित ज्ञान का दावा करती हो। समाजवाद से जुड़ी हुई राजनीति यही दावा करती है। नव-उदारवादियों के अनुसार, मानवीय आवश्यकताएँ मुक्त समाज के भीतर विभिन्न व्यक्तियों के परस्पर लेन-देन की असंख्य गतिविधियों के रूप में व्यक्त होती है। इनके बारे में को भविष्यवाणी नहीं कर सकता। अतः सामाजिक जीवन में जितने भी निर्णय बाजार पर छोड़े जा सकते हों, अवश्य छोड़ देने चाहिए। इस दृष्टि से, बाजार विभिन्न व्यक्तियों को अपनी-अपनी पसंद के अनुसार चलने के अधिकतम अवसर प्रदान करता है; अतः वह सच्चे लोकतंत्र की व्यावहारिक अभिव्यक्ति है। दूसरी ओर, औपचारिक लोकतंत्र स्वयं एक राजनीतिक बाजार का रूप धारण कर लेता है। इसमें नागरिक अपना वोट देकर उसके बदले में तरह-तरह के हितलाभ और सेवाएँ प्राप्त करते हैं। इस सारी व्यवस्था पर जो खर्च आता है, उसे सब लोग मिलकर उठाते हैं। बाजार सब लोगों को अपनी-2 योग्यताओं और अपने-2 संसाधनों के सर्वोत्तम प्रयोग की प्रेरणा व प्रोत्साहन देता है।
समकालीन विश्व में नव-उदारवाद की प्रेरणा से तीन नीतियों को अपनाया जा रहा है जो एक-दूसरे के साथ निकट से जुड़ी हैं: उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण ।
उदारीकरण: इस नीति के अन्तर्गत आर्थिक गतिविधि की कार्यकुशलता और उससे मिलने वाले लाभ की अधिकतम वृद्धि के लिए उस पर से सरकारी प्रतिबंध और नियंत्रण हटा दिए जाते हैं, या उनमें ढील दे दी जाती है ताकि बाजार की शक्तियों को बेरोक-टोक काम करने दिया जाए। इसके साथ यह विश्वास जुड़ा है कि मांग और पूर्ति तथा मुक्त प्रतिस्पर्धा के नियम, व्यापारियों के लिए निजी लाभ और कामगारों के लिए प्रोत्साहनों का आकर्षण आर्थिक गतिविधि में कार्यकुशलता बढ़ाने के सर्वोत्तम साधन हैं। इस नीति के अंतर्गत व्यक्तियों के कल्याण के लिए राज्य के उत्तरदायित्व को कम करने की कोशिश की जाती है। उदारीकरण के समर्थक यह मानते हैं कि राज्य की कल्याणकारी गतिविधियों को बढ़ाने से व्यक्ति स्वयं परिश्रम से विमुख हो जाते हैं और राज्य के संसाधनों पर भी जरूरत से ज्यादा बोझ पड़ता है। फिर, जो लोग अपनी सूझ-बूझ और कठिन परिश्रम के बल पर राज्य की समृद्धि को बढ़ाते हैं, उन पर करों का बोझ बहुत बढ़ जाता है, और वे भी परिश्रम से विमुख हो सकते हैं। अत: सब तरह के लोगों को परिश्रम की ओर प्रेरित करने के लिए राज्य की कल्याणकारी सेवाओं को सीमित करना जरूरी है।
निजीकरण या गैर सरकारीकरण: इस नीति के द्वारा अर्थ-व्यवस्था के किसी महत्त्व पूर्ण हिस्से को या किन्हीं विशेष वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन या वितरण को सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के स्वामित्त्व और नियंत्रण से हटाकर निजी या गैर-सरकारी क्षेत्र को उसका स्वामित्व या नियंत्रण प्राप्त करने की अनुमति दे दी जाती है, ताकि उसकी कार्यकुशलता बढ़ाई जा सके उससे होने वाली वित्तीय हानि को रोका जा सके और उससे अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए लोगों को अधिकतम परिश्रम की ओर प्रेरित किया जा सके, राज्य के बोझ को कम किया जा सके और राष्ट्र की समृद्धि को बढ़ावा जा सके।
भूमंडलीकरण- यह नीति उदारीकरण और निजीकरण के तार्किक परिणाम को व्यक्त करती है। इसके अंतर्गत आर्थिक गतिविधि की कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए प्रस्तुत अर्थ-व्यवस्था को विश्व के किसी भी हिस्से की आर्थिक गतिविधि के साथ जोड़ने की छूट दे दी जाती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी वस्तु के उत्पादन के लिए कच्चा माल विश्व के एक हिस्से में सस्ता मिलता हो, श्रम दूसरे हिस्से में सस्ता पड़ता हो, पूंजी और संयंत्र किसी तीसरे हिस्से में सुलभ हों, और बाजार विश्व के भिन्न-भिन्न हिस्सों में दूर-दूर तक फैले हों तो भूमंडलीकरण की नीति के अन्तर्गत इन सबका एक-साथ उपयोग करने से कोई संकोच नहीं किया जाता।
भूमंडलीकरण के अन्तर्गत उत्पादन विपणन और सेवाओं का जाल बिछाने तक के किसी भी कार्य को विश्व के किसी भी कोने में संपन्न किया जा सकता है ताकि जहाँ उसकी लागत सबसे कम आए, उसकी गुणवत्ता उन्नत की जा सके और जहाँ उससे अधिकतम लाभ प्राप्त हो, वहाँ उसे सम्पन्न करने की अनुमति और सुविधाएँ प्राप्त हों।
आर्थिक क्षेत्र में भूमंडलीकरण की नीति बहुराष्ट्रीय निगमों के विस्तार को बढ़ावा देती है। फिर, जीवन के अन्य क्षेत्रों पर भी इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। यह परिवहन और संचार प्रणाली को उन्नत करके विश्व के सब हिस्सों में निकट सम्पर्क स्थापित कर देती है। यह एक-जैसी वस्तुओं और सेवाओं को विश्व के कोने-कोने में पहुँचाकर रहन-सहन की एक-जेसी शैली को बढ़ावा देती है, और मनोरंजन के तरीकों में भी एकरूपता ला देती है। अंततः यह सम्पूर्ण विश्व के लिए एक भूमंडलीय संस्कृति के विकास में योग देती है। इस तरह भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने व्यक्तियों और समुदायों के जीवन को विश्वव्यापी आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव का विषय बना दिया है।
कुछ विद्वान भूमंडलीकरण को मानव जाति के लिए वरदान मानते हैं। उनके अनुसार, भूमंडलीकरण के कारण अब व्यक्तियों और समुदायों की उन्नति के लिए राष्ट्र-राज्य की सीमाएँ कोई बाधा नहीं रह गई हैं। अब उनके लिए ऐसे ज्ञान और संस्कृति का द्वार खुल गया है जो सम्पूर्ण विश्व से जुड़ी हुई प्रतिभा की देन हैं। अब स्थानीय समुदायों को विश्वभर की प्रौद्योगिकी, सूचना सेवाओं और बाजारों से लाभ उठाने का अवसर मिल गया है। इससे भूमंडलीय पर्यावरण के प्रति उनकी सजगता बढ़ी है, और वे भूमडलीय समस्याओं को अपने व्यक्तिगत और सामूहिक उत्तरदायित्व का विषय मानने लगे हैं। परन्तु कुछ विद्वान भूमंडलीकरण को विश्व के बहुत बड़े हिस्से के लिए अभिशाप भी समझते हैं। वे यह मानते हैं कि यह विकासशील देशों पर विकसित देशों का प्रभुत्व स्थापित करने की चाल है। वे इसे नव-उपनिवेशवाद की एक अभिव्यक्ति मानते हैं। वे यह तर्क देते हैं कि भूमंडलीकरण के बहाने पश्चिमी संस्कृति को भूमंडलीय संस्कृति बनाकर सब जगह फैलाया जा रहा है, और इस तरह देश-देशांतर की सांस्कृतिक विविधताओं को मिटाया जा रहा है। भूमंडलीयकरण की आड़ में स्थानीय अर्थ-व्यवस्थाओं को पश्चिम की पूंजीवादी प्रणाली से जोड़कर इन्हें तथाकथित भूमंडलीय प्रणाली में विलीन किया जा रहा है।
भूमंडलीकरण के आलोचक यह तर्क देते हैं कि भूमंडलीय संस्कृति और भूमंडलीय अर्थ-व्यवस्था स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं हुई है, बल्कि पूंजीवादी शक्तियों ने स्वार्थ-साधन के लिए इनका आविष्कार किया है। इनकी ‘अनिवार्यता’ का प्रचार करके अल्पविकसित देशों को इनके जाल में फंसाया जा रहा है।
कुछ विद्वान भूमंडलीकरण पर यह तर्क देते हैं कि भूमंडलीकरण निर्धनता को मिटाया नहीं है, बल्कि उसे कायम रखा है। इसने आर्थिक विषमताओं को बढ़ाया है; पर्यावरण को भ्रष्ट किया है: असहिष्णुता को बढ़ावा दिया है; सैन्यवाद को सहारा दिया है; समुदायों को विखंडित किया है और उपाश्रित वर्गों की दशा पहले से ही दयनीय बना दी है। दूसरी ओर, वे यह भी स्वीकार करते हैं कि भूमंडलीकरण के कारण 1945 के बाद विश्व की प्रति व्यक्ति आय तिगुनी हो गई है; विश्व की जनसंख्या में अतिनिर्धन लोगों का अनुपात आधा रह गया है; पर्यावरण के प्रति सजगता बढ़ी है; और निरस्त्रीकरण के लिए अनुकूल वातावरण बना है। फिर, इससे उपाश्रित वर्गों को अपने भूमंडलीय संगठन बनाने की प्रेरणा मिली है और वे यह अनुभव करने लगे हैं कि वे भूमंडलीय प्रणाली को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इन वर्गों ने अपने-आपको भूमंडलीय संस्कृति के साथ जोड़ कर अपनी नई पहलचान बनाई है जिससे उन्हें स्थानीय शक्तियों के प्रभुत्व से कुछ हद तक मुक्ति मिली है।
कुल मिलाकर वर्तमान दौर में भूमंडलीकरण की प्रवृत्ति को रोकने का कोई भी प्रयत्न व्यर्थ होगा। हमें इसके गुण-दोषों का विश्लेषण करके ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे इसके गुणों से अधिकतम लाभ उठाया जाए और इसके दोषों से होने वाली हानि को रोका जाए।
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